समाजपर्यावरण विकास की कीमत: उत्तराखंड में बढ़ते प्रदूषण का सच

विकास की कीमत: उत्तराखंड में बढ़ते प्रदूषण का सच

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2021-22 में हिमालयी राज्य में प्लास्टिक कचरे का ढेर 45,000 टन तक बढ़ गया है। कोविड महामारी से पहले के सालों में कुल प्लास्टिक कचरा उत्पादन 35,000 टन था और केवल तीन वर्षों के अंतराल में 45 फीसद वृद्धि देखी गई है।

प्रदूषण एक ऐसा खतरा है जो मानव जीवन के साथ-साथ वन्यजीवन को भी खत्म करने की शक्ति रखता है। भले ही वो वायु प्रदूषण हो, जल प्रदूषण हो, ध्वनि प्रदूषण हो या किसी भी अन्य प्रकार का प्रदूषण। उत्तराखंड, जिसे प्रकृति की गोद में बसा राज्य कहा जाता है, अपने सुंदर पहाड़ों, नदियों और हरियाली के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन इस स्वर्ग जैसे राज्य के शहर और गांव आज प्रदूषण की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। चाहे वह औद्योगिक गतिविधियों का असर हो, वाहन प्रदूषण हो या जंगलों की आग, प्रदूषण की समस्या ने यहां के जनजीवन और पर्यावरण को प्रभावित करना शुरू कर दिया है।

एक हालिया 2023 में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की जारी रिपोर्ट के अनुसार चारों धामों के प्रवेशद्वार ऋषिकेश में वायु गुणवत्ता सबसे खराब दर्ज की गई है। यहां एक्यूआई स्तर 147.88 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर पाया गया। वहीं उत्तराखंड के जंगलों में अक्सर लगने वाली आग पहाड़ों की हवा को दूषित करती है। जहां पहले वातावरण में दो माइक्रोग्राम तक कार्बन पाया जाता था, वहीं जंगलों में लगी आग के कारण वह 16 माइक्रोग्राम तक पहुंच गया है। जंगलों में लगी आग का असर ऋषिकेश और काशीपुर तक में देखने को मिल रहा है। एक ओपन-सोर्स जियोस्पेशियल डेटा का उपयोग करके, उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में जनवरी और अप्रैल 2021 के बीच हुई भीषण आग की घटना का विश्लेषण किया गया।

आजकल हर कोई चाहता है कि उनके द्वारा फैलाया गया कचरा कोई और साफ करे। अगर किसी से कुछ कह दिया जाए तो तो सबको गुस्सा आने लगता है। अगर प्रदूषण से मुक्ति चाहिए तो खुद में बदलाव लाना होगा। अगर आजकल की पीढ़ी खुद को बदल लेगी, तो पर्यावरण खुद ही साफ हो जाएगा।

इसके अनुसार यह पाया गया कि कुल जलाए गए क्षेत्र का 21.75 फीसद मध्यम से उच्च तीव्रता के साथ जला, जिसके कारण मृदा समायोजित वनस्पति सूचकांक मूल्य में कमी, सामान्यीकृत विभेदक नमी सूचकांक मूल्य में कमी और सामान्यीकृत विभेदक वनस्पति सूचकांक में कमी हुई। एल्गोरिदम ने अनुमान लगाया कि कुमाऊं के जंगलों में प्रति हेक्टेयर 17.56 टन बायोमास जला। इस आग की घटना के कारण कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड और फॉर्मेल्डिहाइड का उत्सर्जन बढ़ गया।

बढ़ते प्रदूषण के कारण 

बढ़ती आबादी, शहरीकरण, पर्यटन, और औद्योगिकीकरण ने इस राज्य के पर्यावरण और स्थानीय लोगों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है। काशीपुर में पिछले 30 साल से रह रहे 60 वर्षीय महेंद्र के अनुसार, शहर में बढ़ते प्रदूषण की जिम्मेदार आजकल की पीढ़ी है। फेमिनिज़म इन इंडिया से बातचीत के दौरान वो कहते हैं, “आजकल हर कोई चाहता है कि उनके द्वारा फैलाया गया कचरा कोई और साफ करे। अगर किसी से कुछ कह दिया जाए तो तो सबको गुस्सा आने लगता है। अगर प्रदूषण से मुक्ति चाहिए तो खुद में बदलाव लाना होगा। अगर आजकल की पीढ़ी खुद को बदल लेगी, तो पर्यावरण खुद ही साफ हो जाएगा।” उत्तराखंड में प्रदूषण के कई स्रोत हैं, जो शहरों और गांवों में अलग-अलग रूप में दिखाई देते हैं। उत्तराखंड के प्रमुख शहर जैसे देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी, रुद्रपुर और काशीपुर, औद्योगिक और शहरीकरण के कारण तेजी से प्रदूषित हो रहे हैं।

रिपोर्ट अनुसार साल 2005 में उत्तराखंड 2019 में चमोली और पिंडारी घाटी (बागेश्वर) में और उसके आसपास गैर-बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पादन के बारे में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए थे। चमोली और पिंडारी में कुल उत्पन्न अपशिष्ट का गैर-बायोडिग्रेडेबल अपशिष्ट 84.5 और 66.4 फीसद था। गांवों में प्लास्टिक का अनियंत्रित उपयोग भी एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है।

नॉन-बायोडिग्रेडेबल वेस्ट और प्लास्टिक का बढ़ता बोझ

तस्वीर साभार: The New Indian Express

देहरादून जैसे शहरों में वाहनों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वाहन उत्सर्जन के कारण वायु प्रदूषण के स्तर में भारी वृद्धि हो रही है। हरिद्वार और काशीपुर जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआँ और रासायनिक कचरा वायु और जल प्रदूषण का मुख्य कारण है। विशेष रूप से काशीपुर में कई उद्योग स्थापित हैं, जिनसे निकलने वाला अपशिष्ट रामगंगा नदी और भूजल को प्रदूषित कर रहा है। खाद्य पदार्थों, पेय पदार्थों, मिनरल ड्रिंकिंग वाटर की बोतलों आदि की पैकेजिंग में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक जैसे गैर-जैवनिम्नीकरणीय अपशिष्ट शहरी और उत्तराखंड के दूरदराज के पहाड़ी इलाकों में बहुत आम ठोस अपशिष्ट हैं। ये अपशिष्ट बायोडीग्रेडएबल नही हैं और अगर जलाए जाते हैं, तो पर्यावरण में हानिकारक रसायन/गैस छोड़ते हैं। रिपोर्ट अनुसार साल 2005 में उत्तराखंड 2019 में चमोली और पिंडारी घाटी (बागेश्वर) में और उसके आसपास गैर-बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पादन के बारे में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए थे।

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2021-22 में हिमालयी राज्य में प्लास्टिक कचरे का ढेर 45,000 टन तक बढ़ गया है। कोविड महामारी से पहले के सालों में कुल प्लास्टिक कचरा उत्पादन 35,000 टन था और केवल तीन वर्षों के अंतराल में 45 फीसद वृद्धि देखी गई है।

चमोली और पिंडारी में कुल उत्पन्न अपशिष्ट का गैर-बायोडिग्रेडेबल अपशिष्ट 84.5 और 66.4 फीसद था। गांवों में प्लास्टिक का अनियंत्रित उपयोग भी एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2021-22 में हिमालयी राज्य में प्लास्टिक कचरे का ढेर 45,000 टन तक बढ़ गया है। कोविड महामारी से पहले के सालों में कुल प्लास्टिक कचरा उत्पादन 35,000 टन था और केवल तीन वर्षों के अंतराल में 45 फीसद वृद्धि देखी गई है। टाइम्स ऑफ इंडिया की इस रिपोर्ट अनुसार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि प्लास्टिक कचरे में वृद्धि मुख्य रूप से उत्तराखंड, विशेष रूप से ऋषिकेश और हरिद्वार आने वाले पर्यटकों की अस्थिर आबादी के कारण है। चार धाम तीर्थयात्रियों से लेकर कांवड़ियों तक, सभी प्लास्टिक कचरे में बढ़ोतरी में योगदान दे रहे हैं।

जंगलों में आग की समस्या

तस्वीर साभार: Hindustan Times

उत्तराखंड के गांवों में प्रदूषण मूल रूप में पर्यावरणीय बदलावों और अनियंत्रित गतिविधियों का परिणाम है। हर साल गर्मियों के मौसम में उत्तराखंड के जंगलों में आग लगना एक आम घटना है। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में 2024 के पहले 4 महीनों में ‘मानव निर्मित’ जंगल की आग के 146 मामले दर्ज किए गए हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, उत्तराखंड में 23 अप्रैल से 25 ​​अप्रैल तक 113 जंगल आग की घटनाएं हुईं। 23 अप्रैल को 46, 24 अप्रैल को 13 और 25 अप्रैल को 54 आग की घटनाएं दर्ज की गईं। इन 3 दिनों में ही 139.63 हेक्टेयर से ज़्यादा वन भूमि नष्ट हो गई। 1 नवंबर 2023 से 25 अप्रैल 2024 तक उत्तराखंड में जंगल में आग लगने की 544 घटनाएं सामने आईं, जिनमें 656.55 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि नष्ट हो गई। कुल क्षतिग्रस्त भूमि में से 234.45 हेक्टेयर गढ़वाल क्षेत्र में, 370.45 हेक्टेयर कुमाऊं क्षेत्र में और 51.65 हेक्टेयर प्रशासनिक वन्यजीव क्षेत्रों में थी।

हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में 2024 के पहले 4 महीनों में ‘मानव निर्मित’ जंगल की आग के 146 मामले दर्ज किए गए हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, उत्तराखंड में 23 अप्रैल से 25 ​​अप्रैल तक 113 जंगल आग की घटनाएं हुईं।

जंगलों में बढ़ते आग के कारण प्रदूषण

जंगलों में लगने वाली आग के कारण राज्य में वायु प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है, जिससे सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि जंगली प्रजातियाँ भी प्रभावित होती है। जंगलों में लगी आग के कारण कई लोगों को अपने जीवन से हाथ तक धोना पड़ जाता है। द हिन्दू की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में 13 जून को आग बुझाते समय वन विभाग के चार कर्मचारियों की मौत हो गई, वहीं चार अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए थे। नवंबर 2023 से शुरू हुए इस सीजन में उत्तराखंड में जंगल में आग लगने की 1,220 घटनाएं हुई हैं।

इस साल आग में 1,675 हेक्टेयर वन भूमि जल गई और 10 लोगों की जान चली गई। विभिन्न शोध और रिपोर्ट बताते है कि, उत्तराखंड में 2024 में भारत में सबसे अधिक जंगल की आग की शिकायत दर्ज की गई है। उत्तराखंड के जंगलों में आग की समस्या एक गंभीर चुनौती बन चुकी है, जो पर्यावरण, जनजीवन और अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रही है। जंगलों की आग को रोकने के लिए सरकार, स्थानीय प्रशासन और समुदायों के बीच एकजुटता जरूरी है। आधुनिक तकनीक और जन जागरूकता अभियानों के माध्यम से इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है।

उत्तराखंड में साफ जल की कमी और वायु प्रदूषण

तस्वीर साभार: Business Standard

वायु और जल प्रदूषण विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दे हैं। हालांकि, उत्तराखंड में अच्छा वायु गुणवत्ता सूचकांक देखा गया था, लेकिन विभिन्न स्रोतों से ग्रीन हाउस गैसों (GHG) का अनियंत्रित और निरंतर उत्सर्जन गंभीर पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर सकता है। CPCB ने गंगा नदी के जलग्रहण क्षेत्र में 138 नालों की सूची बनाई और उनकी निगरानी की, जहां प्रदूषण का 76 फीसद हिस्सा उत्तर प्रदेश का योगदान था। वहीं उत्तराखंड में हिमालय से निकलने वाली अधिकांश नदियां उद्गम के पास अप्रदूषित हैं। कठोरता और मैलापन धीरे-धीरे नीचे की ओर के क्षेत्रों में बढ़ रहा है, लेकिन ज्यादातर उत्तराखंड में स्वीकार्य सीमा के अंतर्गत पाया गया है। वैश्विक अनुमान के अनुसार, 17 फीसद आबादी पानी की कमी से जूझ रही है। यह कमी तेजी से बढ़ती आबादी का नतीजा है, जिसके कारण औद्योगिक और कृषि क्षेत्रों में पानी की मांग बढ़ रही है।

उत्तराखंड में प्रदूषण की समस्या एक गंभीर चुनौती बन चुकी है, जो प्राकृतिक सुंदरता, पर्यावरण और जनजीवन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रही है। औद्योगिक और शहरीकरण गतिविधियां, अनियंत्रित पर्यटन, प्लास्टिक कचरे की बढ़ती मात्रा, और जंगलों में आग जैसी समस्याएं राज्य की प्राकृतिक धरोहर और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं। इस समस्या का समाधान सामूहिक प्रयासों से ही संभव है। सरकार, उद्योगों, स्थानीय समुदायों और पर्यटकों को मिलकर जागरूकता अभियान चलाने, सतत विकास के सिद्धांतों को अपनाने, और स्वच्छता को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। तकनीक और नीतिगत हस्तक्षेप के माध्यम से जंगलों में आग की घटनाओं को रोकने और प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिए ठोस कदम उठाए जा सकते हैं। उत्तराखंड की प्राकृतिक संपदा को बचाने के लिए यह जरूरी है कि हम पर्यावरण संरक्षण को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएं। जागरूक नागरिकों और जिम्मेदार प्रशासन के सहयोग से ही इस राज्य को फिर से ‘देवभूमि’ का गौरव मिल सकता है।

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