भारतीय सिनेमा जगत में पुरुषों का वर्चस्व है। पर्दे के पीछे हो या पर्दे पर काम करने वालों में ज्यादा महत्व पुरुष को ही दिया जाता है। निर्देशन, निर्माता के तौर पर अधिक संख्या में पुरुष की संख्या ज्यादा है लेकिन हर दौर में महिलाएं सिनेमा से जुड़े अलग-अलग क्षेत्रों में न केवल काम कर रही हैं बल्कि लकीर से हटकर अपनी पहचान भी बना रही है। लीक से हटकर काम करने और अपने सिनेमा के ज़रिये सामाजिक मुद्दों को उठाने वालों में एक नाम कल्पना लाजमी हैं। कल्पना लाजमी एक एक फिल्म निर्देशक, निर्माता और पटकथा लेखक थीं। वह अपने सिनेमा के ज़रिये सामाजिक मुद्दों और महिलाओं के अनुभवों एवं संघर्षों को प्रभावशाली ढ़ंग से प्रस्तुत करने के लिए जाना जाती हैं। उनकी फिल्में अक्सर महिला केंद्रित होती थीं। अपने करियर में उन्होंने फिल्मों में समाज की रूढ़ियों और चुनौती देने का काम किया। कल्पना लाजमी एक निड़र और स्पष्टवादी स्वभाव की शख्सियत थीं जिसकी झलक उनके काम में भी दिखती है। उन्होंने हमेंशा कला के माध्यम को एक जिम्मेदारी मानते हुए सामाजिक मुद्दों पर बात की।
जन्म और शुरुआती जीवन
कल्पना लाजमी का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जिसका कला और सिनेमा के जगत में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वह प्रसिद्ध चित्रकार ललिता लाजमी और नौसेना कप्तान गोपी लाजमी की बेटी थीं। कल्पना लाजमी भारत के दो सबसे बड़े प्रसिद्ध निर्देशकों के परिवार से संबंध रखती थीं। गुरदत्त उनके मामा थे। उनकी माँ ललिता लाजमी, गुरु दत्त की बहन थीं। इसके अलावा, दिग्गज निर्देशक श्याम बेनेगल भी उनके रिश्तेदार थे। गुरु दत्त की नानी और श्याम बेनेगल की दादी आपस में बहनें थीं।
कल्पना लाजमी ने 1971 में मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज में मनोविज्ञान की पढ़ाई की थी। कॉलेज के दौरान ही उन्होंने शॉर्ट फिल्म बनाने का काम किया। अन्य निर्देशकों के साथ सहायक के रूप में काम करने और डॉक्यूमेंट्री बनाने के बाद, उन्होंने अपनी कुछ पटकथा लिखनी शुरू की। उनकी कहानियां स्वतंत्र नायिकाओं पर केंद्रित थीं, जो अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने में सक्षम थीं। लाजमी ने अपने करियर की शुरुआत दिग्गज फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल के सहायक निर्देशक के रूप में की थी। इसके बाद, उन्होंने श्याम बेनेगल की फिल्म ‘भूमिका: द रोल’ में सहायक कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर के रूप में काम किया।
फिल्मों के साथ डॉक्यूमेंटी निर्माण
कल्पना लाजमी ने 1978 में डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘डी.जी. मूवी पायनियर’ के साथ निर्देशन की शुरुआत की और ‘ए वर्क स्टडी इन टी प्लकिंग’ (1979) और ‘अलॉन्ग द ब्रह्मपुत्र’ (1981) जैसी डॉक्यूमेंट्री का निर्देशन किया। फीचर फिल्मों में में अपने करियर की शुरुआत उन्होंने साल 1986 में फिल्म ‘एक पल’ से निर्देशन में कदम रखकर की। इस फिल्म में शबाना आज़मी, नसीरुद्दीन शाह और फारूक़ शेख़ मुख्य भूमिकाओं में थे। इस फिल्म का निर्माण, पटकथा लेखन और निर्देशन कल्पना ने गुलज़ार के साथ मिलकर किया था।
इसके बाद उन्होंने साल 1988 में ‘लोहित किनारे’ नामक अपना पहला टेलीविजन सीरियल निर्देशित किया। यह सीरियल भी काफी लोकप्रिय हुआ जिसमें तन्वी आज़मी मुख्य भूमिका में थीं। साल 1993 में उन्होंने सिनेमा में फिल्म ‘रुदाली’ के साथ वापसी की। इस फिल्म में डिंपल कपाड़िया ने अभिनय किया। इस फिल्म ने बहुत सराहना हासिल की। फिल्म के लिए डिंपल को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। कल्पना लाजमी के निर्देशन को भी खूब प्रंशसा मिली। इसके बाद उनकी अगली फिल्म ‘दरमियान: इन बिटवीन’ (1997) थी, जिसमें किरण खेर और तब्बू ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं।
साल 2001 में उन्होंने ‘दमन: ए विक्टिम ऑफ मैरिटल वायलेंस’ निर्देशित की। इस फिल्म को भारत सरकार द्वारा डिस्ट्रीब्यूट किया गया। फिल्म को आलोचकों द्वारा खूब सराहा गया। इस फिल्म के लिए रवीना टंडन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। कल्पना लाजमी को रवीना की छिपी प्रतिभा को सामने लाने का श्रेय दिया गया। उनके काम के बारे में लोगों ने खूब बात की। कल्पना लाजमी ने अपनी फिल्मी करियर में एक के बाद एक सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बनाई। उन्होंने रूढ़िवादी, पुरुषवादी समाज की परंपराओं पर सवाल किए। इसके बाद साल 2003 में रिलीज हुई फिल्म ‘क्यों’ हालांकि ज्यादा लोगों का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाई। कल्पना लाज़िमी की आखिरी फिल्म साल 2006 में ‘चिंगारी’ रिलीज हुई थी। सुष्मिता सेन ने इस फिल्म में गाँव की एक सेक्स वर्कर की भूमिका निभाई थीं। हालांकि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल रही लेकिन उन्हें हमेशा अपनी स्टोरी टेलिंग से उन मुद्दों को उठाने के काम किया जिसके बारे में बात नहीं होती है।
महिला केंद्रित और यथार्थवादी सिनेमा का निर्माण
उन्होंने निर्देशक के रूप में अपने 20 साल लंबे करियर (1986-2006) को उस समय विराम देना पड़ा जब उन्हें अपने साथी, असमिया कवि, गायक और संगीतकार भूपेन हज़ारिका की देखभाल करनी पड़ी। लाजमी ने हजारिका के साथ मिलकर फिल्मों के निर्माण में भी साझेदारी की थी। उन्होंने लंबे समय तक भूपेन हज़ारिका की मैनेजर के तौर पर भी काम किया था। कल्पना लाजमी ने भूपेन हजारिका पर “भूपेन हजारिका: ऐज़ आई न्यू हिम” नामक एक संस्मरण लिखा था।
कल्पना लाजमी का नाम भारतीय स्वतंत्र सिनेमा में महिला केंद्रित और यथार्थवादी फिल्मों के निर्माण करने वालों की सूची में शामिल हैं। उन्होंने पर्दे पर हमेशा संवदेनशीलता से सामाजिक मुद्दों को उठाया। उनकी सबसे यादगार फिल्मों में ‘रुदाली’ और ‘दमन’ है। इन दोनों फिल्मों महिला पात्र मुख्य भूमिका में हैं। लाजमी ने अपने काम के माध्यम से सामाजिक मुद्दों को उजागर किया और महिलाओं के अनुभवों और संघर्षों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। वह यथार्थवादी और कम बजट की फिल्मों पर काम करती थीं, जिन्हें भारत में समानांतर सिनेमा के रूप में जाना जाता है। लाजमी की सभी फिल्मों में ऐसी महिला पात्र थीं, जो वैवाहिक जीवन और यौनिकता से जुड़े रूढ़िवाद को चुनौती देती थीं।
साल 2018 में महज 64 वर्ष की उम्र में 23 सितंबर को किडनी कैंसर से लंबी लड़ाई के बाद उनका निधन हो गया। कल्पना लाजमी का फ़िल्मी करियर छोटा ज़रूर था लेकिन प्रभावशाली और यादगार था। कल्पना लाजमी ने कुल दस फिल्में निर्देशित कीं। उनकी बनाई फिल्में विषय, प्रस्तुति और भावनात्मक प्रभाव में अपने समय से काफी आगे थीं। इन फिल्मों में नारीवादी और होमोसेक्सुलिटी पर बात की। उनकी बनाई सभी फिल्में यादगार और महत्वपूर्ण है। बॉलीवुड में महिला निर्देशकों की संख्या बेहद कम है। लाजमी उन गिनी-चुनी महिला फिल्म निर्देशकों में से थीं, जिन्होंने रूढ़ियों को तोड़ा। साथ ही उन्होंने हमेशा पर्दे पर एक स्त्री के किरदार को प्रमुखता दी।