सभी फसलों के लिए कानूनी रूप से गारंटीकृत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मांग को लेकर पंजाब और हरियाणा की सीमा पर खनौरी और शंभू में आंदोलन कर रहे किसान एक बार फिर चर्चा का विषय बन गए हैं। ये और भी महत्वपूर्ण विषय इसलिए है क्योंकि भारतीय किसान यूनियन (सिद्धूपुर) के नेता जगजीत सिंह दल्लेवाल का आमरण अनशन पूरे देश की खबरों में सुर्खियां बन चुकी है। किसान आंदोलन में 70 वर्षीय किसान नेता दल्लेवाल नवंबर 2024 से भूख हड़ताल पर बैठे हैं। करीब 40 दिनों से ज्यादा से वह सरकार से किसानों की मांगों को मानवाने के लिए अनशन पर है। 70 वर्षीय दल्लेवाल कैंसर रोगी हैं और 26 नवंबर से खनौरी में अनशन पर हैं। उनके बिगड़ते स्वास्थ्य पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई थी और उनके लिए चिकित्सकीय सहायता लेने के लिए आग्रह किया था। साथ ही, अदालत ने इस तरह के विरोध के उनके अधिकार का सम्मान किया था। हाल के दिनों में आंदोलनकारी किसानों की आत्महत्या से हुई मौतों ने भी लोगों का ध्यान विरोध की ओर खींचा है।
यह विरोध 13 फरवरी, 2024 को सीमाओं पर धरने के साथ शुरू हुआ और जल्द ही एक साल पूरा हो जाएगा। साल 2020-21 के किसान आंदोलन के उलट, जिसका नेतृत्व देश भर के 500 से अधिक किसान और किसान मोर्चों ने किया था, मौजूदा आंदोलन का नेतृत्व पंजाब के किसान यूनियनों के दो गुट कर रहे हैं। इसमें सरवन पंधेर के नेतृत्व वाला किसान मजदूर मोर्चा (केएमएम) और जगजीत सिंह दल्लेवाल की भारतीय किसान यूनियन (सिद्धूपुर) शामिल हैं जिनकी मुख्य मांग कानूनी रूप से गारंटीकृत एमएसपी है जो पिछले आंदोलन की मांगों का भी हिस्सा थी। 2 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने दल्लेवाल के अस्पताल में भर्ती होने की व्यवस्था न करने के लिए पंजाब सरकार की आलोचना की थी। हालांकि, 6 जनवरी को जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की बेंच ने पंजाब सरकार के खिलाफ अवमानना याचिका की सुनवाई 10 जनवरी तक के लिए स्थगित कर दी।
400,000 से अधिक किसान और कृषि मजदूरों की आत्महत्या से मौत
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2024 में किसानों की मांग पर विचार करने के लिए एक कमेटी का गठन किया था। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश नवाब सिंह की अध्यक्षता वाली कमेटी ने नवंबर 2024 में अंतरिम रिपोर्ट पेश की, जिसमें भारतीय किसानों के गंभीर संकट का विवरण दिया गया था। इसमें किसानों को मिलने वाली कम मजदूरी, उनके ऊपर भारी कर्ज का जिक्र किया गया। रिपोर्ट में बताया गया कि साल 1995 से जब भारत के राष्ट्रीय आपराधिक रिकॉर्ड ब्यूरो ने आंकड़े इकट्ठा करना शुरू किया था, तब से 400,000 से अधिक किसान और कृषि मजदूरों की आत्महत्या से मौत हो चुकी है। रिपोर्ट के साथ कमेटी ने किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता देने सहित दूसरे समाधान भी सुझाए थे।
कमेटी कृषि आय बढ़ोतरी के लिए दूसरी रिपोर्ट तैयार कर रही है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति ने 3 जनवरी को आंदोलनकारी किसानों से मुलाकात की कोशिश की, लेकिन किसान यूनियनों ने इससे साफ इनकार कर दिया। किसान यूनियन से असफल मुलाकात की कोशिश के बाद सुप्रीम कोर्ट की उच्च स्तरीय समिति ने 6 जनवरी को अनशन पर बैठे किसान नेता दल्लेवाल से मुलाकात की, जहां उन्होंने समिति से किसानों के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट पर दबाव देने का आग्रह किया कि वह केंद्र को निर्देश दें। इस बीच किसान सुप्रीम कोर्ट की समिति से मिलने को तैयार भी हो गए हैं।
सरकार और किसान के बीच वार्ता
जहां पिछले आंदोलन में सरकार और किसानों के बीच लंबे समय तक कोई बातचीत न होने के बाद, कई चरणों की वार्ता हुई थी। इसके विपरीत हालिया किसान आंदोलन में किसानों के प्रति सरकार का रवैया किसानों में उदासीनता पैदा कर रहा है। फरवरी 2024 में जब किसानों ने दिल्ली मार्च करने की घोषणा की तब प्रमुख संघीय मंत्रियों ने किसान नेताओं के साथ दो बैठकें की। मगर इसमें कोई सफलता हासिल नहीं हुई थी। पिछले दिनों केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि सरकार शीर्ष अदालत के निर्देशों का पालन करेगी। किसानों ने 26 जनवरी को देशभर में ट्रैक्टर मार्च निकालने की घोषणा की है। 26 जनवरी 2021 को किसान आंदोलन के पहले चरण में ट्रैक्टर रैली का आयोजन हुआ था।
2020-21 में हुए किसान आंदोलन का इतिहास
मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल के दौरान साल 2020 में तीन कृषि कानून को लागू किया था, जिसके विरोध में पंजाब समेत देशभर के किसानों ने लगातार 378 दिनों तक राजधानी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और देश के विभिन्न हिस्सों में आंदोलन किया था। आंदोलन के बीच किसान और सरकार के बीच में बातचीत का दौर भी चल रहा था। कई दौर के बातचीत के बाद भी बात नहीं बनी और मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। जनवरी 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने किसानों के पक्ष में फैसला लिया और तीनों कृषि कानून को स्थगित कर दिया था। किसानों के इस एकीकृत आंदोलन के आगे केंद्र सरकार ने आखिरकार नवंबर 2021 में तीनों कानून को वापस लेने का ऐलान किया था।
वैश्विक स्तर पर इस आंदोलन के कारण भारत सरकार की काफी आलोचना हुई थी। अंतरराष्ट्रीय गायिका रिहाना, जलवायु परिवर्तन एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग, क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर और दिवंगत गायिका लता मंगेशकर ने किसानों को अपना समर्थन दिया था। भारत में 2021 के किसान आंदोलन की गूंज कुछ ही महीनों में विदेश तक पहुंची। अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में बसे प्रवासी भारतीयों ने किसानों के समर्थन में आवाज उठाई, जिसके बाद सत्तारूढ़ पार्टी के एक बड़े पक्ष ने आंदोलनकारी किसानों पर विदेश में बसे खालिस्तानी मदद का आरोप लगाया। वहीं 26 जनवरी की दिल्ली हिंसा को एक अंतरराष्ट्रीय साजिश बताया गया था।
2024-25 किसान आंदोलन और मांगे
अब 2 साल बाद एक बार फिर देश के किसान हजारों की संख्या में 13 फरवरी 2024 को दिल्ली कूच करने निकले। मगर इस बार इन्हें राज्यों के बॉर्डर पर ही रोक लिया गया। पिछले 11 महीनों से पंजाब-हरियाणा बॉर्डर पर हालिया किसान आंदोलन चल रहा है। इस बार इनकी मांगे पिछले आंदोलन से अलग है। इस बार यह किसान केंद्र से कई उपायों की मांग कर रहे हैं, जो खेती की वित्तीय व्यवहार्यता के लिए जरूरी है। 13 फरवरी को पंजाब से संयुक्त किसान मोर्चा (गैर राजनीतिक) दल्लेवाल के नेतृत्व वाला बीकेयू और सरवन सिंह पंढेर के नेतृत्व वाला किसान मजदूर मोर्चा शामिल हुआ। हरियाणा से अभिमन्यु कोहर के नेतृत्व में एसकेएम (गैर राजनीतिक) शामिल हुए।
इस बार किसानों ने आंदोलन में मुख्य मांग को एमएसपी की कानूनी गारंटी रखा है। दरअसल, सरकार कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) की सिफारिश के आधार पर दर्जन से अधिक फसलों के लिए एमएसपी निर्धारित करती है, इनमें अधिकांश फसल पंजाब और हरियाणा से होते हैं। किसान ऐसे कानून की मांग कर रहे हैं जो हर फसल पर एमएसपी की गारंटी दे। किसानों की मांग है कि एमएस स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को पूरे तरीके से लागू किया जाए। इसके साथ ही गन्ने की बेहतर कीमत, 60 साल से अधिक उम्र के हर किसान को 10 हजार रुपए की पेंशन की मांग, लखीमपुर हिंसा में पीड़ितों के लिए उचित न्याय और पिछले किसान आंदोलन के प्रदर्शन में शहीद हुए किसानों के लिए दिल्ली में स्मारक बनाने के लिए जमीन और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, नकली बीज, पेस्टिसाइड, फर्टिलाइजर बेचने वालों पर जुर्माना जैसी मांगे शामिल है।
दिल्ली चलो मार्च और हालिया स्थिति
आंदोलन कर रहे किसानों ने कई बार दिल्ली कूच करने की कोशिश की है। मगर हर बार पुलिस से झड़प के बाद वह पीछे हट गए। 13 फरवरी को पंजाब के किसानों ने एमएसपी समेत 12 मांगों को लेकर दिल्ली जाने की घोषणा की। इसके बाद पुलिस ने शंभू और खनौरी बॉर्डर पर बैरिकेडिंग कर उन्हें रोक लिया। 21 फरवरी को किसानों ने दोबारा दिल्ली जाने की कोशिश की, मगर पुलिस से हिंसक टकराव हो गई। इसमें युवा किसान शुभकरण की मौत भी हो गई। वहीं 101 किसानों के जत्था ने 6 दिसंबर को पैदल शंभू बॉर्डर से दिल्ली कूच का ऐलान किया, मगर बॉर्डर पर पुलिस के साथ आमने-सामने की झड़प में 8 किसान घायल हो गए थे।
8 दिसंबर को 101 किसानों का जत्था फिर शंभू बॉर्डर से दिल्ली के लिए रवाना होने लगा। मगर हरियाणा पुलिस और किसानों के बीच एक बार फिर झड़प हो गई, जिसके बाद पुलिस ने किसानों पर आंसू गैस के गोले, वाटर कैनन का इस्तेमाल किया। इस दिन के संघर्ष के बाद एक बार फिर किसानों को वापस बुला लिया गया। किसानों ने 14 दिसंबर को दिल्ली जाने का ऐलान किया, मगर मार्च शुरू होने के थोड़ी देर बाद ही हरियाणा पुलिस ने किसानों पर आंसू गैस के गोले दागे जिससे किसान आगे नहीं बढ़ पाए। पुलिस की इस कार्यवाही में 15 से ज्यादा किसान घायल हो गए थे। इसके बाद इस मार्च को भी वापस बुला लिया गया।
वर्तमान किसान आंदोलन भारतीय कृषि क्षेत्र की जटिलताओं और उसमें सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करता है। एमएसपी की कानूनी गारंटी, किसानों की आय सुरक्षा, और खेती को टिकाऊ बनाने की मांगें केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक भी हैं। सरकार और किसानों के बीच संवादहीनता ने संघर्ष को और गहराया है, जिससे आंदोलन ने राष्ट्रीय और न्यायिक ध्यान आकर्षित किया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति और सरकार के रुख के बीच संतुलन बनाना जरूरी है ताकि किसानों की वाजिब मांगों को तर्कसंगत समाधान मिल सके। यह आंदोलन केवल एक क्षेत्रीय या आर्थिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह देश के विकास और सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।