इंटरसेक्शनलजेंडर मेरा फेमिनिस्ट जॉयः खुद के लिए आवाज़ उठाना और मजबूत बनना ही मेरी खुशी!

मेरा फेमिनिस्ट जॉयः खुद के लिए आवाज़ उठाना और मजबूत बनना ही मेरी खुशी!

बस से नीचे उतरकर मैं काफ़ी हल्का महसूस कर रही थी। एक तरह से अच्छा भी लगा कि ख़ुद के लिए तुरंत मैंने आवाज़ उठाई। हर बार की तरह बहुत बुरा महसूस नहीं हुआ और न ही मन में सवालों की लाइन लगी। अक्सर सार्वजनिक जगहों पर उत्पीड़न का सामना करने के बाद मैं खुद में उलझ जाती थी, उसने ऐसा किया तो मैंने कुछ किया क्यों नहीं।

हम अपने आसपास के लोगों से कितनी उम्मीदें रखते हैं न? ख़ासकर अगर आप लड़की हैं तो आपको मानसिक रूप से अपने आसपास के पुरुषो पर निर्भर बनाने की एक लंबी प्रक्रिया है। समाज में आप हमेशा इस निर्भरता से जूझते अपने लक्ष्यों तक कभी पहुंच पाते हैं तो कभी नहीं। लेकिन जब आप आत्मनिर्भर होते हैं तो यकीनन आपके लिए सब ज़्यादा आसान हो जाता है। यह एक लंबी यात्रा है या यू कहें कि यही जीवन है।

कॉलेज में मेरे ग्रेजुएशन के दिनों की बात है। अक्सर बस से सफ़र किया करती थी। मैं और मेरा एक दोस्त, लगभग रोज़ साथ ही जाते थे। दिल्ली की बस में सुबह की वो भीड़ और इस भीड़ में ज़्यादातर मर्द होते हैं। उनसे बहुत बचकर खड़ी होने की कोशिश में थी लेकिन भीड़ इतनी कि आप कितना ही बचोगे? इसी भीड़ का फ़ायदा उठाकर एक आदमी ने बस में यात्रा के दौरान यौन उत्पीड़न करने की कोशिश की। उसने मुझे गलत तरीके से छूने की कोशिश की। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो बहुत अजीब नज़रों से उसने मुझे घूरा। मैंने कहा, “ठीक से खड़े हो जाओ” तो इस पर वो “भीड़ है तो कहां जाएं? भीड़ में भी फैलने की जगह चाहिए तो बस से क्यों जा रही है?” ऐसे ही और न जाने क्या-क्या बोलता हुआ आगे बढ़ने लगा। उसकी बातों से साफ़ दिख रहा था कि वो स्त्रीद्वेषी था। तब तक बस स्टॉप आ चुका था और वो उतरने लगा। मैं अपने दोस्त की तरफ़ देखती रही और उतने में वो उतरकर चला गया। 

एक दिन फिर ऐसी ही घटना हुई इत्तेफ़ाक से उस दिन भी वह दोस्त मेरे साथ था। एक ओवर फ्रेंडली इंसान बस में सफर के दौरान मेरे पास वाली सीट पर आकर खड़ा हुआ। मैं अपना बस स्टॉप आने से पहले उतरने के लिए खड़ी हुई तो भीड़ में मौक़ा समझकर उसने मेरे बट को छुआ।

मैं उस वक्त उस आदमी की बातें सुनकर कुछ सहम गई थी और इसलिए मैं अपने दोस्त की तरफ़ उम्मीद से देख रही थी कि शायद वो उसे कुछ कहे। पर उसने कुछ नहीं कहा। मैं निराश हुई। क्योंकि आमतौर पर हम उम्मीद पाले रखते हैं कि लड़के के सामने किसी लड़की से अगर कोई बदतमीज़ी करे तो वह उसका विरोध करता है। उसके सामने उनकी बहन या मित्र को इस तरह से परेशान करने की हिम्मत कैसे हुई। कडीशनिंग की वजह से हम ऐसे ही कुछ होने का ही सोचते हैं, इसलिए मैं भी उम्मीद कर रही थी मेरे लिए उसे बोलना चाहिए था। मैं काफ़ी समय तक सोचती रही कि मेरी मदद क्यों नहीं की।

एक दिन फिर ऐसी ही घटना हुई इत्तेफ़ाक से उस दिन भी वह दोस्त मेरे साथ था। एक इंसान बस में सफर के दौरान मेरे पास वाली सीट पर आकर खड़ा हुआ। मैं अपना बस स्टॉप आने से पहले उतरने के लिए खड़ी हुई तो भीड़ में मौक़ा समझकर उसने मेरे बट को छुआ। मैंने तुरंत उसे एक कोहनी मारी और उससे पूछा कि हाथ क्यों लगाया। तो शायद उसे उम्मीद नहीं थी मैं इतनी जल्दी रिएक्ट करूंगी इसलिए वो कुछ नहीं बोल पाया और नीचे सिर करके खड़ा रहा। मैंने एक-दो चीज़ें और बोली और फिर दोस्त के साथ बस से उतर गई। स्थिति लगभग एक जैसी थी पर इस बार मैंने ख़ुद उसका सामना किया।

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

बस से नीचे उतरकर मैं काफ़ी हल्का महसूस कर रही थी। एक तरह से अच्छा भी लगा कि ख़ुद के लिए तुरंत मैंने आवाज़ उठाई। हर बार की तरह बहुत बुरा महसूस नहीं हुआ और न ही मन में सवालों की लाइन लगी। अक्सर सार्वजनिक जगहों पर उत्पीड़न का सामना करने के बाद मैं खुद में उलझ जाती थी, उसने ऐसा किया तो मैंने कुछ किया क्यों नहीं। इस बार लगा कि अपने लिए मैं ख़ुद आवाज़ उठा सकती हूं। मुझे किसी पर निर्भर होने की ज़रूरत नहीं है।

नीचे उतरकर देखा तो दोस्त के चेहरे पर भी मुस्कान थी। उसने बताया कि ऐसी स्थिति में उसने अब तक मेरी मदद इसलिए नहीं की ताकि मैं ख़ुद इससे डील करना सीखूं। हिंसा के मामलों में खुद को कमज़ोर न महसूस करूं बल्कि सख़्ती से जवाब दूं। उस दिन मुझे एहसास हुआ कि मेरे दोस्त ने दरअसल एक बार मदद न करके मेरी बहुत ज़्यादा मदद की है। अगर वो उस दिन मदद करता तो शायद मैं हमेशा अपने आसपास वालों से हमेशा मदद की उम्मीद में रहती। ख़ुद कभी कुछ करने की कोशिश करती भी या नहीं। उसकी इस मदद के लिए मैं शुक्रगुज़ार हूं। खुद के लिए आवाज़ उठाकर मुझे बहुत खुशी मिली और खुद में मजबूती का एहसास भी हुआ।

इस घटना ने मेरे अवचेतन मन में बचपन से घर किए जेंडर रोल्स को भी तोड़ने का काम किया। मेरे साथ उस वक्त अगर कोई महिला मित्र होती तो शायद मैं उससे मदद की उम्मीद नहीं करती जितना की मैंने अपने पुरुष मित्र से की थी।

एक वो दिन था और अब मैं हर मुसीबत का डटकर सामना करती हूं। खुद के लिए आवाज़ उठाती हूं, अगर कोई मुझे परेशान कर रहा है तो उसके ख़िलाफ़ तुरंत एक्शन लेने की कोशिश करती हूं। कोशिश, इसलिए क्योंकि आप कितना भी ख़ुद को समझा लो, ताकत दे दो, मुश्किल को हल करने में वक्त लगता है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों, महिलाओं के साथ सार्वजनिक जगहों पर होने वाले उत्पीड़न के मामलों को छेड़खानी कहकर सीमित कर दिया जाता है, विक्टिम ब्लेमिंग की जाती है इसलिए हर बार लड़ाई लड़ना बहुत डिस्टर्बिंग होता है। आप कुछ पल के लिए तो एक सदमे में होते है या इतने सहम जाते है कि कुछ एक्शन तक नहीं हो पाता है। लेकिन अब मैं कोशिश करती हूं कि मजबूत होकर अपने स्पेस को क्लेम करूं और अपनी मौजूदगी को स्वतंत्र भी बनाऊं।

आज भी मैं सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट अधिकतर बस से ही सफ़र करती हूं तो मेरे लिए इस तरह की घटना बहुत आम है। पर अब मैं उन लोगों की लाइन से अलग हूं जो ख़ुद कोशिश न करे। इस घटना ने मेरे अवचेतन मन में बचपन से घर किए जेंडर रोल्स को भी तोड़ने का काम किया। मेरे साथ उस वक्त अगर कोई महिला मित्र होती तो शायद मैं उससे मदद की उम्मीद नहीं करती जितना की मैंने अपने पुरुष मित्र से की थी। मुझे समझ आया कि ऐसे मामलों में लड़के भी क्लूलेस हो सकते हैं कि उन्हें क्या करना है। वो भी सहम सकते हैं क्योंकि हम तब बच्चे ही तो थे। तो उस पर इतने उम्मीद का बोझ क्यों डालना? इस घटना ने मुझे काफ़ी हद तक बदलकर रख दिया। अब मैं इन मामलों में ख़ुद को थोड़ा और सशक्त महसूस करती हूं क्योंकि अगर अपने लिए आवाज़ न उठा सको तो किसी और के लिए बोलना और भी कठिन लगता है।


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