हाल ही में नारीवादी विचारकों के समूह ‘नूर’ के द्वारा “रूट्स ऑफ हेटः फॉसिस्ट एंड फंडामेंटलिस्ट नैरेटिवस एंड एक्टर इन साउथ-वेस्ट एशिया एंड नॉर्थ अफ्रीका रीजन” नाम से एक रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट दक्षिण पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ़्रीका के क्षेत्रों में फ़ासीवाद और कट्टरवाद के उदय और पिछले पांच वर्षों में यहां मानवाधिकारों और प्रगतिशीत विचारों पर हुए हमलों की घटनाओं को उजागर करती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह से इस क्षेत्र के लोगों के लिए ‘फ़ासीवाद’ और ‘कट्टरवाद’ महज़ शब्द नहीं हैं, बल्कि उनके रोज़मर्रा के जीवन की सच्चाई हैं। इसे नादा वहबा ने लिखा है और इसके लिए शोध का कार्य करने में कोलम्बो की नारीवादी शोधकर्ता और एक्टिविस्ट सुभा विजेसिरीवर्देना ने उनकी मदद की है।
यह रिपोर्ट पिछले पाँच साल (2019 से लेकर 2024 तक) के नारीवादी और मानवाधिकार संगठनों के प्रकाशन,संपादकीय, अकादमिक पेपर्स, सोशल मीडिया पोस्ट, विश्लेषण और समसामयिक विषयों पर लिखे गए लेखों सहित विभिन्न स्रोतों से हासिल द्वितीयक डेटा पर केंद्रित है।
क्या है नूर और इसका उद्देश्य
नूर की स्थापना साल 2022 में हुई। यह एक वैश्विक नारीवादी नेटवर्क है जो फ़ासीवाद और कट्टरवाद का सामना करने के लिए सामूहिक प्रतिरोध का समर्थन करता है। यह फ़ासीवाद का मुकाबला कर रहे लोगों में यह समझ निर्मित करने के लिए प्रतिबद्ध है कि वे फ़ासीवाद और कट्टरवाद के राजनीतिक स्वरूप को समझ सकें और यह समझ सकें कि इसे सत्ता का समर्थन हासिल है। यह राष्ट्रवाद के उग्र रूप का मुकाबला करने और परिवर्तनकारी विचारों को बढ़ावा देने के लिए लैंगिक न्याय पर आधारित और प्रगतिशील आंदोलनों को सशक्त बनाने पर केंद्रित है।
फ़ासीवाद और कट्टरवाद सोची–समझी राजनीतिक परियोजनाएं हैं। ये हमारे जीवन जीने, बातचीत करने और काम करने के तरीक़ों को बदलकर एक ऐसा माहौल बना देती हैं, जहां डर, विभाजन और नियंत्रण सामान्य हो जाते हैं। एक मज़बूत फ़ासीवाद विरोधी आंदोलन के लिए फ़ासीवाद का समर्थन करनेवाले आंदोलनों की उत्पत्ति को समझना ज़रूरी है। इस रिपोर्ट में यह पड़ताल की गई है कि किस तरह से फ़ासीवादी और कट्टरवादी विचारधाराएं न केवल असहमति को दबाती हैं, बल्कि विद्रोह की संभावना को भी ख़त्म कर देती हैं। राष्ट्रवाद के चरम रूप अक्सर दूसरों की कीमत पर किसी राष्ट्र विशेष या जातीय समूह के हितों को प्राथमिकता देते हैं। इस वजह से समाज के भीतर नस्लीकरण, व्यक्तियों और समूहों को भिन्न मानने और इस आधार पर उन्हें हाशिये पर धकेलने और अमानवीयकरण की प्रक्रियाएं बढ़ जाती हैं।
रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि फ़ासीवाद और कट्टरवाद दूर के ख़तरे नहीं हैं, बल्कि कई हाशिये पर रहने वाले समुदायों द्वारा सामना की जाने वाली वास्तविकताएं हैं। ये विचारधाराएं राष्ट्रीय सीमाओं को परिभाषित करती हैं और निर्धारित करती हैं कि कौन राष्ट्र से जुड़ा है और कौन बाहर का है। इस आधार पर राष्ट्र से असम्बद्ध समझे जाने वाले लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा और भेदभाव को उचित ठहराया जाता है। विभिन्न विश्लेषणों के माध्यम से, इस रिपोर्ट में बताया गया है कि ये राजनीतिक परियोजनाएं लोगों के जीवन को प्रभावित करती हैं और उनके बुनियादी अधिकारों और स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करती हैं।
अंततः, रिपोर्ट इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सामूहिक रणनीति विकसित करने में मदद करने के लिए अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। इसका उद्देश्य इस क्षेत्र में इन दमनकारी ताकतों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की तत्काल आवश्यकता को उजागर करके सभी की आज़ादी का मार्ग प्रशस्त्र करना है।
फ़ासीवादी और कट्टरवादी आंदोलनों की युक्तियां
रिपोर्ट में बताया गया है कि मुख्यतः फ़ासीवादी और कट्टरवादी आंदोलन इन चार युक्तियों पर आधारित होते हैं- साइबर निगरानी और डिजिटल फ़ासीवादः बेशक लोगों को एकजुट और आंदोलित करने में डिजिटल उपकरणों की अहम भूमिका होती है। लेकिन आज, इंटरनेट शटडाउन, वेबसाइटों को अवरुद्ध करना और सख़्त साइबर सुरक्षा क़ानून इन आंदोलनों को नियंत्रित करने के लिए सरकार द्वारा अपनाए जानेवाले उपाय हैं। ये उपाय उन डिजिटल प्लेटफार्मों को सीमित करने की एक बड़ी रणनीति का हिस्सा हैं, जिनका इस्तेमाल लोग ख़ुद को अभिव्यक्त करने, विरोध प्रदर्शन करने और एक-दूसरे के साथ संवाद करने के लिए करते हैं। इसके तहत सरकारें नियंत्रण बनाए रखने के लिए साइबर निगरानी को एक हथियार के रूप में उपयोग करती हैं।
साइबर निगरानी से एक तरफ़ प्रतिरोध और असहमति की सम्भावना कमज़ोर हो जाती है। वहीं दूसरी ओर फ़ासीवादी आंदोलनों के प्रसार के लिए और चरमपंथी विचारधाराओं को प्रसारित करने और समर्थन जुटाने के लिए ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म (जैसे सोशल मीडिया, फ़ोरम और वेबसाइट) का इस्तेमाल किया जाता है। इसे डिजिटल फ़ासीवाद कहते हैं। इंटरनेट का लाभ उठाकर, ये आंदोलन व्यापक दर्शकों तक पहुंचते हैं और इन्हें सरकार का समर्थन हासिल होता है। संक्षेप में दक्षिण पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ़्रीका क्षेत्र में साइबर निगरानी सरकारों के लिए नियंत्रण बनाए रखने के एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में विकसित हुई है। इसके तहत सरकारें नागरिकों की निगरानी और उन्हें डराने के लिए डिजिटल उपकरणों का इस्तेमाल करती हैं।
एलजीबीटीक्यूआई+ विरोधी अभियान को कुचलने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। ये अभियान रूढ़िवादी पारंपरिक नैतिक मूल्यों को बनाए रखने के रूप में क्वीयर समुदाय के अधिकारों और समाज में उनकी स्वीकार्यता को कम करने पर केंद्रित हैं। अक्सर इस तरह की पहलें परिवार और सामाजिक मानदंडों की रक्षा के नाम पर की जाती हैं और इनसे एलजीबीटीक्यूआई+ लोगों के साथ भेदभाव, हिंसा और उनके अधिकारों का क्षरण होता है। सवाना क्षेत्र में होमोसेक्शुएलिटी को अपराध घोषित करने और एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव और हिंसा की घटनाएं बहुत ज़्यादा बढ़ती जा रही हैं, जो कि चिन्ताजनक है।
इस क्षेत्र के मुल्कों में उग्र राष्ट्रवाद की विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस रणनीति में राष्ट्रीय पहचान की एक संकीर्ण, अक्सर कुछ लोगों को बहिष्कृत करनेवाली परिभाषा को बढ़ावा देना शामिल है। इसके तहत कुछ समूहों (आमतौर पर जिन्हें ‘मूल’ या ‘पारंपरिक’ माना जाता है) को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि दूसरों को हाशिए पर रखा जाता है (जैसे आप्रवासी, जातीय अल्पसंख्यक या असहमति की आवाज़ें)। यह विमर्श विभाजन, ज़ेनोफोबिया (अजनबियों से डरना) और नस्लवाद को बढ़ावा दे सकता है क्योंकि यह पसंदीदा समूह के बीच श्रेष्ठता और अधिकार की भावना पर ज़ोर देता है। इसके परिणामस्वरूप अक्सर ऐसी नीतियां बनती हैं, जो उन लोगों के ख़िलाफ़ भेदभाव करती हैं, जो निर्धारित पहचान में फिट नहीं होते हैं।
साथ ही स्थानीय मैनोस्फीयर भी बढ़ता जा रहा है। मैनोस्फीयर पितृसत्तात्मक मूल्यों की वकालत करनेवाले और नारी विरोधी भावनाओं को बढ़ावा देनेवाले ऑनलाइन समूहों को संदर्भित करता है। महिलाओं का अवमूल्यन करनेवाली संस्कृति को बढ़ावा देकर ये पुरुष प्रभुत्व का समर्थन करते हैं। ये समूह व्यापक सामाजिक स्त्रीद्वेष और लैंगिक समानता के प्रतिरोध में योगदान करते हैं, हानिकारक रूढ़ियों को मजबूत करते हैं और असमानता के चक्र को कायम रखते हैं।
भारत के लिए इस रिपोर्ट की प्रासंगिकता
रिपोर्ट में उल्लिखित घटनाओं पर नज़र डालने पर हम पाएंगे कि ये किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं हैं, पूरी दुनिया में ही कमोबेश ऐसा माहौल बन चुका है। मसलन रिपोर्ट के अनुसार अगस्त 2024 में तुर्की के काइसेरी में सीरियाई शरणार्थी विरोधी दंगे हुए और ये केवल तुर्की तक ही सीमित नहीं रहे। इन दंगों को भड़काने में एक सोशल मीडिया पोस्ट ने भूमिका निभाई, जिसमें एक सीरियाई शरणार्थी द्वारा किए गए कथित अपराध का विवरण था। यह घटना दर्शाती है कि किस तरह किसी समूह विशेष को लक्षित करते हुए उसके प्रति हिंसा भड़काने के लिए समय-समय पर फ़ासीवादी ताकतें सोशल मीडिया पोस्ट्स का सहारा लेती हैं।
भारत में भी समूह विशेष को लक्षित करके की जानेवाली इस प्रकार की हिंसा के मामले देखे गए हैं। जैसे कि 2019 में पुलवामा हमले के बाद कई ऐसी घटनाएं समाने आईं, जिनमें दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थकों ने कश्मीरी ड्राई फ्रूट्स विक्रेताओं को बेवजह पीटा। इसी तरह, सरकार विरोधी आवाज़ों को दबाने की बात करें तो भारत में सरकार की आलोचना करने को नियंत्रित करने के लिए यूएपीए जैसे कानून लागू किए गए हैं, जिनके तहत लोगों को सिर्फ़ इस आधार पर जेल में डाल दिया जाता है कि उन्होंने सरकार की आलोचना की या फिर उन्हें राष्ट्रद्रोह के झूठे मुकदमों में फंसा दिया जाता है। इसके साथ ही सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर भी लोगों को जेल में डाले जाने की कई घटनाएं, इस्लामोफ़ोबिया से जुड़ी घटनाएं भी समय-समय पर हमारे सामने आती रही हैं। ऐसी स्थिति में यह रिपोर्ट फ़ासीवाद को प्रेरित करनेवाली ताकतों और इसकी कार्यप्रणाली को समझने में सहायता कर सकती है, ताकि इनका सामना करने के लिए एक उचित रणनीति तैयार की जा सके।