समाजख़बर मध्य प्रदेश में दलित महिला का यौन उत्पीड़न और हत्या और प्रशासन की लापरवाही

मध्य प्रदेश में दलित महिला का यौन उत्पीड़न और हत्या और प्रशासन की लापरवाही

सवाल उठता है कि ऐसे मामलों में पुलिस और न्याय व्यवस्था की उदासीनता कब तक बनी रहेगी और वंचित समुदायों की सुरक्षा कब सुनिश्चित होगी। समाज में महिला सुरक्षा, विशेषकर दलित महिलाओं के लिए, अब एक आंदोलनात्मक हस्तक्षेप की आवश्यकता है ताकि प्रशासन और न्याय व्यवस्था को मजबूत और जवाबदेह बनाया जा सके।

दलित महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसाओं से जुड़ी वारदातें थमने का नाम नहीं ले रही हैं। पिछले दिनों एक बार फिर से एक दलित महिला के साथ यौन उत्पीड़न और हत्या का एक और मामला सामने आया है। मध्य प्रदेश के खांडवा के नजदीक एक गांव की 19 वर्षीय दलित महिला को उस व्यक्ति के बेटे ने कथित तौर पर आग लगा कर हत्या कर दी, जिस पर उसने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। यह घटना 12 अक्टूबर को दशहरे के दिन हुआ। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, 7 अक्टूबर को खेत में अकेले होने का फायदा उठाकर कथित आरोपी ने सर्वाइवर के साथ यौन हिंसा करने की कोशिश की थी। उसी दिन सर्वाइवर ने अपराधी के खिलाफ यौन उत्पीड़न की  शिकायत थाने में दर्ज कराई थी और उसे तुरंत बाद गिरफ्तार भी कर लिया गया था।

लेकिन अगले ही दिन आरोपी को जमानत पर रिहा कर दिया गया। आरोपी के कथित तौर पर इस घटना के बाद, महिला किसी तरह भागने में सफल रही और उसे उसके परिवार के लोग अस्पताल ले गए। महिला का पहले जिला अस्पताल में इलाज किया गया और फिर उसे इंदौर के एक अस्पताल में भेज दिया गया। महिला की 17 अक्टूबर को घातक रूप से जलने के कारण मृत्यु हो गई। 21वीं सदी में आज भी यह सच्चाई है कि विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली दलित महिलाएं और उनकी ख़राब सामाजिक-आर्थिक स्थिति उनको और भी हीन बनाती है, जिसका फ़ायदा एक अपराधी आसानी से उठाता है। ऐसे में यौन हिंसाओं का सामना करने वाली इन महिलाओं के लिए न्याय तक पहुंच और न्याय पाना दोनों लगभग असंभव हो जाते हैं। भारत में होने वाली हजारों लैंगिक हिंसाओं से जुड़ी घटनाएं सामने नहीं आती हैं।

साल 2022 में अनुसूचित जातियों (एससी) के खिलाफ अपराध करने के लिए 57,582 मामले दर्ज किए गए। यह डेटा साल 2021 के 50,900 मामले की तुलना में 13.1 फीसद की वृद्धि दर्शाता है।

प्रशासन के कारण कैसे वंचित समुदाय होते हैं परेशान

ऐसे में दलित महिलाएं ज़्यादा कमज़ोर स्थिति में होती हैं। कई बार स्थानीय सरकार के दबाव में पुलिस अक्सर अपराध की संख्या को कम दिखाने के लिए और केस दर्ज करने में जानबूझ कर लापरवाही बरतती है। खांडवा की घटना में, केस दर्ज हो जाने के बावजूद भी महिला को पुलिस द्वारा सुरक्षा उपलब्ध न कराये जाने और आरोपी को तुरंत बेल पर रिहा कर देने पर पुलिस पर कई सवाल उठाती है। इंडिया टूडे की रिपोर्ट अनुसार रिहाई के बाद अपराधी के परिवार की ओर से महिला को धमकी दी भी जाने लगी। ऐसे में अपराधी द्वारा फिर से अपराध करने की आतंरिक मानसिक प्रवृति से पुलिस अनजान रही। हमारे देश में अपराधी द्वारा सर्वाइवर को दण्डित करने की मानसिक प्रवृति बेहद सामान्य है। पुलिस ने अपनी लापरवाही ऐसे कई मुद्दों में दिखाई है जिसमें संगीन अपराध करने के बाद भी अपराधी सर्वाइवर की जान लेने पर आमादा रहता है। पुलिस प्रशासन अपराधियों में डर को कम करने और सर्वाइवर की हिम्मत को तोड़ने दोनों काम एक साथ करती है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में साफ़ तौर से यह प्रावधान है कि अगर धमकियों की सूचना दी जाती है तो पुलिस द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाएगी। इस मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ? इस पर सर्वाइवर की मौत के बाद इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, खंडवा पुलिस ने बताया कि अब मामले की जांच शुरू हो गई है। पुलिस अधीक्षक की यह स्टेटमेंट बेहद गैरज़िम्मेरदार है, जोकि हमें बताता है कि इस केस में पुलिस का गंभीर हस्तक्षेप और अपराध की रोकथाम पर पहले से कोई कार्यवाई सक्रिय नहीं थी। वहीं कई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, खंडवा निर्वाचन क्षेत्र के एक भाजपा नेता का दावा है कि सर्वाइवर ने खुद पर केरोसिन डालकर आत्महत्या से मौत के इरादे से आग लगाई थी। इसे साफ तौर पर आरोपी को उचित कार्यवाही से बचाने के एक राजनीतिक कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। वहीं मृत लड़की के उत्पीड़न से लेकर हत्या तक के मामले को गंभीरता से संबोधित करना जरूरी नहीं समझा गया।

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में साफ़ तौर से यह प्रावधान है कि अगर धमकियों की सूचना दी जाती है तो पुलिस द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाएगी। इस मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ?

भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार महिलाओं, बच्चों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध की घटनाओं के साथ-साथ साइबर मामलों में 2022 में पिछले वर्ष की तुलना में वृद्धि दर्ज हुई। साल 2022 में अनुसूचित जातियों (एससी) के खिलाफ अपराध करने के लिए 57,582 मामले दर्ज किए गए। यह डेटा साल 2021 के 50,900 मामले की तुलना में 13.1 फीसद की वृद्धि दर्शाता है। सबसे अधिक मामले (18,428) कुल मामलों का 32 फीसद हिस्सा साधारण चोट के तहत दर्ज किए गए। इसके बाद आपराधिक धमकी के तहत 9.2 फीसद (5,274 मामले) और एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत 8.2 फीसद (4,703 मामले) दर्ज किए गए।

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

हालिया घटना से एक बार फिर यह साबित होता है कि हमारे समाज में हाशिये पर खड़ी दलित महिलाएं अत्यधिक कमजोर स्थिति में हैं, जिनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में न केवल पुलिस प्रशासन विफल रहा है बल्कि न्याय प्रणाली की खामियों का भी वे सामना करती हैं। विशेषकर ग्रामीण इलाकों में दलित महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध उनके जातीय और लैंगिक शोषण को और भी बढ़ाते हैं, जिसके चलते वे न्याय तक पहुंचने में अक्सर असमर्थ रहती हैं। यह स्थिति केवल किसी एक महिला की नहीं है, बल्कि भारतीय समाज में जातीय भेदभाव और पितृसत्तात्मक मानसिकता की गहरी जड़ों को दिखाती है।

हालिया घटना से एक बार फिर यह साबित होता है कि हमारे समाज में हाशिये पर खड़ी दलित महिलाएं अत्यधिक कमजोर स्थिति में हैं, जिनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में न केवल पुलिस प्रशासन विफल रहा है बल्कि न्याय प्रणाली की खामियों का भी वे सामना करती हैं।

साथ ही, यह सवाल उठता है कि ऐसे मामलों में पुलिस और न्याय व्यवस्था की उदासीनता कब तक बनी रहेगी और वंचित समुदायों की सुरक्षा कब सुनिश्चित होगी। समाज में महिला सुरक्षा, विशेषकर दलित महिलाओं के लिए, अब एक आंदोलनात्मक हस्तक्षेप की आवश्यकता है ताकि प्रशासन और न्याय व्यवस्था को मजबूत और जवाबदेह बनाया जा सके। सरकार को दलित महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा रोकने के लिए ठोस नीतियों को लागू करना चाहिए, जिसमें सख्त सज़ाओं के साथ-साथ पुलिसिंग व्यवस्था को जवाबदेह बनाना भी शामिल है।

इसके साथ ही नागरिक समाज और मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। उन्हें इन मुद्दों को लगातार उठाते रहना चाहिए ताकि सर्वाइवरों को न्याय मिल सके और पुलिस व्यवस्था पर दबाव बन सके। यह जरूरी है कि समाज का हर वर्ग न्याय और समानता के अधिकार में दलित महिलाओं के साथ खड़ा हो, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनकी सुरक्षा किसी भी प्रकार के भेदभाव से परे हो। इस तरह के सतत प्रयास ही एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में बढ़ने में सहायक हो सकते हैं, जहां हर व्यक्ति को उसकी जाति और आर्थिक स्थिति के परे सुरक्षा और सम्मान मिले।

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