नारीवाद मेरा फेमिनिस्ट जॉय: अपने शर्तों के मुताबिक जीवन जीने की समझ

मेरा फेमिनिस्ट जॉय: अपने शर्तों के मुताबिक जीवन जीने की समझ

लखनऊ से लौटने के बाद मैंने ठान लिया कि दिल्ली में भी अपनी शर्तों पर जिऊंगी। मैंने मम्मी-पापा को इतना समझा लिया कि अब जब भी मुझे कहीं बाहर जाना हो, रात में ठहरने की जरूरत हो, तो बिना झिझक मैं अपनी बात रख सकूं।

अनुराधा बेनीवाल की किताब आज़ादी मेरा ब्रांड में एक बात लिखी गई है, “एक बार आज़ादी चख लेना खून जैसा है, एक बार चख लिया तो फिर वापसी नहीं होती।” यह बात सच है, खासकर लड़कियों के लिए। लेकिन यह आज़ादी इतनी आसानी से नहीं मिलती, इसके लिए परिवार और समाज से विद्रोह करना पड़ता है। इस आज़ादी को पाने के लिए समाज की रूढ़िवादिता, पूर्वाग्रह और पारंपरिक मान्यताओं के खिलाफ खड़ा होना पड़ता है। कई बार इसके परिणामस्वरूप समाज और परिवार से बहिष्कृत होने का डर भी रहता है। जब कोई लड़की घर से बाहर निकलती है, तो उसे परिवार के कई सवालों का सामना करना पड़ता है, जैसे- “कहां जा रही हो?”, “कब तक वापस आओगी?”, “किसके साथ जा रही हो?” इसके अलावा, घर से सलाह भी मिलती है- “समय से घर आ जाना,” “पहुंचकर फोन कर देना।” यह चिंताएं और सवाल आमतौर पर हर लड़की की जिंदगी का हिस्सा होते हैं।

मैं दिल्ली में पली-बढ़ी हूं। मेरी पढ़ाई-लिखाई सरकारी स्कूल में हुई और ग्रेजुएशन मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से किया। कॉलेज के दौरान पापा मुझे बस स्टॉप तक छोड़ने जाते थे और जैसे ही क्लास खत्म होती, घर से फोन आने लगते कि मैं कहां हूं और कब तक वापस आऊंगी। शुरुआत में मुझे यह सब परिवार की सामान्य चिंता लगती थी, लेकिन समय के साथ मुझे गुस्सा आने लगा कि हर बात का जवाब मुझे क्यों देना पड़ता है? दोस्तों के साथ कहीं बाहर जाने पर झूठ बोलना पड़ता, और बॉयफ्रेंड से मिलने जाना हो, तो और भी बहाने बनाने पड़ते। सच बोलने की हिम्मत कभी नहीं होती थी।

मैं दिल्ली में पली-बढ़ी हूं। मेरी पढ़ाई-लिखाई सरकारी स्कूल में हुई और ग्रेजुएशन मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से किया। कॉलेज के दौरान पापा मुझे बस स्टॉप तक छोड़ने जाते थे और जैसे ही क्लास खत्म होती, घर से फोन आने लगते कि मैं कहां हूं और कब तक वापस आऊंगी।

साहित्य और समाज के गहरे संबंध को समझने का मौका

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

मुझे शुरुआत में नहीं पता था कि नारीवाद क्या होता है या पितृसत्ता कैसे काम करती है। ग्रेजुएशन तक मैं सिर्फ पाठ्यक्रम की किताबें ही पढ़ती थी, और उस वक्त यह सब समझने की ज़रूरत भी नहीं महसूस होती थी। लेकिन मास्टर्स के लिए मैंने हिंदी साहित्य चुना और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में दाखिला लिया। यहीं पर मुझे साहित्य और समाज के गहरे संबंध को समझने का मौका मिला। साहित्य में हर उस मुद्दे पर बातचीत होती है, जो मुख्यधारा से बाहर होता है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, इन सब मुद्दों पर मैंने गहराई से पढ़ाई की। मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, तसलीमा नसरीन, इस्मत चुगताई, निवेदिता मेनन, और सिमोन की रचनाओं ने मेरी सोच को व्यापक बनाया। मास्टर्स के दौरान मुझे फेमिनिज्म इन इंडिया में इंटर्नशिप करने का मौका मिला, जिसने मेरी नारीवादी विचारधारा को और मजबूत किया। यहां से मुझे बहुत कुछ सीखने, पढ़ने और लिखने का मौका मिला। इस दौर में मेरे जीवन में कई बदलाव आने लगे।

अब जब कोई रिश्तेदार पूछता है कि बेटियों की शादी कब करोगे, तो परिवार का जवाब होता है, “उनकी जिंदगी है, वे खुद तय करेंगी कि कब और किससे शादी करनी है।” यह जवाब सुनकर लोग चौंकते हैं, लेकिन मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि इतना बड़ा बदलाव आ जाएगा।

दिल्ली से लखनऊ जाने के बाद जीवन में एक नया मोड़

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

2021 में मुझे कुछ महीनों के लिए लखनऊ जाने का मौका मिला। मुझे पता था कि पापा का सख्त व्यवहार मुझे अनुमति नहीं देगा। जब मैंने मम्मी से पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया कि पापा से बात करो। यह जवाब पितृसत्तात्मक समाज में फैसलों पर पुरुषों के एकाधिकार की झलक थी। लेकिन मैं ठान चुकी थी कि लखनऊ जाऊंगी। मैंने पापा से बात की और झूठ बोल दिया कि कॉलेज की तरफ से काम के लिए जाना है। मेरे पास झूठ बोलने के अलावा कोई रास्ता नहीं था, लेकिन मैंने पापा को मना ही लिया। 22 साल की उम्र में अकेले दिल्ली से लखनऊ जाने के बाद मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया। पहली बार ट्रेन में अकेले सफर किया। यह सफर सिर्फ भौतिक रूप से नहीं था, बल्कि मानसिक आज़ादी का भी सफर था। इस दौरान मुझे अहसास हुआ कि जब लड़कियों को आज़ादी मिलती है, तो वे बहुत कुछ कर सकती हैं। लखनऊ में तीन महीने तक दोस्तों के साथ रहना और वहां विधानसभा चुनाव के समय का अनुभव मेरे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बना। दिल्ली में परिवार के साथ रहते हुए जिन बंदिशों में मैं थी, उससे बाहर निकलने का यह पहला कदम था।

22 साल की उम्र में अकेले दिल्ली से लखनऊ जाने के बाद मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया। पहली बार ट्रेन में अकेले सफर किया। यह सफर सिर्फ भौतिक रूप से नहीं था, बल्कि मानसिक आज़ादी का भी सफर था।

इस दौरान मैंने जो भी किताबें पढ़ी, मम्मी और बहनों से उन पर बातचीत की। चाहे वो धर्म, लड़कियों की आज़ादी, या सेक्स से जुड़े विषय हों, मैंने सब पर मम्मी से खुलकर बात की। मैंने उन्हें नारीवाद और स्त्री स्वतंत्रता के बारे में बताया। जो भी लेख लिखती, मम्मी को पढ़ने के लिए भेजती। इससे मुझे यह महसूस हुआ कि पढ़ाई और शिक्षा सबसे ताकतवर हथियार है। यह सिर्फ व्यक्तिगत विकास का माध्यम नहीं है, बल्कि इससे परिवार, समाज, और देश का भी उत्थान किया जा सकता है। आज़ादी की जो बात अनुराधा बेनीवाल ने कही थी, वो मेरे जीवन में भी सच साबित हुई। लखनऊ से लौटने के बाद मैंने ठान लिया कि दिल्ली में भी अपनी शर्तों पर जिऊंगी। मैंने मम्मी-पापा को इतना समझा लिया कि अब जब भी मुझे कहीं बाहर जाना हो, रात में ठहरने की जरूरत हो, तो बिना झिझक मैं अपनी बात रख सकूं।

शिक्षा ने मेरे परिवार को बदल दिया

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

शिक्षा ने मेरे परिवार को भी बदल दिया। पहले जहां पापा-मम्मी मेरी और मेरी बहनों की शादी को लेकर चिंतित रहते थे, अब वे इस विचार से मुक्त हो चुके हैं। अब जब कोई रिश्तेदार पूछता है कि बेटियों की शादी कब करोगे, तो परिवार का जवाब होता है, “उनकी जिंदगी है, वे खुद तय करेंगी कि कब और किससे शादी करनी है।” यह जवाब सुनकर लोग चौंकते हैं, लेकिन मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि इतना बड़ा बदलाव आ जाएगा। यह सब बदलाव शिक्षा और संवाद की वजह से संभव हो पाया है। अगर मैंने लखनऊ जाने का फैसला नहीं लिया होता, तो शायद मैं कभी खुद के लिए खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाती। खुद के लिए फैसले लेना जरूरी है, क्योंकि अगर किसी फैसले से आपकी जिंदगी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, तो उसे मानने की कोई जरूरत नहीं है।

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