समाजकानून और नीति क्या कानूनी रूप से सही है महिलाओं द्वारा पति का सरनेम इस्तेमाल करना?

क्या कानूनी रूप से सही है महिलाओं द्वारा पति का सरनेम इस्तेमाल करना?

चुनाव के अधिकार (राइट टू चॉइस) को तृप्त करने के लिए दोनों ही परिवारों का उपनाम भले ही इस्तेमाल कर लिया जाए। क्या इससे जातीय आधार, संरचना में कोई बदलाव आ पाएगा? क्या यह मानना सही नहीं होगा कि भारतीय सवर्ण महिलाओं द्वारा पिता, पति का उपनाम जातीय वर्चस्व के विशेषाधिकार को प्राप्त करना भी है जिसे वे मुश्किल ही छोड़ना चाहती हैं? जो उपनाम उन्हें बाकी दलित/आदिवासी/बहुजन पुरुष, महिलाओं से ऊपर रख रहा है, वे उसे क्यों छोड़ देना चाहेंगी?

हम बहुत बड़ी व्यवस्थाओं, संस्थानों, रीतियों में पितृसत्ता को आसानी से पहचान लेते हैं, लेकिन निजी जीवन में, व्यक्तिगत तौर पर पितृसत्ता को पहचानने, चुनौती देने में चूक जाते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अपना नाम ही है। हम लोगों का नाम जो हमारी पहली, प्रतिस्थापित पहचान है, उसमें हमारी मां के नाम की कितनी सहभागिता है? शादी के बाद शादीशुदा जोड़े में सबसे पहले किसके पूरे नाम में बदलाव आ जाता है?

एक महिला के उपनाम यानी सरनेम में विवाह के बाद बदलाव आता है, वह पति के उपनाम जिसे कुलनाम भी कहते हैं, उसे लगाने लगती है और विवाह से पहले अपने पैतृक परिवार के उपनाम को लगाती है। मां का नाम अमूमन हमारे समाज में नहीं लगाया जाता है। मातृसत्तामक व्यवस्था में, केरल में मां के उपनाम को इस्तेमाल करने की रीति थी लेकिन वक्त के साथ वह कम हो रही है। बच्चों के नामों में पिता का उपनाम, लड़कियों के नामों में शादी के बाद पति का उपनाम, दोनों ही जगह पितृसत्ता मूल कारण है।

भारत में तो उपनाम, पितृसत्ता के साथ-साथ जातिगत पहचान का भी अभिन्न अंग है। लड़कों के साथ पिता का उपनाम लगाना, कुल, गोत्र, जाति की वंशावली को बढ़ाने के लिए ज़रूरी समझा जाता है। लड़कियों के नाम के साथ पति के उपनाम को लगाने के लिए भी समान कारण है। फर्क इतना सा है कि वंश को पैदा करना, पति की पीढ़ी को बढ़ाना महिला की ज़िम्मेदारी हो जाती है। पति का उपनाम एक तरह से महिला के लिए पुरुष द्वारा संचालित की जा रही रीत जैसा है जिस पर विशेष पुरुष का ही अधिकार है और महिला की स्वतंत्र कोई पहचान नहीं। भारत में किसी भी जाति, धर्म, नस्ल, क्षेत्र, पेशे की महिला हो, शादी के बाद वह उपनाम बदल लेती हैं। कहीं कहीं नये चलन के अनुसार महिलाएं पिता और पति दोनों के ही उपनामों का इस्तेमाल भी करने लगी हैं।

महिलाओं के उपनाम किस अवस्था में क्या होंगे, इसकी सोच आती कहां से है?

जैसे हर देश का अपना कानूनी संविधान होता है वैसे ही कानूनी नहीं लेकिन समाज का, लोगों का सामाजिक चीज़ों को निर्धारित करता एक “कोड ऑफ़ कंडक्ट” होता है जिसके लिए हम आम बोल चाल में कहते हैं कि संस्कारों में ये है/रीतियों के अनुसार ऐसा करना चाहिए, आदि।

हम लोगों का नाम जो हमारी पहली, प्रतिस्थापित पहचान है, उसमें हमारी मां के नाम की कितनी सहभागिता है? शादी के बाद शादीशुदा जोड़े में सबसे पहले किसके पूरे नाम में बदलाव आ जाता है?

मनुस्मृति भारत की बड़ी आबादी का कोड ऑफ़ कंडक्ट है। उसके पांचवें अध्याय के 148वें श्लोक में यह बात लिखी है कि “एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए, शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए, पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए, किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।” यहां संरक्षक शब्द सकारात्मक शब्द नहीं है बल्कि इसे ‘अधीन’ शब्द के समानांतर रखना चाहिए। यह श्लोक समाज में अलग-अलग तरीकों से कायम रहे उसका एक तरीका उपनाम भी है। शादी से पहले पिता, शादी के बाद पति की पहचान से महिला की पहचान होना इसी अधीनता की स्पष्टता है।

भारतीय संविधान में इस परिपेक्ष्य को लेकर क्या राय है?

महिलाओं द्वारा पिता और पति का उपनाम अपनाना बहुत ज़रूरी समझा जाता है। अगर शादी के बाद अगर महिला पति का उपनाम न लगाए तो तमाम संदेह उस पर किए जाते हैं मसलन उसका चरित्र हनन किया जाता है, टोका जाता है, बुरी औरत का दर्ज़ा दिया जाता है। पति के परिवार में पूरी तरह शामिल हो जाने के लिए पति का उपनाम अपनाना पहला कदम माना जाता है। समाज ने जो रीत इतनी पक्की कर दी है क्या कानूनन उसका कोई महत्व है?

7 अगस्त 2021 को द हिंदू में छपे लेख में दिल्ली हाई कोर्ट की जस्टिस रेखा पल्ली ने एक नाबालिग लड़की के पिता की पिटीशन जिसमें वह अपनी लड़की के डॉक्यूमेंट्स में लड़की की मां के सरनेम की बजाय अपने सरनेम को इस्तेमाल करने के दिशा निर्देश चाहता था, इस मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस पल्ली ने कहा हर बच्चे को अधिकार है कि अगर वह चाहे तो अपनी मां के सरनेम का इस्तेमाल कर सकता है।

पति का उपनाम एक तरह से महिला के लिए पुरुष द्वारा संचालित की जा रही रीत जैसा है जिस पर विशेष पुरुष का ही अधिकार है और महिला की स्वतंत्र कोई पहचान नहीं।

फरवरी 2012 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट्स एक्ट में संशोधन करते हुए यह नया नियम बनाया था ताकि एक महिला को केवल अपने पति के उपनाम पर शादी से संबंधित किसी भी कार्यवाही को दर्ज करने के लिए मजबूर होने से रोका जा सके। इससे यह साफ़ हो गया था कि एक महिला किसी भी सूरत में शादी के बाद अपने पति के नाम को लगाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है। ऐसा कोई भी कानून हमारे संविधान में नहीं है जो महिला को शादी के बाद उपनाम बदलने को मजबूर करता है। यह सिर्फ समाज की बनाई गई रीत है।

भारत ही नहीं दुनियाभर में यही हाल है

शादी के बाद महिला द्वारा पति का उपनाम इस्तेमाल करना क्या सिर्फ़ भारतीय समाज का हिस्सा है? इस सवाल का सीधा सा जवाब है- नहीं। बीबीसी में छपे एक लेख के अनुसार 70% महिलाएं अमेरीकी समाज में पति का उपनाम शादी के बाद जोड़ रही हैं। वहीं, 2016 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, ब्रिटिश महिलाओं के लिए यह आंकड़ा लगभग 90% है। 18 से 30 साल की उम्र के लगभग 85% लोगों का कहना था कि वे अभी भी इस प्रथा का पालन करती हैं। एक और आंकड़ा देखें तो 30 साल से कम उम्र की 68% महिलाएं अमेरिका में और ब्रिटेन में लगभग 60% औरतें खुद को नारीवादी कहती हैं। नारीवादी महिलाएं ही जब इस रीत को न सिर्फ भारत में बल्कि वेस्ट में भी जो खुद के बेहद आधुनिक होने का दावा करते हैं, वे ही इस पितृसत्तात्मक रीत को और आगे बढ़ा रहे हैं।

क्या भारतीय महिलाएं वास्तव में पति का उपनाम छोड़ने की इच्छुक हैं?

बहुत कम ही हम देखते हैं कि महिलाएं पतियों का उपनाम इस्तेमाल न करें। आज ‘आधुनिक’ चलन के अनुसार पिता के साथ, पति का उपनाम भी लगाने लगी हैं। लेकिन इससे कोई बदलाव संभव है? चुनाव के अधिकार (राइट टू चॉइस) को तृप्त करने के लिए दोनों ही परिवारों का उपनाम भले ही इस्तेमाल कर लिया जाए। क्या इससे जातीय आधार, संरचना में कोई बदलाव आ पाएगा? क्या यह मानना सही नहीं होगा कि भारतीय सवर्ण महिलाओं द्वारा पिता, पति का उपनाम जातीय वर्चस्व के विशेषाधिकार को प्राप्त करना भी है जिसे वे मुश्किल ही छोड़ना चाहती हैं? जो उपनाम उन्हें बाकी दलित/आदिवासी/बहुजन पुरुष, महिलाओं से ऊपर रख रहा है, वे उसे क्यों छोड़ देना चाहेंगी?

युवा वर्ग की इसमें क्या भूमिका हो सकती है?

समाज की तमाम कुरीतियों को लेकर युवा क्या सोचते हैं यह हमेशा ही एक दिलचस्प सवाल रहा है। महिलाओं द्वारा पति के उपनाम इस्तेमाल को लेकर एक रिपोर्ट डेकन हेराल्ड में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक बेटरहाल्फ नामक एक मेट्रिमोनियल ऐप ने अपने सर्वे में पाया कि भारत में 92 प्रतिशत युवाओं का मानना ​​है कि शादी के बाद एक महिला के लिए अपना उपनाम रखना और अपने पति का नहीं रखना सामान्य और स्वीकार्य है। मात्र आठ प्रतिशत युवाओं का मानना था कि विवाह के बाद महिला को पति का उपनाम ही रखना चाहिए। यह आंकड़ा एक सकारात्मक बदलाव हो सकता है लेकिन सिर्फ़ सोच में। यह सोच हकीकत में कितना बदलाव ला सकती है यह अभी कह पाना मुश्किल होगा वो भी तब जब उपनाम पहचान और जाति दोनों से परस्पर जुड़ा हुआ है।


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