हमारे कस्बे में पिछले दिनों एक घटना की चर्चा बहुत जोर-शोर से हुई। दरअसल मोहल्ले की एक 31 वर्षीय महिला ने शादी के लिए घर आए रिश्ते को इसलिए मना कर दिया क्योंकि उसके होने वाले पति ने शादी के बाद उसकी तनख्वाह को हर महीने अपने अकाउंट में ट्रांसफर करने की बात कही थी। हैरानी की बात यह है कि ज़्यादातर लोग पत्नियों के तनख्वाह पर पति का नियंत्रण और प्रबंधन सामान्य मानते हैं। आमतौर पर इसे परिवार के प्रति प्यार और समर्पण से जोड़कर देखा जाता है और लोगों को इसमें कुछ भी ग़लत लगता नहीं है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यह प्यार और समर्पण एकतरफा ही क्यों होना चाहिए?
रिश्तों में प्यार के नाम पर आर्थिक और भावनात्मक शोषण का स्वरूप ऐसा होता है कि बाहर से देखने पर सामान्य तौर पर यह नज़र नहीं आता। लेकिन इसका नतीजा बहुत गंभीर हो सकता है। अपनों के द्वारा किया गया यह शोषण किसी भी महिला के आत्मसम्मान के लिए बेहद ख़तरनाक होता है। यह न सिर्फ़ उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। कुल मिलाकर देखा जाए तो यह किसी भी महिला के व्यक्तित्व को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा सकता है।
क्या है आर्थिक शोषण?
आर्थिक शोषण का मतलब है किसी व्यक्ति के आर्थिक संसाधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित करना, जो सामने वाले को मजबूर और निर्भर बना देता है। इसके कई अलग-अलग रूप हो सकते हैं, जैसेकि साथी को वैतनिक काम करने से रोकना या फिर उसके बैंक खातों पर निगरानी रखना। पैसों के मामले में फ़ैसले लेने का अधिकार छीनकर उसे अपने अनुसार चलने पर मजबूर करना भी आर्थिक शोषण का ही एक तरीका है। आर्थिक शोषण का मकसद व्यक्ति को आर्थिक रूप से इतना कमज़ोर कर देना होता है कि वह किसी भी परिस्थिति में रिश्ता ख़त्म न कर सके। यह एक तरह का जाल है जहां व्यक्ति आमतौर पर महिला की आज़ादी को छीन लेता है।
मध्य प्रदेश के रीवा की रहने वाली अंजलि (बदला हुआ नाम) सरकारी स्कूल में शिक्षिका हैं। नाम न बताने की शर्त पर उन्होंने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा, “पूरे महीने मेहनत से नौकरी करने के बाद जब सैलरी आती है तो ये एक दिन भी मेरे अकाउंट में नहीं रहने देते। महीने के अपने मिनिमम खर्च को निकालकर सब तुरंत पति के अकाउंट में ट्रांसफर करना पड़ता है। मना करने पर लड़ाई की नौबत आ जाती है। घरेलू कलह और टेंशन से बचने के लिए मैं कुछ कह नहीं पाती पर अंदर ही अंदर बहुत खलता है। लगता है कि क्या इसी दिन के लिए नौकरी के सपने देखे थे और इतनी मेहनत की थी?”
पूरे महीने मेहनत से नौकरी करने के बाद जब सैलरी आती है तो ये एक दिन भी मेरे अकाउंट में नहीं रहने देते। महीने के अपने मिनिमम खर्च को निकालकर सब तुरंत पति के अकाउंट में ट्रांसफर करना पड़ता है। मना करने पर लड़ाई की नौबत आ जाती है।
हमारे यहां पितृसत्तात्मक समाज की संरचना कुछ इस तरह से बनाई गई है कि शादी के बाद एक महिला पर पूरी तरह से उसके पति और ससुराल वालों का अधिकार हो जाता है। हमें कभी पति की पूरी तनख्वाह हर महीने नियमित रूप से पत्नी के अकाउंट में ट्रांसफर करने वाले केसेस नहीं देखने को मिलते, जबकि महिलाओं के मामले में यह अक्सर देखने को मिल जाता है। अमूमन पुरुष न सिर्फ़ अपनी तनख्वाह अपने और अपने परिवार के ऊपर खर्च करता है बल्कि वह यह भी चाहता है कि उसकी पत्नी अगर जॉब करती है तो उसकी तनख्वाह पर भी उसका ही अधिकार हो।
रिश्तों में भावनात्मक शोषण
भावनात्मक शोषण किसी करीबी द्वारा किए जाने वाला वह व्यवहार है, जो व्यक्ति के आत्मसम्मान को ख़त्म कर उसमें डर और ख़ुद को लेकर शक पैदा करता है। भावनात्मक दुर्व्यवहार के सर्वाइवर्स में भ्रम, डर, किसी काम में ध्यान केंद्रित करने में समस्या और आत्मविश्वास की कमी जैसी समस्याएं देखी जा सकती हैं। लंबे समय तक ऐसे रिश्ते में रहने से स्ट्रेस, एंजायटी, नींद आने में कठिनाई, बुरे सपने, सामाजिक अलगाव और अकेलापन जैसी गंभीर समस्याएं होने का जोख़िम बढ़ जाता है। साथी को अपशब्द कहना, बुरा महसूस करवाना, भ्रमित करने के लिए गैस लाइटिंग करना भावनात्मक शोषण का ही हिस्सा है। हमारे समाज में यह आम धारणा बन चुकी है कि शादी के बाद महिलाओं को अपने घरवालों, रिश्तेदारों, दोस्तों से संपर्क कम कर अपने पति और ससुराल वालों पर ध्यान देना चाहिए तभी शादीशुदा रिश्ता अच्छा चल सकता है।
इस तरह महिलाओं को अलग-थलग करने के लिए उनके प्रियजनों से बातचीत करने पर पाबंदियां लगाई जाती है। जहां अमूमन एक लड़का शादी के बाद भी न सिर्फ़ अपने माता-पिता, भाई-बहनों और दूसरे परिवारी जनों से के साथ रहता है, वहीं दूसरी तरफ एक लड़की से अपेक्षा की जाती है कि वह उनसे बातचीत भी न करे। यह हमारे समाज के दोहरे मानकों को साफ तौर पर दिखाता है। विडम्बना है कि देश की आज़ादी के इतने दशक बीतने के बावजूद महिलाओं को कदम-कदम पर इस तरह के लैंगिक भेदभावों का सामना करना पड़ता है और इस तरह के भावनात्मक शोषण को परंपरा और संस्कार के नाम पर वैध बनाने की कोशिश भी की जाती है।
मेरे पति बात-बात पर ‘तुम्हें क्या पता’ और ‘तुमसे ना होगा’ जैसी लाइन बोलते रहते हैं जबकि मेरी एजुकेशनल क्वालीफिकेशन उनसे कम नहीं है। मुझे यह बातें बहुत चुभती हैं। इसके अलावा बहन से बात करने को मना करते हैं। इसके पीछे उनका यह कहना है कि वह मुझे बिगाड़ देगी।
उत्तर प्रदेश के हमीरपुर की पूजा राजपूत इस विषय पर बताती हैं, “मेरे पति बात-बात पर ‘तुम्हें क्या पता’ और ‘तुमसे ना होगा’ जैसी लाइन बोलते रहते हैं जबकि मेरी एजुकेशनल क्वालीफिकेशन उनसे कम नहीं है। मुझे यह बातें बहुत चुभती हैं। इसके अलावा बहन से बात करने को मना करते हैं। इसके पीछे उनका यह कहना है कि वह मुझे बिगाड़ देगी। घर के किसी भी फ़ैसले में मुझे शामिल नहीं किया जाता जबकि काम की ज़िम्मेदारी मेरे ही हिस्से आती है। मुझे तो बहुत देर से पता चला है कि यह सब भावनात्मक शोषण का ही एक रूप है।”
आर्थिक और भावनात्मक शोषण का मेल
रिश्तों में कई बार आर्थिक और भावनात्मक शोषण एक साथ एक साथ देखे जाते हैं। शोषण करने वाला अपने साथी पर नियंत्रण बनाने के लिए और उसे अपने ऊपर निर्भर बनाए रखने के लिए न सिर्फ़ उसके पैसों पर कब्ज़ा जमाए रखता है, बल्कि भावनात्मक रूप से भी उसे कमज़ोर करने की कोशिश करता है। इसके साथ ही उसे उसके प्रियजनों और करीबी लोगों से अलग-थलग करने की पुरजोर कोशिश भी करता है। ऐसे में सर्वाइवर पूरी तरह से टूट जाते हैं और उसकी शारीरिक और मानसिक सेहत बिगड़ जाती है। अक्सर इस स्थिति के लिए महिलाएं ख़ुद को भी दोष देने लगती हैं। रिश्ते बचाने के लिए बहुत हद तक समझौते करती रहती हैं, जिससे उनके लिए इससे बाहर निकल पाना और भी मुश्किल हो जाता है। आर्थिक और भावनात्मक शोषण एक साथ होने का नतीजा बहुत ही ख़तरनाक हो सकता है। इससे तनाव और चिंता बढ़ती है और आत्मविश्वास में कमी हो जाती है। लंबे समय तक ऐसी स्थिति में रहने से डिप्रेशन की आशंका बढ़ जाती है। इस तरह सर्वाइवर के अंदर स्थायी रूप से निराशा की भावना घर कर लेती है।
इस वजह से इन्हें नौकरी या दूसरे काम को ढंग से करने में परेशानी हो सकती है जो इनका तनाव और बढ़ा देता है। ये अपने दोस्तों और परिवार से भी कटे-कटे से रहने लगते हैं और अकेलेपन से घिर जाते हैं। इससे शोषक और अधिक असरदार तरीके से इनका आर्थिक और भावनात्मक शोषण ज़ारी रखते हैं। कई बार इन सबसे बाहर निकल पाना, नामुमकिन भी लगने लगता है। आर्थिक और भावनात्मक शोषण का असर न सिर्फ़ संबंधित व्यक्ति पर होता है बल्कि इसका दूरगामी और व्यापक प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। इस तरह का शोषण समाज में चल रहे भेदभाव को और बढ़ा देता है, जिस वजह से समाज का एक तबका अपनी पूरी क्षमताओं का इस्तेमाल नहीं कर पाता। इससे देश की मानव संपदा का एक बड़ा हिस्सा एसेट ना बनकर ज़िम्मेदारी बन जाता है। इससे व्यक्तिगत विकास के साथ ही देश की अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक असर पड़ता है।
क्या हो सकता है आगे का रास्ता
आर्थिक और भावनात्मक शोषण को ख़त्म करने के लिए बड़े स्तर पर और सामूहिक रूप से कोशिश करने की ज़रूरत है। सबसे पहले तो जागरूकता बढ़ाने की दिशा में काम किया जाना चाहिए। इसमें भावनात्मक और आर्थिक शोषण क्या है, इसके बारे में लोगों को जानकारी पहुंचाना ज़रूरी है जिससे वे न सिर्फ़ अपने या अपनों के साथ हो रहे शोषण को पहचान सकें बल्कि यह भी ध्यान रखें कि दूसरों के साथ इस तरह का शोषण न हो। इसके साथ ही सर्वाइवर्स के लिए ज़रूरी मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाएं जिससे उन्हें इससे निकलने में आसानी हो। इसी तरह सर्वाइवर्स को ध्यान में रखते हुए नियम, क़ानून और नीतियां भी बनाई जा सकती हैं जो उन्हें स्थिति से निकलने और सशक्त बनाने में सहयोग करें।
किसी भी रूप में शोषण मानव सभ्यता के लिए ख़तरनाक है। शोषण को ख़त्म करना केवल सर्वाइवर के जीवन को बेहतर बनाने के लिए ही नहीं बल्कि समाज को समावेशी बनाने के लिए भी ज़रूरी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हर व्यक्ति को ऐसा रिश्ता मिले, जिसमें सम्मान, सहयोग, समानता और स्वतंत्रता हो क्योंकि समानता के बिना सम्मान महज एक ढोंग है। हमारे समाज को पितृसत्तात्मक ढांचे के दोहरे मानकों से छुटकारा पाना होगा, जिसमें अलग-अलग जेंडर के लिए अलग-अलग नियम क़ानून हैं। हमारे सामूहिक प्रयास ही सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं जो कि समावेशी और न्यायपूर्ण समाज बनाने के लिए बेहद ज़रूरी है।