स्वास्थ्यमानसिक स्वास्थ्य बात डिप्रेशन और इससे जुड़े मिथ्यों की| नारीवादी चश्मा

बात डिप्रेशन और इससे जुड़े मिथ्यों की| नारीवादी चश्मा

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में सबसे ज़्यादा डिप्रेस्ड लोगों की संख्या भारत में है।

क्या आपको लंबे समय से एंजाइटी की समस्या है? या फिर आपको भी उदासी और जीवन से कोई उम्मीद नहीं लगती है तो ऐसी स्थिति में बिना देर किए आप किसी मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट की सलाह लें, क्योंकि हो सकता है आपको डिप्रेशन की समस्या हो। डिप्रेशन जिसे हिंदी में अवसाद भी कहा जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में सबसे ज़्यादा डिप्रेस्ड लोगों की संख्या भारत में है। इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में क़रीब तीन सौ मिलियन लोगों ने अपने जीवन के किसी पॉईंट पर डिप्रेशन का अनुभव ज़रूर किया, जिसमें उन्हें आत्म हत्या से मौत तक विचार तक आया। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अक्टूबर 2019 में दिए गए एक डेटा के मुताबिक़ भारत की कुल आबादी का लभगभ 7.5 फ़ीसद भाग किसी न किसी तरह के मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझता है।

साल 2020 को लेकर लगाए गए अनुमान में कहा गया कि यह आंकड़ा बढ़कर 20 फ़ीसद हो जाएगा। दुनियाभर के कई रिसर्च में ये पाया गया है कि दुनियाभर में अकेले साल 2020 में ही चिंता (एंग्जायटी) के सामान्य से 76 मिलियन और अवसाद के 53 मिलियन ज़्यादा मामले सामने आए हैं।

क्या है डिप्रेशन?

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ डिप्रेशन एक आम मानसिक बीमारी है। डिप्रेशन आमतौर पर मूड में होने वाले उतार-चढ़ाव और कम समय के लिए होने वाले भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से अलग है। लगातार दुखी रहना और पहले की तरह चीज़ों में रुचि नहीं होना इसके लक्षण हैं। इसके कई प्रकार हैं। डिप्रेशन के शिकार कई लोगों में एंग्ज़ाइटी के लक्षण भी होते हैं। डिप्रेशन को मूड डिसऑर्डर के तौर पर भी क्लासीफाइड किया गया है। इसे इंसान की उदासी, नुकसान या ऐसे गुस्से के रूप में समझा जा सकता है, जिससे किसी इंसान की रोजमर्रा की गतिविधियों पर असर पड़ता है।

लेकिन दुर्भाग्य से अपने भारतीय समाज में आज भी मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे में बात करना आज भी टैबु समझा जाता है, जिसकी वजह से मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज में जागरूकता से ज़्यादा भ्रांतियां और मिथ्य प्रचलित हैं। आइए आज हम बात करते हैं डिप्रेशन से जुड़े कुछ मिथ्यों के बारे में।

मिथ्य: डिप्रेशन कोई असली बीमारी नहीं है।

कई बार डिप्रेशन को सिर्फ़ उदासी के रूप में देखा जाता है और यह सोचा जाता है कि कुछ समय के बाद ये ठीक हो जाएगा। लेकिन वास्तव में डिप्रेशन एक बीमारी है, जिसके अन्य बीमारियों की तरह लक्षण भी है जो इंसान के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव भी डालते हैं। चूंकि डिप्रेशन के रूप और कंडीशन कई तरह के होते हैं इसलिए सामान्य तौर पर इसका पता लगाना कई बार मुश्किल भी होता है। डिप्रेशन के कारण कई बार जैविक, सामाजिक या फिर इन सभी के मिले-जुले असर भी होते हैं। इसलिए यह कहना कि डिप्रेशन को बीमारी नहीं है, बिल्कुल ग़लत है। 

मिथ्य: डिप्रेशन सिर्फ़ महिलाओं को प्रभावित करता है।

डिप्रेशन को लेकर ये सिर्फ़ एक मिथ्य है। वास्तव में डिप्रेशन का किसी भी सेक्स या जेंडर से कोई लेना देना नहीं है। अक्सर समाज के बनाए जेंडर के ढांचे के अनुसार, डिप्रेशन होने पर इसके लक्षण अलग-अलग जेंडर के लोगों में अलग-अलग दिखाई पड़ सकते हैं। इसलिए ये कहना कि डिप्रेशन की शिकार सिर्फ़ महिलाएं होती हैं पूरी तरह ग़लत है क्योंकि डिप्रेशन किसी को भी हो सकता है।

मिथ्य: डिप्रेशन और उदासी दोनों एक हैं।

जब भी हम डिप्रेशन की तुलना उदासी से करते हैं तो वहां हमें उदासी की अवधि और अन्य लक्षणों को नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए। उदासी, डिप्रेशन का एक लक्षण हो सकती है, लेकिन उदासी और डिप्रेशन एक नहीं हैं। जब उदासी बेहद लंबे समय तक बनी रहती है तो यह गहरी होती है और इसका स्वरूप दिन-प्रतिदिन गंभीर होता जाता है। इसके साथ ही डिप्रेशन में उदासी के अलावा भी और भी कई लक्षण होते हैं जैसे-एंजाइटी होना या फिर नाउम्मीद महसूस करना, आदि। भारत की कुल आबादी का लभगभ 7.5 फ़ीसद भाग किसी न किसी तरह के मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझता है।

मिथ्य: डिप्रेशन में जीवनभर आपको दवाएं खानी पड़ती हैं।

प्रसिद्ध मानसिक स्वास्थ कार्यकर्ता रत्नाबोली रे इस संदर्भ में कहती हैं कि मानसिक स्वास्थ्य बाजारवाद का शिकार होता दिखाई पड़ रहा है या यूं कहें कि यह रिग्रेसिव बायोमेडिकल के एक क्रिटिकल जंक्शन में है। बेशक अब हम मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हुए है पर वहीं दूसरी तरफ से यह जागरूकता हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में बढ़ते मेडिकल के प्रभाव ने ले ली है। साथ ही, मनोचिकित्सा के क्षेत्र में अपनी संरचनात्मक समस्या भी है, जिसके तहत मनोविज्ञान में मानसिक स्वास्थ्य को एक समस्या या बीमारी के रूप में और दवाइयों को इसके एकमात्र उपाय के देखा जाता है तो इस आधार पर ये कहना कि डिप्रेशन में आजीवन दवा खानी पड़ती है ये सिर्फ़ एक मिथ्य मात्र है।

मिथ्य: डिप्रेशन के बारे में बात करना इसे और बुरा बना देता है।

डिप्रेशन को लेकर कई बार ये कहा जाता है कि अगर हम इसके बारे में बात करते हैं तो यह इसे और भी बुरा बना देता है, जो सिर्फ़ एक मिथ्य है। वास्तव में डिप्रेशन के मुद्दे पर बातचीत डिप्रेशन से पीड़ित लोगों को उस स्थिति से बाहर निकलने में मदद करती है। डिप्रेशन पर दोस्तों, रिश्तेदारों या फिर मनोवैज्ञानिक से की गई बात सर्वाइवर इंसान को इससे उबरने की मज़बूती देती है।

मिथ्य: डिप्रेशन अपने आप ठीक हो जाता है।

बिना मेंटल एक्सपर्ट की सलाह और ट्रीटमेंट के डिप्रेशन से ठीक हो पाना रेयर होता है। इसलिए डिप्रेशन से ठीक होने के लिए इसका इलाज ज़रूरी होता है। कई बार बिना इलाज की वजह से डिप्रेशन की स्थिति और भी गंभीर होती जाती है, जो इससे जूझ रहे लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालने लगती है।  

मिथ्य: डिप्रेशन कमजोरी की निशानी है।

डिप्रेशन से जूझ रहे लोगों के लिए कई बार यह कहा जाता है कि वे कमजोर है, जो पूरी तरह ग़लत है। वास्तव में डिप्रेशन एक मेंटल हेल्थ कंडीशन है जिसका ताल्लुक़ हमारे शरीर में होने वाले केमेकिल इम्बैलेंस से है, न की हमारे व्यक्तित्व से। कोई भी इंसान खुद डिप्रेस्ड नहीं बनना चाहता है। डिप्रेशन को कमजोरी से जोड़कर देखने का नज़रिया भी समाज की दकियानूसी सोच का नतीजा है।

मिथ्य: डिप्रेशन सिर्फ़ मन का वहम है।

चूंकि हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर बात नहीं होती है इसलिए डिप्रेशन को भी एक वहम ही माना जाता है। लेकिन डिप्रेशन कोई वहम नहीं बल्कि हक़ीक़त है और एक मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा एक अहम मुद्दा है।

डिप्रेशन से जुड़े ये कुछ ऐसे मिथ्य है, जो डिप्रेशन को लेकर जागरूकता फैलाने में अक्सर रोड़ा बनते है और जिसकी वजह से कई बार डिप्रेशन से पीड़ित लोगों को सही समय पर इलाज भी नहीं मिल पाता है, जिससे उनकी स्थिति और गंभीर होती जाती है।


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