महिलाएं समाज की वो प्राणी हैं जो समाज की स्थापना से पहले से लैंगिक हिंसा का सामना करते आई है। समाज की शुरुआत में एक महिला को बच्चे पैदा करने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता था। वो मर्दों के लिए एक ‘सामान’ से ज्यादा कुछ नहीं थीं। भारत के अधिकतर ग्रामीण इलाकों में आज भी ऐसी स्थिति है। शहर में भी महिलाओं की स्थिति कुछ खास नहीं है। हिंसा केवल शारीरिक ही नहीं मानसिक, आर्थिक, मानसिक तौर पर भी होती है। इसके साथ दोनों इलाकों में महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न और दहेज मांगना आम बात है। इंटरनैश्नल मैन एंड जेंडर इक्वलिटी सर्वे के अनुसार 24 प्रतिशत पुरुषों ने अपनी पूरी ज़िंदगी में कभी न कभी यौन उत्पीड़न किया होता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में हर 20 मिनट में किसी न किसी महिला के साथ बलात्कार होता है।
इतने प्रयासों के बावजूद भी, आज भी विश्व में महिलाओं के साथ हिंसा के वारदात देखने को मिलेंगे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2021 में भारत में महिलाओं के खिलाफ़ 428,278 अपराध दर्ज़ किए गए थे, जो 2011 की तुलना में 87 प्रतिशत ज़्यादा थे। आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अधिकतर अपराध तो पुलिस के पास दर्ज़ भी नहीं होते हैं। उत्तरप्रदेश के बदायूँ जिले के छोटे से गांव की 29 वर्षीय अविवाहित रजनी बताती हैं, “गांव में महिलाओं के 7 से 9 बच्चे होना आम बात है। पर जो लड़के शहर में जा कर काम कर रहे या रहने लगे हैं, उनके यहां चीज़े थोड़ी बदल गई है। पर महिलाओं के साथ मार-पीट की घटनाओं में कुछ खास कमी नहीं आई है।”
गांव में महिलाओं के 7 से 9 बच्चे होना आम बात है। पर जो लड़के शहर में जा कर काम कर रहे या रहने लगे हैं, उनके यहां चीज़े थोड़ी बदल गई है। पर महिलाओं के साथ मार-पीट की घटनाओं में कुछ खास कमी नहीं आई है।
महिलाओं के साथ हिंसा को रोकने में आगे आए पुरुष
65 प्रतिशत भारतीय पुरुषों का मानना है कि परिवार को एकजुट बनाए रखने के लिए महिलाओं पर हिंसा करना ज़रूरी है। देखा जाए तो लैंगिक हिंसा की जड़ पितृसत्ता ही है। महिलाओं के खिलाफ़ होने वाली हिंसा को ख़त्म करने के लिए पुरुषों का योगदान उतना ही ज़रूरी है जितना कि पितृसत्ता को बनाए रखने में है। लैंगिक हिंसा पर चर्चा आमतौर पर महिलाओं को सशक्त बनाने पर केंद्रित होती है। लेकिन यह दृष्टिकोण अक्सर हिंसा के मूल कारणों को अनदेखा कर देती है। ऐसे कारण, जो पुरुषों के प्रभुत्व, आक्रामकता और अधिकार जताने की सोच से जुड़े हैं। पुरुष और लड़के इन विचारों को बदलने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। मर्दानगी की नई परिभाषा को अपनाकर और समानता, सम्मान और सहानुभूति जैसे मूल्यों को अपनाकर पुरुष एक हिंसा-मुक्त समाज के निर्माण में योगदान दे सकते हैं। इस विषय पर 24 वर्षीय रविंशु बताते हैं, “सख़्त, न रोने वाले, दयालु और दूसरों को अपने संवेदनाएं अभिव्यक्त न करना मर्दांगी की निशानी नहीं है। एक पुरुष सहज, सरल और कोमल भी हो सकता है।”
टाक्सिक मर्दानगी से बाहर निकलने की जरूरत
पुरुषों और लड़कों को उन सामाजिक अपेक्षाओं को चुनौती देनी चाहिए, जो मर्दानगी को नियंत्रण, शक्ति और भावनाओं को दबाने से जोड़ती हैं। उन्हें एक स्वस्थ और सम्मानजनक पुरुषत्व का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। मर्दानगी 80-90 के दशक की फिल्मों में दिखाई गई हीरो की छवि नहीं है। ज़्यादातर पर्दे पर दिखाई गई हीरो की छवि कल्पनिक होती है, जो काल्पनिक स्थिति और अतार्किक मानदंड दर्शकों के सामने पड़ोसती है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के लाभार्थी होने के नाते, पुरुष ऐसी प्रथाओं और परंपराओं को ख़त्म करने में सक्षम हैं, जो महिलाओं को नीचा दिखाते हैं, हिंसा को सामान्य बनाते हैं या लैंगिक असमानता को बढ़ावा देते हैं। भारत में चाहते, न चाहते हुए आज भी ऐसी कई मान्यताएं हैं, जो महिलाओं को कमतर दिखाते हैं और पुरुषों को श्रेष्ठ दिखाने का काम करती हैं। हजारों घरों में आज भी कोई फैसले के वक्त लड़कियों को बोलने का हक़ नहीं है। इस स्थिति को बदलने की जिम्मेदारी अकेले महिलाओं के कंधों पर नहीं होनी चाहिए। घर के पुरुषों को फैसले लेते समय महिलाओं की राय लेनी चाहिए। पुरुषों को ये समझना जरूरी है कि महिलाएं भी घर के फैसलों में उतना ही अधिकार रखती हैं जितना कि पुरुष।
महिलओं को सुनना और समझना
पुरुषों को महिलाओं और अन्य लैंगिक समुदायों के अनुभवों को बिना किसी बचाव के सुनना चाहिए। महिलाओं को सुनने और समझने का धैर्य पुरुषों में होना चाहिए। इससे धीरे-धीरे उनके मानसिकता में परिवर्तन भी आएगा। उनको दूसरे जेंडर के लोगों की समस्याएं और परेशानियों का एहसास होगा। यह लड़कों में सहानुभूति बढ़ाने और लैंगिक हिंसा के प्रभाव को गहराई से समझने में मदद कर सकता है। कई बार पुरुषों को जो चीज़ आम लगती है वो असल में लैंगिक हिंसा होती है। वो घर में अपने पिता और दादा को यही चीज़ें करते हुए देखते आए हैं, जिस कारण उनके लिए हिंसा करना आम हो जाता है।
हिंसा के विरुद्ध बोलना
चुप्पी भी हिंसा को बढ़ावा देती है। अमूमन पुरुष आस-पास हो रहे हिंसा को अनदेखा कर देते हैं। उनको लगता है कि किसी और के मामले में दखल नहीं देनी चाहिए। पुरुषों को अपने आस-पास के दुर्व्यवहार और भेदभाव का विरोध करना चाहिए, चाहे वह परिवार में हो या दोस्तों के बीच। इससे हिंसा करने वाले के मन में नागरिक समाज का डर होगा और वह हिंसा करने से डरेगा। संवेदनशील विषयों पर पुरुषों को एक-दूसरे से भी चर्चा करनी चाहिए।
को-एड स्कूलों में पढ़ने वाले लड़के बॉयज स्कूल में पढ़ने वाले लड़कों की तुलना में ज़्यादा संवेदनशील होते हैं। वो लड़कियों से बात करने में सक्षम होते हैं जिससे उन्हें लड़कियों की परेशानी समझना आसान होता है। इस कारण वो वे लैंगिक हिंसा में लिप्त हो, इसके चांस कम हो जाते हैं।
पुरुषों को एक-दूसरे से बात कर उन्हें लैंगिक हिंसा से अवगत कराना चाहिए। हमउम्र लड़के और पुरुष जितना एक-दूसरे की सलाह मानते हैं शायद इतना वो अपने माता-पिता की भी नहीं सुनते होंगे। इसलिए पुरुषों को एक-दूसरे से इस बारे में बता करने की ज़रूरत है। उन्हें संवेदनशील विषयों पर बैठकर चर्चा करनी चाहिए, जिससे वे खुद के व्यवहार और पितृसत्ता और टाक्सिक मैसक्यूलिनीटी को समझें और उससे आगे बढ़ें।
सत्ता में साझेदारी
पुरुष घर, कार्यस्थल और समुदाय में समानता सुनिश्चित करने में भूमिका निभा सकते हैं। महिलाओं को नेतृत्व में प्रोत्साहित करना और घरेलू जिम्मेदारियों को बाँटना इस दिशा में महत्वपूर्ण क़दम हैं। पुरुष घर में जिम्मेदारियों के साथ-साथ सत्ता को साझा कर सकते हैं। पुरुषों को ये समझने की जरूरत है कि अपने विशेषाधिकार को छोड़ना भी एक सकारात्मक कदम है। घर के फैसलों में महिलाओं की राय लेना, और उनके हिस्सेदारी और भागीदारी को बढ़ावा देने के अलावा इसे सामान्य मानते हुए मानना एक सकारात्मक कदम है। इससे दोनों ही जेंडर के बीच पावर डाइनैमिक्स में संतुलन बना रहेगा। साथ ही, सत्ता की शक्ति और ज़िम्मेदारी की समझ पैदा होगी। इसके अलावा, लैंगिक हिंसा के खिलाफ़ आंदोलनों और अभियानों में पुरुषों की भागीदारी संदेश को व्यापक बना सकता है। महिलाओं की तुलना में अगर पुरुष पितृसत्तातमक समाज की कमियों को सामने रखेंगे तो उन कमियों को ठीक करना आसान हो जाएगा। लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में सत्ता को साझा करना और पुरुषों का नारीवादी अभियानों में भाग लेना दोनों ही ज़रूरी क़दम है।
सामाजिककरण पर पुनर्विचार
लड़कों को अक्सर आक्रामकता और प्रभुत्व की समझ दी जाती है। माता-पिता, शिक्षक, समुदाय और नागरिक समाज उन्हें दयालुता, सहमति और भावनात्मक समझ के महत्व को सिखा सकते हैं। बच्चों के लिए उनकी पहली शिक्षक उनकी माँ होती है। उनका पहला आदर्श(रोल मॉडल) उनके पिता होते हैं। अगर यही लड़कों को शुरुआत से ही शिक्षा में दयालु होना, सहमति और भावनात्मक समझ के महत्व को सिखा दें तो आने वाली कई पीढ़ी बेहतर बन जाएगी। इन क़दमों से लैंगिक हिंसा जैसी बुराई समाज से कम हो सकती हैं।
स्कूलों में लड़कों को सहमति, स्वस्थ संबंधों और लैंगिक समानता के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए। इस तरह की शिक्षा प्रारंभिक हस्तक्षेप के माध्यम से हानिकारक व्यवहारों को रोक सकती है। लड़कों को शुरुआती समय में इन चीजों की समझ हो जाएगी, तो न सिर्फ वे अपने आस-पास हो रही हिंसा को रोकने में सक्षम होंगे बल्कि खुद भी संवेदनशील होंगे और हिंसा में लिप्त नहीं होंगे। इस विषय पर 22 वर्षीय अंकुश बताते हैं, “को-एड स्कूलों में पढ़ने वाले लड़के बॉयज स्कूल में पढ़ने वाले लड़कों की तुलना में ज़्यादा संवेदनशील होते हैं। वो लड़कियों से बात करने में सक्षम होते हैं जिससे उन्हें लड़कियों की परेशानी समझना आसान होता है। इस कारण वो वे लैंगिक हिंसा में लिप्त हो, इसके चांस कम हो जाते हैं।”
पुरुषों के रूप में आदर्श प्रस्तुत करना
जो पुरुष हिंसा का विरोध करते हैं और समानता का समर्थन करते हैं, वे दूसरों के लिए प्रेरणादायक रोल मॉडल बन सकते हैं। पिता, मामा, चाचा या बड़े भाई जैसे व्यक्ति अपने व्यवहार से बच्चों और युवाओं को सकारात्मक दृष्टिकोण सिखा सकते हैं। इसके साथ ही सार्वजनिक हस्तियां भी अपनी भूमिका निभा सकती हैं और अपने मंच का उपयोग करके गलत धारणाओं को चुनौती दे सकती हैं। समाज को बेहतर बनाने के लिए लड़कों को एक हिंसा-मुक्त भविष्य के लिए तैयार करना काफ़ी ज़रूरी है। जब तक पुरुष हर जेंडर को समान दृष्टि से नहीं देखेंगे तबतक समाज की स्थिति नहीं बदलेगी।