हम सब आधुनिक मनुष्य हैं। आधुनिक कहने के पीछे की वजह इतनी है कि किसी चीज़ को तर्क की कसौटी पर कसकर देखते हैं। हम ऐसी किसी सत्ता को मानने से इंकार करते हैं जो तर्कसंगत न हो। हमारे पास नवजागरण की चेतना है। नवजागरण में हमने बहुत सारी विसंगतियों को पीछे छोड़ा। मसलन बाल विवाह पर रोक, सती प्रथा पर रोक। इन सब कुप्रथाओं में जो चीज़ निहित थी वह ये कि स्त्री की ‘पहचान’ को ही धूमिल कर देना। पर सवाल ये कि क्या हम वाकई उन कुप्रथाओं को पीछे छोड़ आये हैं जो स्त्री की पूरी पहचान को ही ख़ारिज करते हैं। यदा-कदा स्त्री के सती होने की खबरें कहीं-कहीं से सुनाई देती रहती हैं।
वरिष्ठ कथाकार संजीव ने सती प्रथा की पड़ताल करते हुए एक उपन्यास लिखा है। शीर्षक ‘मुझे पहचानो’ बहुत मानीखेज है। जैसे एक उद्घोषणा। अपनी पहचान की उद्घोषणा। इस उपन्यास के लिये संजीव को वर्ष 2023 का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। हालांकि ये उनको पहले ही मिल जाना चाहिए था। लेकिन अकादमियों की राजनीति ने आखिरकार उन्हें ‘पहचाना।’ जो लोग मेहनतकश हैं, दिन भर खटते हैं उनके लिये इस दुनिया में कुछ नहीं रखा है। यहाँ सत्य को अंधविश्वास ने जकड़ रखा है। प्रक्रिया जुगाड़ के कब्जे में है। तमाम तरह की सत्ता फिर चाहे वो राजनीति की हो या धर्म की, सबने मिलकर आम इंसान को कहीं का नहीं छोड़ा है। जो लोग ईमानदारी से काम करते हैं उनके लिये यहां कोई जगह नहीं है। संजीव लिखते हैं, “समूची दुनिया का कारोबार ऐसे-ई चल रहा है प्यारे! भाग्य, भगवान, सट्टेबाजी, जुआ में बिना मेहनत किये अमीर बनने का ख्वाब पाले हुए हरामखोरों की नस्ल। सीधे-सादे मेहनत करने लोगों और काबिल लोगो! एड़ियां घिस-घिस कर मर जाओ, ‘महाभारत’ काल से लेकर ‘कौन बनेगा करोड़पति काल’ तक। यही चर्चा है। भाग्य फलति, न च विद्या न च पौरुषम्।”
यह उपन्यास मिथकों के सहारे अपनी कथा कहता है। लोग और जगह दोनों मिथक में तब्दील हो चुके हैं। उपन्यास में चित्रित ‘रतनापट्टी’ ऐसी जगह है जहां कहा जाता है कि यहां अमूल्य रत्न जमीन के अंदर दबे पड़े हैं। इसको पुष्ट करने के लिए अफवाहें उड़ाई जाती हैं। किसी को कभी कोई रत्न नहीं मिला। लेकिन ये विश्वास अफवाह के जरिये बनाया गया। इसमें रियासत का फायदा था। बंजर पड़ी जमीनें जिनकी ऐसे तो कोई कीमत नहीं थी, रत्नों के चलते लाखों में बिक रही थी। दूसरे तरह का मिथक उन औरतों को लेकर है जिनको सती किया गया। कहा जाता है कि वे सीधे ‘स्वर्ग’ गईं। दरअसल सत्ता इन मिथकों के सहारे अपनी ज़रूरतें पूरी कर रही होती है। ये सब वर्चस्व के लिए गढ़ा जाता है। कभी ये वर्चस्व आर्थिक होता है तो कभी सामाजिक। मौजूदा दौर को हम गौर से देखें तो बहुत सारे मिथक हमारे सामने मौजूद हैं। मिथकों को कभी मिथक बनाकर पेश नहीं किया जाता है। उसे हमेशा इतिहास बताया जाता है। मिथकों की विश्वसनीयता इतिहास कहे जाने में ही है।
राजसत्ता जब भी अपना गौरवपूर्ण इतिहास बताती हैं तो पुरुषों के गुणगान के सिवा कुछ नहीं आता है। स्त्रियों की चर्चा आती है तो उसके ‘बलिदान’ के लिए। कैसे मुसलमानों से बचने के लिए रानी ने ‘जौहर’ कर दिया। जीवित स्त्री की कोई स्वतंत्र स्मृति इस तंत्र में नहीं रही है। पुरुष जो विवाहेत्तर संबंध रखते हैं और उस पर गर्व भी करते रहे हैं। औरतें उनके लिए पर्दे का विषय हैं। संजीव लिखते हैं, “अव्वल तो राजकुमारियां जन्म ही नहीं ले पातीं, जन्म ले भी लिया तो जी नहीं पातीं और जी भी गयीं, जैसे अभी लाल साहब की एक है, तो उसे काफ़ी परदे में रखा जाता है।”
औरत की पूरी पहचान को उसके शरीर तक सीमित कर दिया जाता है। उसके जीवन को कैद करने का पहला प्रयास विवाह होता है। ससुराल वाले कितना भी कहते रहें कि आगे की पढ़ाई कर सकती हो, पर ये लगभग न के बराबर होता है। उपन्यास की मुख्य पात्र सावित्री आगे पढ़ाई करना चाहती थी। लेकिन एक कार्यक्रम में छोटे कुँवर की ‘नज़र’ उस पर पड़ गई। यहीं से उसके नारकीय जीवन की शुरुआत हो गई। उपन्यास में संजीव लिखते हैं, “तो यहां नाम लिखवाया कुँवर ने किसी कॉलेज में?” “कॉलेज! हुँह जैसे भूखा कुत्ता भभोड़ता है, उसी तरह भभोड़ता रहा हमें।”
लाल साहब की माँ ‘निम्न कुल’ से थीं। लाल साहब और उनकी पत्नी उनके नाम से भी लगातार नफ़रत करते रहे। उनकी माँ का निम्न कुल से होना उनके लिए ‘दाग़’ बन गया था। संजीव लिखते हैं, “नीच कुल और कुलदेवी! कैसा विचित्र विरोधाभास है। रानी साहिबा बिदक रहीं थीं और बाकी औरतें पूजा करने जा रही थीं! इस समाज ने स्त्री को या तो देवी बना दिया या फिर सेक्स वर्कर। उसे कभी सामान्य जीवन नहीं मिला। जो औरतें सती हो गईं वो इस समाज के लिये पूजनीय हो गईं। जीवित स्त्री का इस समाज में कोई मोल नहीं।
धर्म की विसंगतियों पर चोट करते हुए संजीव ने लिखा है कि सती मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। अब सबसे ज्यादा पैसा यहीं से आयेगा। इस मंदिर निर्माण से जुड़े तमाम लोग महत्वपूर्ण पदों के लिए झगड़ रहे हैं। सवाल धार्मिक रह ही नहीं गया है। इसके केंद्र में मोटा पैसा है। हजारों करोड़ का बाज़ार। राम मंदिर निर्माण के समय की घटनाओं को याद कीजिए। लगेगा हूबहू यही तो वहाँ भी हो रहा था। कौन ‘सच्चा’ धर्माचार्य है इसकी बहस हो रही थी। उपन्यास के रचनाकाल को देखकर लगता है कि संजीव के ज़हन में ज़रूर यह सब रहा होगा।
सती होने को आज भी बहुत गौरव के साथ बतलाया जाता है। ख़ासतौर पर यथास्थिति बनाये रखने वाले पुरुष स्त्रियों को उनका ‘कर्तव्य’ बताने के लिए यह सब करते हैं। पर सवाल यह है कि क्या स्त्रियाँ वाकई सती होना चाहती थीं? उन औरतों का पक्ष कभी नहीं सामने आया। इस सांगठनिक हत्या के लिये जयकारे लगाये जाते रहे हैं। संजीव लिखते हैं, “आमतौर पर लोग सोचते हैं कि सावित्री कुँअर को उन्होंने नहीं मारा। वह तो स्वेच्छा से सती हो गई। जो शामिल थे वो भी। बल्कि ज्यादातर लोग इसे मर्डर नहीं, पुण्य का काम समझते हैं।”
उपन्यास में राममोहन राय की भाभी का ज़िक्र आया है। कहते हैं कि वे एक बार में नहीं जली थीं, उन्हें दोबारा जलाया गया। क्रूरता की सारी हदें पार कर दी गई थीं। यह उपन्यास उनको ही केंद्र में रखकर लिखा गया है। सती करने की इस क्रूरता का संजीव लेखक जे पेग्स के हवाले से वर्णन करते हैं, “कहीं भाग न जाएँ, सो औरत को मृत पति के साथ बाँध दिया जाता था, फिर भी कुछ भाग जातीं अतः बाँसों से दबाकर जलती स्त्री को तब तक रखा जाता, जब तक जल न जाए।”
औरत चीखती रहती और उस चीख को खत्म करने के लिए लगते रहे धर्म के उन्मादी नारे। एक जीवित औरत को ख़त्म करके बचा लिया जाता धर्म। सावित्री कुँअर जिसके नाम पर सती मंदिर बन रहा है। वो सावित्री कुँअर जो जलती चिता से किसी तरह बच निकली थी। पर अब उसकी पहचान नहीं है। उसके जीवित होने से कोई फायदा नहीं है। सिवाय धार्मिक लोगों के लिए एक ‘कलंक’ के सिवा। वो सावित्री कुँअर सामने खड़ी है। लेकिन कोई उसे पहचान नहीं रहा है।
इस उपन्यास की पूरी संवेदना यहाँ उतर आती है जब संजीव लिखते हैं, “पहचानिये मुझे, जिसे उसके जन्मदाता पिता ने नहीं पहचाना, जन्मदात्री माँ ने नहीं पहचाना, रियासतदारों ने नहीं पहचाना – पहचानिये मुझे। डी.एन.ए. मिला कर देख लीजिए। एक लंबी जंजीर घेर रही है हम अलोकाओं को। हाँ, मैं आलोक मंजरी हूँ, राजा राममोहन राय की भाभी, जिसे उनके पति जगन्मोहन बैनर्जी की मौत पर मार-पीट कर सती बनाया गया था, आँधी, पानी झड़-झंझा की रात सुबह देखा कि मरी नहीं है तो गाँव वालों ने दोबारा जलाया।” संजीव ने स्त्रियों की पहचान के संकट को इस उपन्यास में व्यस्त करने में सफल हुए हैं। उन्होंने धर्म की नैतिकता को उघाड़ा है।