इंटरसेक्शनलजेंडर छत्तीसगढ़ की भुंजिया जनजाति की अनसुनी प्रथाएं और महिलाओं का ‘स्थान’

छत्तीसगढ़ की भुंजिया जनजाति की अनसुनी प्रथाएं और महिलाओं का ‘स्थान’

इन समुदायों के लोगों को अपने समाज की संस्कृति के आधार पर ही चलना पसंद है। भुंजिया बोलने वाले लोग इंडो-आर्यन भाषा परिवार से संबंधित हैं, क्योंकि वे भुंजिया भाषा बोलते हैं, जो हल्बी भाषाओं का हिस्सा मानी जाती है। इसे उड़िया, मराठी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं का मिश्रण माना जाता है।

ग्रामीण समाज का एक भाग घने जंगलों, घाटियों, पहाड़ियों में निवास करता है जिन्हें उनकी भाषा, सामाजिक संगठन, धार्मिक पहचान और उनकी अनूठी संस्कृतियों के कारण आदिम जाति, आदिवासी, वन्यजाति, जनजाति नामों से जाना जाता है। सुदूर अंचलों में निवास करने के कारण विकास की लहर इन तक नहीं पहुंच पाई और ये अन्य समाजों के तुलना में पिछड़ते गए। छत्तीसगढ़ के अलग-अलग समुदाय में एक जनजाति है भुंजिया जनजाति। इसमें तीन अलग समुदाय होते हैं चोकटिया, खोलारझिया और चिंडा। ये तीनों भुंजिया के नियम क़ायदे अलग हैं। चोकटिया बाक़ी दो समुदाय से अलग है जो छत्तीसगढ़ में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के गरियाबंध, धमतरी, और महासमुंद ज़िलों में कई दशकों से निवास कर रहे हैं। लेकिन इनकी  अधिकतम जनसंख्या गरियाबंध ज़िले में रहती हैं। वे सिर्फ़ प्रकृति को और उससे जुड़ी चीजों को अपना देवता मानते हैं। भारत की जनगणना 2011 के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य में भुंजिया जनजाति की कुल जनसंख्या 10603 है जिसमें पुरुष जनसंख्या 5225 और स्त्री जनसंख्या 5378 है।

जीवनयापन और रहन सहन 

आदिकाल से भुंजिया जनजाति के लोग जंगल और पहाड़ी इलाक़ों में आवास करते आ रहे हैं। इनकी वेशभूषा, रहन-सहन इनकी संस्कृति प्रकृति के करीब है, जैसे कि महिलाओं का प्राकृतिक चीजों से श्रृंगार, रीलो नृत्य करना, चाउंर (चावल) त्योहार करना। पहले इनका जीवन मुख्य रूप से जंगल पर ही निर्भर था, जैसे-जैसे युग आधुनिकता की ओर बढ़ने लगा पुरुष छोटी-मोटी खेती करने का काम करते हैं और कुछ महिलाएं गांवों में जाकर गोदना (टैटू) बनाने का काम करती हैं। इन्हें जंगलों से ही अपना जीविका चलाने के लिए कुछ मात्रा में चीजें मिल जाती है जैसे- लकड़ी, फल-फ़ूल, कंदमूल, तेंदूपत्ता, जड़ी-बूटी, नदी और झरने का पानी और शुद्ध हवा।

इन समुदायों के लोगों को अपने समाज की संस्कृति के आधार पर ही चलना पसंद है। अब धीरे-धीरे जंगल खत्म होते जा रहे हैं इनकी पारंपरिक तौर-तरीके निभाने भी मुश्किल हो गए है। ऐसे में उनकी संस्कृति और परंपराएं भी विलुप्त होती जा रही है और जीने के साधन भी खत्म होने लगे है। भुंजिया बोलने वाले लोग इंडो-आर्यन भाषा परिवार से संबंधित हैं, क्योंकि वे भुंजिया भाषा बोलते हैं, जो हल्बी भाषाओं का हिस्सा मानी जाती है। इसे उड़िया, मराठी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं का मिश्रण माना जाता है।

भुंजिया जनजाति में चोकटिया समुदाय के लोग विशेषकर अपने लाल बंगले के नाम से ज़्यादा जाने जाते हैं। सामान्यतः इनके घर मिट्टी के होते हैं जिस पर घास फूस या देशी खपरिल से छप्पर बना होता है। लेकिन घर से थोड़े दूर एक कोने में एक लाल बंगला होता है जो एक रसोई घर होती है जिसे वे अपना देवता मान कर उसे पूजते हैं।

क्या है लाल बंगला?

तस्वीर साभारः रचना

भुंजिया जनजाति में चोकटिया समुदाय के लोग विशेषकर अपने लाल बंगले के नाम से ज़्यादा जाने जाते हैं। सामान्यतः इनके घर मिट्टी के होते हैं जिस पर घास फूस या देशी खपरिल से छप्पर बना होता है। लेकिन घर से थोड़े दूर एक कोने में एक लाल बंगला होता है जो एक रसोई घर होती है जिसे वे अपना देवता मान कर उसे पूजते हैं। भुंजिया जनजाति से ताल्लुक रखने वाले रूपेश कुमार और भुवन राम समुदाय के बारे में बताते हुए कहते हैं कि ये लाल बंगला मिट्टी का बना होता है जिसे लाल रंग से रंगा जाता है। इसकी ख़ास बात ये है कि इस लाल बंगले का निर्माण सुमदाय के लोग प्राकृतिक तरीक़ों से करते हैं। जंगल से लाल मिट्टी लाना, जंगल से ही बांस लाना, जंगल के ही किसी नदी से पानी लाना और ये सारी प्रक्रिया उपवास रह कर की जाती है। ये प्रक्रिया करने से पूर्व उस नदी, ज़मीन, पेड़ की पूजा की जाती है और उनसे माफ़ी मांगी जाती है कि मुझे क्षमा करिएगा मुझे ज़रूरत है इसलिए पेड़ काट रहा हूं और कुछ चावल के दानों को उस पर अर्पण किया जाता है। इसके बाद फिर घर के एक कोने में उन सभी चीजों से लाल बंगले का निर्माण किया जाता है, और इसी बंगले के अंदर एक धनुष बाण रखते हैं जिनसे ये शिकार करते हैं और इसे ही वे अपना देवता मानते हैं।

लाल बंगले का निर्माण पवित्र चीज़ से किया जाता है इसलिए भुंजिया समुदाय के लोगों के साथ-साथ कोई बाहर का व्यक्ति भी अगर उस लाल बंगले को गलती से भी हाथ लगा दे तो उसे तुरंत जला या तोड़ दिया जाता है। उस कोठी के अंदर सिर्फ़ घर के लोग ही जा सकते हैं उसके अलावा कोई और छू भी दे तो उसे उजाड़ कर दूसरी कोठी का निर्माण किया जाता है। भुंजिया समुदाय उस कोठी को बहुत पवित्र मानते हैं और इससे सबकी आस्था और विश्वास बनी हुई है। भुवन कुमार बताते हैं कि आधुनिकरण से पहले और भी बहुत नियम थे। कुछ नियम समय और बदलती ज़रूरतों के हिसाब से बदल रहे हैं।

समुदाय की महिलाओं का जीवन

तस्वीर साभारः रचना

भारतीय समाज में पुरुषों का स्थान हमेशा से ही परंपरागत रूप से महिलाओं की तुलना में उच्च रहा है। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण चाहे शहर हो या गाँव, कोई जाति-धर्म हो या कितना ही छोटा समुदाय लैंगिक आधार पर भेदभाव हर जगह देखने को मिलता है। भुंजिया समुदाय की महिलाएं भी घर तक ही सीमित रहती है। भुंजिया समुदाय के पुरुषों के साथ महिलाएं भी अपने समाज के धरोहर और परंपराओं को विलुप्त होने से बचा रही हैं और सारे रिवाजों को अपना रही हैं। समुदाय की महिलाओं से बात करने पर पता लगा है कि उनके समुदाय में कई प्रथाएं चली आ रही है जिसमें महिलाओं और छोटी लड़कियां शामिल होती हैं। ऐसी ही एक प्रथा है काँड विवाह। इस काँड विवाह में लड़कियों की शादी काँड (धनुष बान, एक औज़ार) से 10 से 12 वर्ष की उम्र तक कर दी जाती है। उनके समाज का कहना है कि इस उम्र में (पीरियड्स शुरू होने से पहले) लड़कियां शुद्ध होती हैं और जब तक लड़की का काँड विवाह नहीं होता है तब तक वो किसी लड़के से शादी नहीं कर सकती है।

काँड विवाह का मुख्य उद्देश्य यौन स्थिति में आने से पहले समाज के नियम कानून लड़कियों पर लागू करने के लिए किया जाता है। समुदाय के लोग मानते हैं कि जितनी ज़ल्दी लड़कियों को समाज के नियम कानून सिखाए जाए, उतना अच्छा होता है। इस तरह की परंपराओं के कारण लड़कियों की शादी दस वर्ष की उम्र में ही कर दी जाती है। इस कारण बहुत कम लड़कियां हैं जो स्कूल जा पाती हैं और पढ़ पाती हैं। इस कार्यक्रम में अनेक समुदायों से आदिवासी शामिल होते हैं।

पीरियड्स और लाल बंगला

तस्वीर साभारः रचना

भुंजिया समुदाय में लाल बंगले को प्रकृति की शुद्धता और महिला की भागीदारी से बनाया जाता है उसी कोठी के अंदर महिला को प्रवेश करने के लिए अलग नियम बनाए गए हैं। भुंजिया समुदाय की सरिता (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “जब महिला को पीरियड्स होते हैं तो उसे उस लाल बंगले के अंदर प्रवेश नहीं करना होता है चाहे जिस भी स्थिति में हो या कोई भी मौसम हो। इस दौरान उसे घर के बाहर एक जगह दे दी जाती है, जहां वो रहेती है। तब तक वह रसोई घर को हाथ भी नहीं लगा सकती है। तब तक पुरुष ही उस रसोई के अंदर जाता है और खाना बनाता है। एक तरफ़ अच्छा लगता है सुन कर की भले कुछ समय के लिए हो कि पुरुष खाना बना रहा है लेकिन पीरियड्स को अशुद्ध बताना और महिला के साथ इस तरह व्यवहार करना एक चिंतित प्रथा है। अगर कोई महिला समाज के नियम तोड़ती हैं तो उसे समाज के द्वारा दंड दिया जाता है।”

“चप्पल तो ज़रूरी है पर समाज की बातों को भी मानना ज़रूरी है”

भुंजिया जनजातिकी एक और प्रथा है चप्पल नहीं पहनने की प्रथा। यह प्रथा सिर्फ़ महिलाओं के लिए है। भुंजिया समुदाय के लोगों द्वारा यह नियम बनाया गया है और उनका कहना है कि भगवान राम के साथ सीता भी अपने वनवास के दिन नंगे पैर इस जंगल में रही थीं। हम इस जंगल पर निर्भर हैं यही हमारा देवता है तो भुंजिया समाज के महिलाएं भी ये प्रथा अपनाएगी। इस समुदाय में महिलाओं को बचपन से चप्पल नहीं पहनने दी जाती है। महिलाएं खुले पैर जंगल जाती हैं, खेत जाती हैं, चाहे जैसा भी जब भी काम हो उन्हें खुले पैर ही रहना पड़ता है। सुमदाय से ताल्लुक रखने वाली 45 वर्षीय सरिता (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “चप्पल तो ज़रूरी है पर समाज के बातों को भी मानना ज़रूरी है। बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक कोई भी महिला या लड़की चप्पल नहीं पहनती है।”

वह आगे बताती है, “हमारे घरों में तो महिलाओं बाहर का कुछ खाने भी नहीं दिया जाता है। वे बाज़ार से कुछ खाने की वस्तु खरीद नहीं सकती है और नहीं उसका सेवन कर सकती है। ये सारे नियम तो बहुत पहले से चले आ रहे हैं। समाज में शुरू से ही बना है तो हम भी उसका पालन कर रहे हैं।” आज भी भुंजिया समुदाय की महिलाएं अपने संस्कृति और रीति-रिवजों को इस आधुनिकता से भरी दुनिया से बचा कर रखने के लिए अपने आत्मसम्मान और ज़रूरतों को त्यागते हुए अपने समुदाय की प्रथाओं को लगन और ईमानदारी के साथ निभाती चली आ रही हैं।

काँड विवाह में लड़कियों की शादी काँड (धनुष बान, एक औज़ार) से 10 से 12 वर्ष की उम्र तक कर दी जाती है। उनके समाज का कहना है कि इस उम्र में (पीरियड्स शुरू होने से पहले) लड़कियां शुद्ध होती हैं और जब तक लड़की का काँड विवाह नहीं होता है तब तक वो किसी लड़के से शादी नहीं कर सकती है।

वैश्विक स्तर पर आधुनिकता के साथ लिंगभेद के विभिन्न पहलुओं में बदलाव तो देखा गया है लेकिन ढांचागत स्थिति में कोई बदलाव नहीं है। आज भी हमारे समाज और इसके अलग-अलग समुदाय पुरुषवादी है। भुंजिया समुदाय की परंपराओं और लोक नियमों के तहत महिलाओं और छोटी बच्चियों के जीवन को नियंत्रित किया जाता है। समुदाय की परंपराओं को निभाने का भार उन पर है। उन परंपराओं से महिलाओं को न केवल उनके घरों तक बल्कि घरों के एक कोने रसोई तक सीमित किया जाता आ रहा है। भुंजिया समुदाय की बात करे तो ऐसी जनजाति के लोगों द्वारा उन पर अपनी संस्कृति और परम्पराओं को बचाने की ज़रूरत है, जिसे ग़लत नहीं ठहराया जा सकता है। यहां ध्यान देने की यह आवश्यकता है कि उन परंपराओं के भीतर महिलाओं की जो स्थिति है उसे समझने की ज़रूरत है।


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