भारत जैसे देश में जहां परंपराओं और सामाजिक मान्यताओं के नाम पर पितृसत्ता गहराई तक अपनी जड़ें बिछाई हुई है, वहां शादी के बाद महिला का उपनाम बदलने का चलन आम है। यह मान्यता केवल पारिवारिक या सामाजिक दबाव के तहत ही नहीं, बल्कि शादी के ‘संस्कार’ का एक हिस्सा भी माना जाता है। लेकिन असल में व्यक्ति कौन सा उपनाम इस्तेमाल कर रहा है, इसके साथ जातिवादी व्यवस्था का मूल और रूढ़िवादी सोच दिखाई देती है। यहां महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे शादी से पहले पिता का उपनाम और शादी के बाद पति का उपनाम ही इस्तेमाल करेंगी। उपनाम बदलने की कानूनी जरूरत नहीं होने के बावजूद, सोशल कन्डिशनिंग की वजह से महिला होने के नाते, वे खुद अपने उपनामों को अस्थायी मानती हैं जहां वे मानसिक रूप से तैयार होती हैं कि इसे एक न एक दिन बदलने की जरूरत होगी।
नाम बदलने के लिए कागज़ी प्रक्रिया न ही आसान है और न ही मुफ़्त। शादी के बाद महिला का उपनाम छोड़ना और पति का उपनाम अपनाने का कोई वास्तविक उपयोग नहीं है, सिवाय परिवार की पहचान की भावना के, जिसे कई अन्य तरीकों से बनाया जा सकता है। हालांकि आज कई महिलाएं अपनी पहचान के इस हिस्से को नकार रही हैं। आज कई महिलाएं शादी के बाद उपनाम नहीं बदलती। लेकिन, ये सामाजिक, कानूनी या पारिवारिक तौर पर आसान नहीं है। जब वे यह तय करती हैं कि शादी के बाद भी वे अपना उपनाम नहीं बदलेंगी, तो वो अपने लिए अनगिनत चुनौतियों को न्योता देती हैं। यह निर्णय उनके व्यक्तिगत जीवन में कई समस्याओं को भी लेकर आता है। कई बार उन्हें परिवार, दोस्तों, और समाज के तानों का सामना करना पड़ता है, जिसमें लोग इसे उनके ‘घमंड’ या ‘अहंकार’ के रूप में देखते हैं। लेकिन यह कदम उनके आत्मसम्मान और उनके अधिकार की रक्षा करने का एक प्रयास है।
हालांकि कानूनी तौर पर ये बाध्य नहीं, लेकिन मुझे महज पति का उपनाम न इस्तेमाल करने के लिए हमेशा जज किया गया। ये और भी ज्यादा इसलिए था क्योंकि लोगों को लगता कि मैं अपने मृत पति की इज़्ज़त नहीं कर रही हूं। मेरे लिए एक वक्त पर आइडेंटिटी क्राइसिस जैसा माहौल था, जहां मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए।
क्या सचमुच उपनाम को लेकर मानसिकता बदली है
बेटरहाफ.एआई– एक नए युग के मैट्रिमोनी ऐप के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 92 प्रतिशत भारतीय युवाओं का मानना है कि शादी के बाद एक महिला के लिए अपना उपनाम रखना और अपने पति का उपनाम न लेना सामान्य और स्वीकार्य है। हालांकि ये युवाओं के सोच में महत्वपूर्ण बदलाव दिखाता है, लेकिन जमीनी हक़ीकत कुछ और बताती है। महाराष्ट्र में रहने वाली पेशे से पत्रकार विनाया पाटिल कहती हैं, “मेरे पति एयरफोर्स में थे और शादी के तीन महीने के बाद ही उनकी मौत हो गई। मैंने कभी अपना उपनाम नहीं बदला था। उपनाम को लेकर समस्या और मानसिक रूप से तकलीफ़ तब ज्यादा हुई, जब मैं पति की मौत के बाद अपना पासपोर्ट रीनियू कराना चाहती थी। मेरा पासपोर्ट मेरे मैडन नाम से था। मैं ऑनलाइन फॉर्म में ‘विधवा’ भर चुकी थी। चूंकि पति का नाम देना बाध्यता नहीं है, मैं उनका नाम नहीं दी थी। लेकिन, जब मैं थाने में अपने कागज़ात जांच के लिए गई, तो वहां की कर्मचारी महिला ने इस बात पर बहुत बहस की। जब मैंने कहा कि पति का नाम देना बाध्यता नहीं है, तो उन्होंने टिप्पणी की कि आज की महिलाएं अपने पति का नाम जोड़ना अपमान समझती हैं। उन्होंने ये भी कहा कि अपने पति की मौत के बाद भी मैं उनकी इज़्ज़त नहीं कर रही।”
उपनाम बदलना कानूनन बाध्य नहीं
कानूनन, भारत में किसी भी व्यक्ति को अपना नाम बदलने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। शादी के बाद नाम बदलने की कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं है। कोर्ट भी यह कह चुका है कि शादी के बाद महिला का नाम बदलने की अनिवार्यता सिर्फ सामाजिक दबाव का परिणाम है, न कि कानूनी मांग। इसके बावजूद, कई सरकारी प्रक्रियाओं, दस्तावेज़ों में नाम बदलने की अपेक्षा की जाती है, जो महिलाओं के लिए मुश्किलें खड़ी करता है। इस विषय पर विनाया बताती हैं, “हालांकि कानूनी तौर पर ये बाध्य नहीं, लेकिन मुझे महज पति का उपनाम न इस्तेमाल करने के लिए हमेशा जज किया गया। ये और भी ज्यादा इसलिए था क्योंकि लोगों को लगता कि मैं अपने मृत पति की इज़्ज़त नहीं कर रही हूं। मेरे लिए एक वक्त पर आइडेंटिटी क्राइसिस जैसा माहौल था, जहां मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए।”
मैं हमेशा सोचती थी कि जब महिलाओं को उत्तराधिकारी ही नहीं माना जाता, तो उपनाम को जारी रखने का बोझ आखिर उनपर क्यों? हालांकि आज मैं मैडन और पति का सरनेम दोनों इस्तेमाल करती हूं लेकिन मैं मानती हूं कि मेरे परिचय के लिए सिर्फ ‘स्वाती’ काफी है।
ये आम है कि महिलाएं उपनाम बदल लेती हैं। लेकिन समस्याओं से बचने के लिए सभी कानूनी और निवेश दस्तावेजों में नाम परिवर्तन करना होगा। उदाहरण के लिए, सिर्फ पैन और आधार में उपनाम बदलने से कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) और बैंक खातों में नाम बेमेल हो जाएगा। ऐसे खातों से अपना पैसा वापस पाने के लिए, आपको नाम अपडेट करना होगा और केवाईसी प्रक्रिया से फिर से गुजरना होगा।
अपडेट करने की प्रक्रिया में हलफनामे और अन्य दस्तावेजों की जरूरत हो सकती है, जो न सिर्फ खर्च बल्कि समय की मांग करता है। इसलिए, यह जरूरी है कि इस पर ध्यान दिया जाए, ताकि महिलाएं अपने नाम को बरकरार रखते हुए बिना किसी रुकावट के अपने सभी कानूनी अधिकारों का उपयोग कर सकें।
उपनाम बदलाव को लेकर जागरूकता की कमी
उपनाम को लेकर सच्चाई ये भी है कि कई लोगों को ये पता नहीं है कि ये कानूनन बाध्य नहीं है। क्या उपनाम बदलना जरूरी है, इस विषय पर स्वतंत्र पत्रकार और पत्रकारिता सलाहकार स्वाति सान्याल तरफदार कहती हैं, “मैं हमेशा सोचती थी कि जब महिलाओं को उत्तराधिकारी ही नहीं माना जाता, तो उपनाम को जारी रखने का बोझ आखिर उनपर क्यों? हालांकि आज मैं मैडन और पति का सरनेम दोनों इस्तेमाल करती हूं लेकिन मैं मानती हूं कि मेरे परिचय के लिए सिर्फ ‘स्वाती’ काफी है। मैं जानबूझकर अपना सिग्नचर सिर्फ ‘स्वाती’ करती आई हूं। शादी के बाद मैंने अपना उपनाम नहीं बदला था। लेकिन, साल 2020 में मैं और मेरे पति ट्रैवल कर रहे थे, और हम लोग घर लेना चाहते थे। मुझे हर बार कागज़ात देने पड़ते थे। इसलिए, मैंने तय किया कि मैं पति के उपनाम को भी इस्तेमाल करूंगी। लेकिन किसी कारण कानूनन तौर पर मेरा नाम ‘स्वाती तरफदार’ हो गया जबकि होना ‘स्वाती सान्याल तरफदार’ था। हालांकि आज मेरे लेखन में नाम को लेकर समस्या नहीं होती पर इन्वाइस के वक्त मुझे हर बार बताना होता है कि कानूनी तौर पर मेरा नाम ‘स्वाती तरफदार’ है, ‘स्वाती सान्याल तरफदार’ नहीं।”
शादी के बाद उपनाम बदलने की परंपरा को खत्म करने की जरूरत है। महिलाओं को खुद अपनी एजेंसी का इस्तेमाल करते हुए ये फैसला लेना चाहिए कि वे नाम नहीं बदलेंगी। इससे कहीं न कहीं महिलाओं पर शादी के बाद, परिवार में घुल-मिल जाने का दबाव भी कम होगा।
उपनाम या जाति- क्या है महत्वपूर्ण
उपनामों के साथ समस्या यह है कि ये किसी व्यक्ति की जड़ों को पहचानने का सबसे आसान तरीका है। कुछ ही सेकंड में आप जान सकते हैं कि व्यक्ति किस समुदाय या जाति से संबंधित है। हम सभी जानते हैं कि जातिवाद भारत में अधिकांश सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की जड़ है। जाति की राजनीति और जातिगत भेदभाव और हिंसा देश के विकास में बाधा डालने वाले प्रमुख कारणों में से एक है। इसलिए, यहां अहम सवाल यह भी है कि इस समस्या को कैसे मिटाया जाए। इस मामले में जातिगत हिंसा या भेदभाव को जड़ से खत्म करने के साथ-साथ महिलाओं को समानता कैसे दी जाए? शादी के मामले में ये भावना कि महिलाओं का नाम न बदलना परिवार के प्रति समर्पण नहीं है, खतरनाक है।
इस विषय पर स्वाती कहती हैं, “शादी के बाद उपनाम बदलने की परंपरा को खत्म करने की जरूरत है। महिलाओं को खुद अपनी एजेंसी का इस्तेमाल करते हुए ये फैसला लेना चाहिए कि वे नाम नहीं बदलेंगी। इससे कहीं न कहीं महिलाओं पर शादी के बाद, परिवार में घुल-मिल जाने का दबाव भी कम होगा। लोगों को समझने की जरूरत है कि शादी के वक्त उसकी एक पहचान है और महज शादी से उसकी वो पहचान रातोंरात नहीं बदल सकती।” असल में यह मुद्दा सिर्फ एक नाम बदलने या न बदलने का नहीं है। यह महिला के पहचान के अधिकार से जुड़ा है। शादी का मतलब उसकी व्यक्तिगत पहचान को खोना नहीं होना चाहिए। जो महिलाएं अपने नाम को बरकरार रखती हैं, वे एक मजबूत संदेश देती हैं कि उनकी पहचान उनके काम, उनकी सोच और उनके निर्णयों पर आधारित है, न कि उनके वैवाहिक स्थिति पर।
जब मैंने कहा कि पति का नाम देना बाध्यता नहीं है, तो उन्होंने टिप्पणी की कि आज की महिलाएं अपने पति का नाम जोड़ना अपमान समझती हैं। उन्होंने ये भी कहा कि अपने पति की मौत के बाद भी मैं उनकी इज़्ज़त नहीं कर रही।
यह सिर्फ व्यक्तिगत आज़ादी का मामला नहीं, बल्कि महिलाओं के अस्तित्व से जुड़ा है जो किसी के साथ जोड़कर नहीं मापा जाना चाहिए। जो महिलाएं आज अपने नाम को बनाए रखने का निश्चय करती हैं, वह सिर्फ उनकी लड़ाई नहीं, बल्कि उन सभी के लिए है जो अपनी पहचान को बरकरार रखना चाहती हैं। समाज में बदलाव लाना आसान नहीं है। लेकिन बदलाव की पहल की जा सकती है। नाम बदलना या न बदलना महिलाओं की व्यक्तिगत पसंद होनी चाहिए, न कि सामाजिक दबाव का नतीजा। समय है कि हम नाम बदलने के इस सामाजिक मान्यता पर सोचें, इसे बदलें और महिलाओं के पहचान के अधिकार का सम्मान करें।