समाजपर्यावरण सघन वनों में बढ़ोत्तरी, लेकिन मध्यम और खुले वनों में गिरावट: रिपोर्ट

सघन वनों में बढ़ोत्तरी, लेकिन मध्यम और खुले वनों में गिरावट: रिपोर्ट

दिसंबर 2024 में जारी ISFR रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत का कुल वन और वृक्ष आवरण अब बढ़कर 8,27,357 वर्ग किमी. तक पहुंच गया है। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 25 फीसद है।

साफ हवा और पानी धरती पर मौजूद किसी भी जीव के जीवन के लिए मूलभूत जरूरतें हैं। इसके लिए पेड़-पौधे सबसे ज़्यादा महत्त्व रखते हैं। पर्यावरणीय और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए किसी भी क्षेत्र में 33 फीसद वन आवरण होना ज़रूरी है। लेकिन यह एक आदर्श स्थिति है जिसके लिए लंबे समय से प्रयास किये जा रहे हैं। फिर भी अभी देश के सभी हिस्सों में यह लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया है। देश के वन आवरण की स्थिति को जानने के लिए हर 2 साल के गैप पर देश के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वन सर्वेक्षण कर उसकी रिपोर्ट ज़ारी की जाती है। हाल ही में इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (ISFR) 2023 जारी की गई है, जिसमें पता चला है कि भारत ने इस दिशा में प्रगति तो दिखाई है, लेकिन इसके साथ ही नई चुनौतियां भी सामने आई हैं।

क्या बताती है इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट  

दिसंबर 2024 में जारी ISFR रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत का कुल वन और वृक्ष आवरण अब बढ़कर 8,27,357 वर्ग किमी. तक पहुंच गया है। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 25 फीसद है। इसमें वन आवरण का क्षेत्रफल लगभग 7,15,343 वर्ग किमी. यानी 21.76 फीसद है, जबकि वृक्ष आवरण का क्षेत्रफल 1,12,014 वर्ग किमी. यानी 3.41 फीसद है। ISFR की 2021 में ज़ारी रिपोर्ट से अगर इसकी तुलना की जाए तो इसमें 1,445.8 वर्ग किमी. की बढ़ोत्तरी हुई है। इसमें वन आवरण में 156 वर्ग किमी. तथा वृक्ष आवरण में 1289 वर्ग किमी की बढ़ोत्तरी शामिल है। रिपोर्ट से यह भी पता चला है कि अब तक देश के महज 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ही 33 फीसद से अधिक वन क्षेत्र वाला लक्ष्य हासिल हो पाया है। इनमें से आठ राज्यों मिजोरम, लक्षद्वीप, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा और मणिपुर में 75 फीसद से अधिक वन क्षेत्र हैं। हालांकि पहले की तुलना में स्थिति अब बेहतर है, इसके बावजूद अभी देश भर में 33 फीसद वनावरण के लक्ष्य को हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर काम किया जाना बाकी है।

चिंताजनक बात यह है कि मध्यम और खुले वनों में कमी पाई गई है। ISFR 2023 की रिपोर्ट में मध्यम घनत्व वाले वनों में 1,234.9 वर्ग किमी. और खुले वनों में 1,128.2 वर्ग किमी. की कमी देखी गई है। सभी प्रकार के वन पर्यावरण और जैव विविधता के लिए महत्त्व रखते हैं।

देश की क्षेत्रीय विविधताएं

तस्वीर साभार: Mongabay

भारत पर्यावरण की दृष्टि से विविधताओं से भरा हुआ देश है। यहां पर्वत, पठार मैदान से लेकर गर्म और ठंडे रेगिस्तान सब कुछ मौजूद हैं। हालिया रिपोर्ट में छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्यों ने वन और वृक्ष आवरण में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की है। इसमें भी छत्तीसगढ़ ने 684 वर्ग किमी. की बढ़ोत्तरी के साथ मिसाल कायम की है। यह नतीजा इन राज्यों में वृक्षारोपण और वन संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों को दिखाता है। ग़ौरतलब है कि क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे अधिक वन क्षेत्र वाले शीर्ष तीन राज्य मध्य प्रदेश (77,073 वर्ग किमी.), अरुणाचल प्रदेश (65,882 वर्ग किमी) और छत्तीसगढ़ (55,812 वर्ग किमी) हैं। लेकिन मध्य प्रदेश, कर्नाटक, लद्दाख और नागालैंड जैसे राज्यों में वन क्षेत्र में गिरावट देखी गई है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत के सबसे बड़े वन क्षेत्र वाले राज्य मध्य प्रदेश के वन आवरण में गिरावट चिंता का विषय है। यहां वनों की कटाई, अंधाधुंध शहरीकरण, बेलगाम खनन जैसी गतिविधियां इसके लिए ज़िम्मेदार हो सकती हैं। हालांकि लद्दाख जैसे कम आबादी वाले क्षेत्र में वनावरण में गिरावट के लिए जलवायु परिवर्तन एक बड़ी वजह है।

बढ़ते वन और घटती गुणवत्ता

हालिया रिपोर्ट में पाया गया है कि अति सघन वन में 2,431.5 वर्ग किमी. की बढ़ोत्तरी पाई गई है। यह एक अच्छी ख़बर है, क्योंकि सघन वन कार्बन कम करने में मददगार होते हैं और इस तरह से जैव विविधता को बनाए रखने में योगदान देते हैं। लेकिन यहां चिंताजनक बात यह है कि मध्यम और खुले वनों में कमी पाई गई है। ISFR 2023 की रिपोर्ट में मध्यम घनत्व वाले वनों में 1,234.9 वर्ग किमी. और खुले वनों में 1,128.2 वर्ग किमी. की कमी देखी गई है। सभी प्रकार के वन पर्यावरण और जैव विविधता के लिए महत्त्व रखते हैं। मध्यम और खुले वनों की कमी से पर्यावरण संतुलन प्रभावित होता है जिस वजह से इन क्षेत्रों में रहने वाले वन्यजीवों और स्थानीय समुदाय के लोगों पर भी असर पड़ता है। आंकड़ों के साथ-साथ गुणवत्ता पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए, तभी असली तस्वीर सामने आ पाएगी।

हाल ही में वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 में वन की परिभाषा में कुछ बदलाव किए गए। इसमें 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के दायरे को कम कर दिया गया है। हालांकि सरकार का दावा है कि इस संशोधन अधिनियम का उद्देश्य वनों के संरक्षण संबंधी नियमों को मजबूत बनाना है लेकिन न्यायालय और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने इस अधिनियम की आलोचना भी की है।

पर्यावरण पर प्रभाव, नीतियां और कार्यक्रम 

वन और पेड़ न केवल पर्यावरण के संतुलन में सहायक है बल्कि जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्या के समाधान में भी अहम भूमिका निभाते हैं। वन कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते हैं जिससे ग्लोबल वॉर्मिंग के असर को कम करने में सहायता मिलती है। इसके साथ ही मृदा संरक्षण को बढ़ावा देकर धरती को उपजाऊ बनाए रखने में भी वनों की ख़ास भूमिका है। वन न केवल संसाधन की दृष्टि से बल्कि समावेशी विकास के लिए भी आवश्यक हैं। वन आवरण वन में रहने वाले स्थानीय निवासियों के जीवन का मूल आधार होते हैं। इसके अलावा वन्यजीवों की रक्षा और जैव विविधता बनाए रखने में भी मददगार साबित होते हैं। देश के वनों के संरक्षण के लिए वन संरक्षण अधिनियम 1980 लागू किया गया है। इसमें सरकार की पूर्व अनुमति के बिना वनों और वन संसाधनों के उपयोग पर रोक लगाई गई है। इसमें वन भूमि और संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग पर भी अंकुश लगाने की बात भी की गई है।

तस्वीर साभार: Scroll.in

इसके साथ ही अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी अधिनियम 2006 के तहत वन में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के वन क्षेत्रों पर उनके अधिकारों को मान्यता दी गई है। इन सारी नीतियों का उद्देश्य वनों और वनों पर आश्रित समुदायों के हितों की रक्षा करना है। हाल ही में वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 में वन की परिभाषा में कुछ बदलाव किए गए। इसमें 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के दायरे को कम कर दिया गया है। हालांकि सरकार का दावा है कि इस संशोधन अधिनियम का उद्देश्य वनों के संरक्षण संबंधी नियमों को मजबूत बनाना है लेकिन न्यायालय और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने इस अधिनियम की आलोचना भी की है।

स्थानीय स्तर पर वृक्षारोपण, अवैध कटाई पर नियंत्रण और वनों के संरक्षण के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार के साथ-साथ देश के नागरिकों की भागीदारी भी ज़रूरी है।

इनका मानना है कि इसमें ‘वन’ की परिभाषा और दायरे को कमजोर किया गया है। इसमें पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए विकास का दावा किया जा रहा है। इसके तहत जब औद्योगिक या विकास कार्यों की वजह से वन क्षेत्र को उपयोग में लाया जाएगा तो उतना ही वृक्षारोपण किसी दूसरे क्षेत्र में करना अनिवार्य होगा। ऊपरी तौर पर तो यह सामान्य बात लगती है लेकिन अगर गहराई से देखा जाए तो इससे पूरी तरह से भरपाई नहीं हो पाती है। क्षेत्र विशेष की मिट्टी, जलवायु, खनिज तत्त्व, संरचना अलग होती है जिस वजह से वहां रहने वाले जीव-जंतुओं और पेड़ पौधों का विकास संभव हो पाता है। पूरे के पूरे पारिस्थितिक तंत्र को एक जगह से दूसरी जगह ले जा पाना मुमकिन नहीं होता है। इस तरह से पर्यावरण के साथ पारिस्थितिक तंत्र को भी नुकसान पहुंचता है।

अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी अधिनियम 2006 के तहत वन में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के वन क्षेत्रों पर उनके अधिकारों को मान्यता दी गई है।

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क्या हो सकता है आगे का रास्ता

नीतिगत सुधारों के साथ-साथ स्थानीय समुदायों की भागीदारी भी जरूरी है। स्थानीय स्तर पर वृक्षारोपण, अवैध कटाई पर नियंत्रण और वनों के संरक्षण के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार के साथ-साथ देश के नागरिकों की भागीदारी भी ज़रूरी है। सबसे पहले तो वनावरण वाले क्षेत्र की पहचान करना और उनकी देखभाल सुनिश्चित करना ज़रूरी है। पेड़ लगाने के साथ-साथ उनकी उचित देखभाल भी ज़रूरी है, क्योंकि अभियान के तहत बहुत बार बड़ी संख्या में पेड़ तो लगाए जाते हैं लेकिन उनकी देखभाल न होने से वे जल्द ही बर्बाद हो जाते हैं।

इसके लिए सामुदायिक भागीदारी एक अच्छा कदम साबित हो सकती है। सरकार के स्तर पर पर्यावरण के अनुकूल नीतियां, योजनाएं और विकास कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए। यह रिपोर्ट भारत के वनावरण की एक जटिल तस्वीर सामने रखती है। एक तरफ तो जहां सघन वन और वृक्ष आवरण में बढ़ोत्तरी देखी गई है, वहीं मध्यम घनत्व वाले वन और खुले वनों में गिरावट चिंता का विषय है।  वनों का संरक्षण केवल पर्यावरण के लिए भी नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी बेहद ज़रूरी है। सरकार को इसके लिए नीतिगत सुधार लागू करते समय प्राकृतिक संसाधनों और स्थानीय समुदायों के बीच संतुलन बनाना चाहिए। समावेशी और हरित विकास ही स्वस्थ और सुरक्षित भविष्य की नींव डाल सकता है।

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