इंटरसेक्शनलजेंडर क्यों होता है महिलाओं को अधिक मैरिटल बर्नआउट और तनाव?

क्यों होता है महिलाओं को अधिक मैरिटल बर्नआउट और तनाव?

किसी भी शादी में उतार-चढ़ाव और नोंक-झोंक आम है। लेकिन अमूमन शादियों को सफलता से चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर डाल दी जाती है। एक सफल शादी किन नियमों और आधार पर चलती है, इसकी  कोई निश्चित थ्योरी मौजूद नहीं। लेकिन पति-पत्नी का किया जाने वाला घरेलू काम और पारिवारिक देखभाल की मात्रा और प्रकार, वैवाहिक निर्णय लेने की छूट और अधिकार, पारिवारिक संसाधनों तक पहुंच और उसपर नियंत्रण किसी महिला और पुरुष के लिए बिल्कुल अलग है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में शादी सिर्फ दो लोगों के बीच और एक दिन का कोई महत्वपूर्ण कार्यक्रम नहीं, बल्कि जीवन भर दो लोगों को साथ रहने के लिए समाज का मोहर लगाया जाना होता है। हमारे देश के सांस्कृतिक और सामाजिक रीति-रिवाजों पर अगर ध्यान दें, तो समझ आता है कि लगभग हर नियम पुरुषों को केंद्र में रखकर बनाया गया है। शादियों में दुल्हन को या शादीशुदा महिलाओं को अक्सर ‘सदा सुहागन रहो’, ‘दुधो नहाओ पूतो फलो’ या ‘सदा सौभाग्यवती भव’ जैसे आशीर्वाद दिए जाते हैं। लेकिन बात उनके खुश और अच्छे रहने से शुरू होती है और उनके जीवनसाथी पर जाकर खत्म हो जाती है। यानि कि हर जगह महिलाओं की भूमिका इतनी ही है कि वह अपने जीवनसाथी के स्वास्थ्य, खुशी और तरक्की को सुनिश्चित करे। इस तरह कहीं न कहीं एक शादी में हम महिलाओं को शादी को सफल बनाने और जीवनसाथी को खुश रखने की दोहरी जिम्मेदारी दे देते हैं।

रूढ़िवादी आधार पर शादी की नींव गढ़ता समाज

आम तौर पर हमारे समाज में शादी दो लोगों के बीच रिश्ता कायम कर परिवार की शुरुआत के लिए नींव गढ़ता है। भले हम शादी को बहुत ही निजी मामला समझें, लेकिन शादी में कानूनी, सामाजिक, सामुदायिक और धार्मिक कारक भी शामिल होते हैं। हमारे देश में शादी को लेकर लोग संवेदनशील और कुछ हद तक पूर्वाग्रहों से भी ग्रस्त हैं। इसलिए, मैरेज इक्वालिटी की मान्यता के बावजूद, महिलाओं और पुरुषों को आम तौर पर शादी में अलग-अलग अधिकार, जिम्मेदारियां और तनाव का अनुभव होता है।

शादी में लैंगिक असमानता आधारित रीति-रिवाज और मान्यताएं पारंपरिक रूप से मौजूद हैं। हालांकि हालिया समय में विशेषकर शहरी क्षेत्रों में इनमें कुछ हद तक बदलाव नजर आता है। पर समाज शादी में न तो महिलाओं और पुरुषों से एक जैसी उम्मीद रखता है, न ही नियम बनाता है। जब शादी को एक ‘इकाई’ के रूप में देखते हैं, तो वहाँ भी महिलाओं और परूषों के अनुभव में अंतर पाया जाता है। शादी में वैवाहिक तनाव एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और इसमें कई कारक अहम भूमिका निभाते हैं।

हमारे देश में शादी को लेकर लोग संवेदनशील और कुछ हद तक पूर्वाग्रहों से भी ग्रस्त हैं। इसलिए, मैरेज इक्वालिटी की मान्यता के बावजूद, महिलाओं और पुरुषों को आम तौर पर शादी में अलग-अलग अधिकार, जिम्मेदारियां और तनाव का अनुभव होता है।

क्यों महिलाओं के लिए शादी है ज्यादा चुनौतीपूर्ण

हालांकि किसी भी शादी में उतार-चढ़ाव और नोंक-झोंक आम है। लेकिन अमूमन शादियों को सफलता से चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर डाल दी जाती है। एक सफल शादी किन नियमों और आधार पर चलती है, इसकी  कोई निश्चित थ्योरी मौजूद नहीं है। लेकिन पति-पत्नी का किया जाने वाला घरेलू काम और पारिवारिक देखभाल की मात्रा और प्रकार, वैवाहिक निर्णय लेने की छूट और अधिकार, पारिवारिक संसाधनों तक पहुंच और उसपर नियंत्रण किसी महिला और पुरुष के लिए बिल्कुल अलग है। वहीं घरेलू हिंसा को सामना करने की संभावना भी महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग है। किसी कारणवश अगर तलाक हो, तो महिलाओं के जीवन में यह लैंगिक अंतर बना रहता है। यह अंतर पति-पत्नी के बीच संपत्ति का बंटवारा, निपटान या कनूनी कार्रवाई में भी दिखाई पड़ता है। विवाह में तनाव महिलाओं की शिक्षा, आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर भी निर्भर करती है। बायोमेड सेंट्रल के एक शोध के अनुसार महिलाओं की नौकरी और महिलाओं का वैवाहिक तनाव के साथ-साथ इन महिलाओं में भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक तनाव के स्तर का महत्वपूर्ण संबंध है।     

शिक्षा और शादी में तनाव कैसे संबंधित है

शिक्षा लोगों को अपने जीवन में अधिकारों के प्रति जागरूक होने, उनकी मांग करने और किसी भी हिंसा या अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए सक्षम बनाने में अहम भूमिका निभाती है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वैवाहिक तनाव और भावनात्मक तनाव के स्तरों के साथ महिलाओं की शिक्षा के स्तर का गहरा संबंध है। इस शोध में पाया गया कि जिन लोगों के पास शिक्षा का स्तर कम था, उनमें वैवाहिक तनाव अधिक था। इसके अलावा, जिन महिलाओं के पतियों की शिक्षा का स्तर कम था, उनमें भी वैवाहिक तनाव अधिक था। अध्ययन के अनुसार पता चलता है कि शिक्षा का स्तर और वैवाहिक तनाव के बीच एक संबंध है और जिन लोगों की शिक्षा का स्तर कम है, उनमें वैवाहिक तनाव का दर काफी अधिक है।

अपने आस-पास हम ऐसी कितनी ही घटनाएं देखते हैं, जहां कई बार इस संबंध की समझ हमें नहीं होती। पश्चिम बंगाल के साउथ 24 परगना के कुलेरदारी ग्राम पंचायत की रहने वाली कल्पना बैद्य घरेलू कामगार हैं। कल्पना आस-पास के इलाकों में लोगों के घरों में काम करती हैं। वह बताती हैं कि कोरोना महामारी के दौरान उसके पति की नौकरी चली गई और इसके बाद उन्होंने कभी नौकरी की तलाश नहीं की। घर के हालात बताते हुए वह कहती है, “पति दिनभर बीड़ी और गाँजा पीते रहते हैं। एक भी पैसा घर के खर्च के लिए नहीं देते। घर के कामों में हाथ नहीं बँटाते और न ही किसी नौकरी की खबर मिलने पर जाते हैं।” ऊंची शिक्षा न होने के कारण कल्पना लोगों के घरों में काम करने पर मजबूर है। इसके अलावा वह अपने पति के इस रवैये से परेशान होने के बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रही।

हालांकि किसी भी शादी में उतार-चढ़ाव और नोंक-झोंक आम है। लेकिन अमूमन शादियों को सफलता से चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर डाल दी जाती है। एक सफल शादी किन नियमों और आधार पर चलती है, इसकी  कोई निश्चित थ्योरी मौजूद नहीं है। लेकिन पति-पत्नी का किया जाने वाला घरेलू काम और पारिवारिक देखभाल की मात्रा और प्रकार, वैवाहिक निर्णय लेने की छूट और अधिकार, पारिवारिक संसाधनों तक पहुंच और उसपर नियंत्रण किसी महिला और पुरुष के लिए बिल्कुल अलग है।

महिलाओं को मिले तनावमुक्त और सम्मानजनक माहौल

चूंकि आम तौर पर महिला को पराया धन समझा जाता है, इसलिए शादी के बाद भी उनका पैतृक संपत्ति पर अधिकार नहीं दिया जाता। इतना ही नहीं, कई बार घरेलू हिंसा या ससुराल में समस्या होने पर भी उन्हें मदद नहीं मिलती। ऐसे में अगर महिला कामकाजी न हो, तो शादी में टिके रहना ही एक चुनौती बन सकती है। साथ ही शादी में अलग-अलग समुदाय और धर्म महिलाओं को अलग-अलग अधिकार प्रदान करती है। मेघालय की जातीय समूह खासी इसका उदाहरण है। दुनिया के गिने-चुने मातृसत्तात्मक समाजों में से एक; इस समुदाय में परंपरागत रूप से बच्चों को उनकी मां का उपनाम नाम मिलता है। पति अपनी पत्नी के घर चले जाते हैं और सबसे छोटी बेटियों को पैतृक संपत्ति विरासत में मिलती है। यहाँ लोग आपसी सद्भाव से विस्तारित परिवारों या कुलों में रहते हैं। चूँकि बच्चे अपनी माँ का उपनाम लेते हैं, बेटियाँ वंश वृद्धि को सुनिश्चित करती हैं। बेटियों को अपने पैतृक घर में रहने या बाहर जाने की आजादी है, सिवाय सबसे छोटी बेटी को छोड़कर, जिसे घर की संपत्ति का संरक्षक माना जाता है। वह शादी के बाद अपना घर नहीं छोड़ती और अपनी माँ की मृत्यु के बाद घर की मुखिया भी बन जाती है।

कामकाजी महिलाओं को घर के काम के अलावा नौकरी भी करनी पड़ती है। परिवार, समाज और दफ्तरों में अनेकों भूमिका निभाने वाली महिला को, अपनी जिम्मेदारियों का दबाव और खाली समय की कमी के कारण अधिक तनाव और चिंता महसूस हो सकता है। अक्सर दफ्तरों से लौटकर औरतें अपने ‘दूसरे काम’ पर लौट जाती हैं जहां उसे छुट्टी नहीं दी जाती।

वैवाहिक तनाव को कम करने में जीवनसाथी की भूमिका

कामकाजी महिलाओं को घर के काम के अलावा नौकरी भी करनी पड़ती है। परिवार, समाज और दफ्तरों में अनेकों भूमिका निभाने वाली महिला को, अपनी जिम्मेदारियों का दबाव और खाली समय की कमी के कारण अधिक तनाव और चिंता महसूस हो सकता है। अक्सर दफ्तरों से लौटकर औरतें अपने ‘दूसरे काम’ पर लौट जाती हैं जहां उसे छुट्टी नहीं दी जाती। मैरिटल बर्नआउट इस बात से भी संबंधित है कि जोड़े आपस में बातचीत कैसे करते हैं, संघर्षों के कैसे निपटते हैं और समस्याओं को कैसे सुलझाते हैं। जो जोड़े इन क्षेत्रों में अधिक कुशल हैं वे कम बर्नआउट का अनुभव करते हैं। कामकाजी महिला के जीवन में मैरिटल बर्नाउट से निपटना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। कोलकाता की रहने वाली अनामिका (नाम बदला हुआ) बताती हैं कि प्रेम विवाह होने के कारण ससुराल का दबाव हमेशा उसपर ज्यादा रहा। वह कहती हैं, “आज घर में दोनों पति-पत्नी साथ में रहते हैं और मेरे पति घरेलू काम में मेरा साथ भी देते हैं। पर ये काम पर अमूमन तभी पूरे होते हैं जब मैं उन्हें याद दिला दूँ।” दफ्तर के काम में अनामिका का बहुत समय जाता है और घर के काम न करते हुए भी उसके बारे में सोचने से मुक्त नहीं हो पातीं। एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि घर के काम में पति की भागीदारी और उसकी पत्नी के मनोसामाजिक स्वास्थ्य के बीच एक संबंध है, जो उसके मनोसामाजिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद करता है।

शादी में हो बराबरी की भूमिका

वैवाहिक तनाव से पीड़ित जोड़ों के विभिन्न अध्ययनों के अधिकांश में यह पाया गया है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक तनाव का अनुभव होता है। इससे अवसाद या अन्य मानसिक समस्याएं होने की आशंका भी होती है। बर्नआउट से पीड़ित लोगों में हृदय रोग जैसी शारीरिक समस्याएं भी हो सकती हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपनी शादी की शुरुआत अधिक उम्मीदों के साथ करती हैं, जिसके कारण भी महिलाओं में बर्नआउट का ऊंचा स्तर पाया जाता है। जीवनसाथी या माँ के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करते समय विवाहित महिलाएँ जिन समस्याओं और तनावों का सामना करती हैं, वे उनके समकक्षों का बतौर जीवनसाथी या पिता के रूप में अनुभव किए जाने वाले तनाव से कहीं अधिक हैं। इसलिए, यह समाज और परिवार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाओं पर घर और परिवार की पूरी जिम्मेदारी थोपी न जाए और उनके कामकाज को उतना ही महत्व मिले जितना कि घर के पुरुष सदस्यों को।


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