पीरियड्स एक जैविक शारीरिक क्रिया है लेकिन रूढ़िवादी सामजिक विचारधाराओं के कारण समाज में पीरियड्स को लेकर बहुत सी भ्रांतियां बन गयी हैं। इन्हीं मान्यताओं की वजह से बहुत सी जगहों पर जाना, पूजापाठ का सामान छूना आदि पीरियड्स के वक्त महिलाओं के लिए मना होता है। जैसे, पीरियड्स के समय लड़कियां किसी धार्मिक स्थान पर नहीं जा सकती, रसोई घर में जाना भी अधिकांश जगहों पर मना होता है। यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि हमारे समाज में मिथक और मान्यताओं का अनुकरण पढ़े-लिखे लोग भी करने लगते हैं जिसके कारण बहुत सारे अन्धविश्वास समाज में फलते-फूलते हैं और धीरे-धीरे जड़ हो जाते हैं। किसी भी समाज में अगर शिक्षित मनुष्य अन्धविश्वास या जाति-धर्म के भेदभाव पर आस्था रखते हैं तो यह उस समाज के लिए घातक होता है।
पिछले दिनों तमिलनाडु के कोयम्बतूर में एक निजी स्कूल में एक दलित बच्ची के साथ स्कूल के दुर्व्यवहार की खबर आई कि एक निजी स्कूल में परीक्षा देते समय एक दलित बच्ची को पहली बार पीरियड्स शुरू होने पर क्लास से बाहर निकाल दिया गया। स्कूल हमें न्याय समानता और अधिकार जैसे मूल्यों का अर्थ समझाता है और उसी स्कूल में एक बच्ची को पीरियड्स के समय क्लास से बाहर, सीढियों पर बैठकर परीक्षा देने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। हालांकि जब किसी बच्ची को पहली बार पीरियड्स आया, तो उसे प्यार, सहानुभूति पीरियड्स पर सही जानकारी और सहायता की जरुरत थी। लेकिन, न सिर्फ उसे बाहर निकाला गया बल्कि उसे कोई सहायता भी नहीं मिली। इस घटना के बाद अब स्कूल की प्रिंसिपल को निलंबित कर दिया गया है।
आमतौर पर उन घरों में जहां मैं काम करती हूं, काम करने के बाद मुझे चाय मिलती है और मैं फर्श पर बैठकर चाय पीतीं हूं। लेकिन, पीरियड्स के समय मुझे काम करने के बाद तुरंत घर जाने के लिए कह दिया जाता है।
पीरियड्स को लेकर पूर्वाग्रह और अंधविश्वास
पीरियड्स को लेकर भारतीय समाज जिन पूर्वाग्रहों और अंधविशवासों में अभी तक फंसा हुआ है, ये हैरान करने वाली बात है। ये पीरियड्स से जुड़ा अन्धविश्वास भी जाति और धर्म के पूर्वाग्रहों, मिथकों अदि से ही जुड़ा हुआ है। तमिलनाडु के कोयम्बतूर के निजी स्कूल से आई इस खबर पर ध्यान दें, तो ये महज पीरियड्स से जुड़ा भर मसला नहीं है ये जाति से जुड़ा मसला भी है। साल 2022 में राजस्थान के जालौर जिले में एक निजी स्कूल में एक दलित बच्चे ने अध्यापक के घड़े से पानी पी लिया, तो अध्यापक ने बच्चे को इतनी क्रूरता से पीटा कि बच्चे की जान चली गई। दलित छात्र तीसरी क्लास में पढ़ता था। इस पिटाई के बाद परिवार ने 23 दिन तक अलग-अलग जगह बच्चे को इलाज के लिए भर्ती करवाया लेकिन इलाज के दौरान ही उसकी मौत हो गई।

हमारा संविधान जहां जाति आधारित भेदभाव, छुआछूत को अपराध कहता है, वहीं ये समाज उस अपराध को लगातार करता चल आ रहा है। समाज के इन्हीं मानदंडों के कारण आमतौर पर जहां महिला को इस समाज का दोहरा सर्वहारा माना जाता है वहीं दलित स्त्री होना तिहरा सर्वहारा होना पड़ता है। पीरियड्स को लेकर हमारे भारतीय समाज में तमाम तरह के अन्धविश्वास मौजूद हैं। इसके कारण महिलाओं के साथ भेदभाव का व्यवहार होता है लेकिन अगर वो स्त्री दलित है तो यही समाज उसके लिए और निर्मम हो जाता है। इस विषय पर हमने फेमिनिज्म इन इंडिया की तरफ से कुछ महिलाओं और बच्चियों से बातचीत की। हमने जानने की कोशिश की कि पीरियड्स में क्या वे भेदभाव महसूस करते हैं। क्या उनके साथ जाति और धर्म के नाम पर छुआछूत किया जाता है और इन सभी कारकों के कारण उनके क्या अनुभव हैं।
गांव में नवरात्रि में कन्या पूजन के समय बहुत भेदभाव किया जाता है। एक बार मैं पड़ोस की एक महिला के यहां कन्यापूजन में चली गयी थी। खाते हुए उन्होंने मुझे खींचकर उठा दिया था जब उन्हें पता चला कि मुझे पीरियड्स होते हैं। मैं रोते हुए घर चली आयी थी।
पीरियड्स में ग्रामीण महिलाओं के अनुभव
उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले के बड़ेरी गांव की दलित महिला मंजू देवी कहती हैं, “मैं गांव के जिस घर में काम करती हूं वहां जब मेरा पीरियड्स आता है तो मुझे घर के भीतर आने के लिए मना कर दिया जाता है। उन दिनों मैं खेतों में काम करती हूं।’’ ये बात कितनी भेदभाव से भरी है कि जिस घर में दलित महिला मजदूर काम करती है, उस घर की महिलाएं भी पीरियड्स से गुजरती हैं। लेकिन मंजू को वही औरतें पीरियड्स के समय घर के भीतर आने से मना करती हैं। वहीं, बनारस की रहने वाली दुलारी देवी घरेलू कामगार है। पीरियड्स से जुड़े हमने उनसे उनके अनुभव पूछे तो वो गमगीन हो गयीं। वे बताती हैं, “आमतौर पर उन घरों में जहां मैं काम करती हूं, काम करने के बाद मुझे चाय मिलती है और मैं फर्श पर बैठकर चाय पीतीं हूं। लेकिन, पीरियड्स के समय मुझे काम करने के बाद तुरंत घर जाने के लिए कह दिया जाता है।” संभव है कि एक महिला को पीरियड्स के समय कई शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तकलीफ से गुजरना पड़े। उस समय उसे सहानुभूति और सहायता की जरूरत होती है।

लेकिन, समाज उसे अपमानित करता है, खासकर तब जब वो कोई असंगठित क्षेत्र में काम कर रही हो। इसी बातचीत के क्रम में फेमिनिज़म इन इंडिया की ओर से कुछ ग्रामीण और शहरी स्कूल और कॉलेज जाती लड़कियों से भी बातचीत की गई। इलाहबाद यूनिवर्सिटी की छात्रा सोनाली अपने अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, “यूनिवर्सिटी में लड़कियों की पीरियड्स से संबंधित सुविधा देने के लिए पिंक टायलेट नाम की बिल्डिंग बनाई गई है। उसमें लड़कियों को पीरियड के समय में आराम देने की सुविधा है। लेकिन उसमें पैड उपलब्ध नहीं है जबकि लड़कियों के लिए हर कॉलेज, स्कूल, सार्वजनिक शौचालयों में पैड की सुविधा देने का नियम है।” सोनाली बताती हैं कि एक बार उनकी दोस्त को [पीरियड्स शुरू हो गए और उनके पास पैड नहीं था। उन्हें पैड लेने के लिए बाहर काफी दूर चलकर जाना पड़ा क्योंकि यूनिवर्सिटी के पास ऐसी कोई दुकान नहीं थी जहां पैड मिल जाता।
पीरियड्स को लेकर गांव में सबसे खराब बात है कि उसे बहुत ज्यादा छुपाया जाता है। यहां हर कोई अपने घर की बच्ची के पीरियड्स होने को छुपाता है। इसी शर्म के कारण एक बार बचपन में मैं रातभर पीरियड्स में बिना पैड पड़ी रही क्योंकि मैं बाहर दादी के पास सोई थी। माँ अंदर दरवाजा बंद करके घर में सो रही थीं।
शर्म के कारण पीरियड्स को छुपाया जाता है
पीरियड्स के अपने अनुभव बताते हुए उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले के सुजानगंज गांव की छात्रा नेहा बताती हैं, “पीरियड्स को लेकर गांव में सबसे खराब बात है कि उसे बहुत ज्यादा छुपाया जाता है। यहां हर कोई अपने घर की बच्ची के पीरियड्स होने को छुपाता है। इसी शर्म के कारण एक बार बचपन में मैं रातभर पीरियड्स में बिना पैड पड़ी रही क्योंकि मैं बाहर दादी के पास सोई थी। माँ अंदर दरवाजा बंद करके घर में सो रही थीं। पैड अंदर रूम में था पर शर्म के कारण मैंने किसी से नहीं कहा और मैं रातभर बिना सेनेटरी पैड के रही और रोती रही। सुबह माँ को बताया तो उन्होंने मुझे दर्द की दवा दी और सेनेटरी पैड देकर कपड़े बदलवाए।” गांव में रहने वाली रागिनी भी अपने बचपन की एक घटना को बताते हुए उदास हो गयी। वह कहती हैं, “गांव में नवरात्रि में कन्या पूजन के समय बहुत भेदभाव किया जाता है। एक बार मैं पड़ोस की एक महिला के यहां कन्यापूजन में चली गयी थी। खाते हुए उन्होंने मुझे खींचकर उठा दिया था जब उन्हें पता चला कि मुझे पीरियड्स होते हैं। मैं रोते हुए घर चली आयी थी।”
वहीं महाराष्ट्र के नागपुर की रहने वाली माधुरी बताती हैं, “पीरियड्स के समय मैं घर की कोई चीज नहीं छूती हूं और जमीन पर सबसे अलग सोती हूं। घर का कोई सदस्य मुझे दूर से खाना देता है।” महाराष्ट्र में इसी तरह कई महिलाओं की बातचीत करने से पता चला कि वहां पीरियड्स को लेकर कई दकियानूसी मानदंड हैं जबकि दक्षिण में लड़कियों के पहली बार पीरियड्स होने पर परिवार और कुटुंब मिलकर उत्सव भी मनाते हैं। एक समतामूलक समाज के निर्माण में पीरियड्स और जाति-धर्म का भेदभाव को खत्म होना ही चाहिए। यह भेदभाव मनुष्य विरोधी ही नहीं बल्कि एक सामाजिक हिंसा और क्रूरता भी है।