समाजख़बर लोकतंत्र में किसानों के आंदोलन को आखिर क्यों कहा जा रहा है ‘अराजकता’?

लोकतंत्र में किसानों के आंदोलन को आखिर क्यों कहा जा रहा है ‘अराजकता’?

किसान आंदोलन को रोकने के लिए  सरकार द्वारा सिंधु और टिकरी बॉर्डर पर लोहे और सीमेंट के बेरिकेड्स  लगाए गए, कँटीली ताड़े, बड़े- बड़े कील  और कंटेनर के माध्यम से रास्तों को अवरुद्ध किया गया ताकि किसान दिल्ली न आ सकें।

एमएसपी और कर्ज माफी की मांग को लेकर संयुक्त किसान मोर्चा के कार्यक्रम में पिछले दिनों दिल्ली में हरियाणा और पंजाब के हजारों किसान शामिल हुए। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के अनुसार, किसान खेती और खाद्य सुरक्षा को बचाने के लिए मोदी सरकार की कॉर्पोरेट समर्थक,  सांप्रदायिक, तानाशाही नीतियों के खिलाफ लड़ाई तेज करने के लिए महापंचायत में ‘संकल्प पत्र’  अपनाएंगे। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता ने भारतीय जनता पार्टी को ‘किसान विरोधी’ भी कहा। किसान आंदोलन का चाहे नतीजा कुछ भी निकले, सरकार का और मीडिया का रवैया किसानों के प्रति समस्याजनक ही रहा है।    

पिछले दिनों पंजाब और हरियाणा के बीच खनौरी बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन के बीच पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई के दौरान, 22 वर्षीय युवा किसान की मौत हो गई थी। वह पंजाब के भटिंडा जिले के बल्लो गांव का रहने वाले थे। विडम्बना ये है कि ये ख़बर देश के ज़्यादातर बड़े मेनस्ट्रीम मीडिया के प्राइम टाइम से गायब रही। ऐसा पहली बार नहीं है जब भारत में सरकार के फ़ैसलों के विरोध में खड़े हुए किसी आंदोलन को मुख्यधारा की मीडिया ग़लत ढंग से प्रायोजित कर रही है। जोशुआ ओपनहाइमर ने कहा था कि ‘पत्रकारिता का मुख्य काम है, लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को संदर्भ के साथ इस तरह रखना कि हम उसका इस्तेमाल मनुष्य की स्थिति सुधारने में कर सकें।’ 

विडम्बना ये है कि ये ख़बर देश के ज़्यादातर बड़े मेनस्ट्रीम मीडिया के प्राइम टाइम से गायब रही। ऐसा पहली बार नहीं है जब भारत में सरकार के फ़ैसलों के विरोध में खड़े हुए किसी आंदोलन को मुख्यधारा की मीडिया ग़लत ढंग से प्रायोजित कर रही है।

लोकतंत्र में आंदोलन करने का अधिकार

तस्वीर साभार: Mint

लेकिन आज के समय में मेनस्ट्रीम मीडिया ने ख़ास तौर पर भारत की मुख्यधारा की मीडिया ने अपने कर्तव्य, निष्ठा और  निष्पक्षता को पूरी तरह ताक पर रख दिया है और सत्ता के सामने नतमस्तक हो गई है। अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने वाली मीडिया ने कहीं ना कहीं अपनी विश्वसनीयता लोगों की नज़र में खो दी है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में आंदोलन करना संवैधानिक अधिकार होता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से लगतार आंदोलनों का राजनीतिक दमन किया जा रहा है। इसमें मुख्यधारा की मीडिया  सबसे बड़ी कारक की भूमिका में नज़र आती है। इन सब में न केवल आंदोलनकारियों की आवाज़ दबाई जाती है, बल्कि उनका दुष्प्रचार भी किया जाता रहा है।

तस्वीर साभार: Mint

13 फ़रवरी को शुरू हुए किसान आंदोलन में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान दिल्ली बॉर्डर पर जमा हुए थे। इस बार किसान अपनी 12 सूत्रीय मांग को लेकर शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे हैं। इन मांगों में मुख्य रूप से, सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए एक कानून और डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन  आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फसल की कीमतों का निर्धारण करना शामिल है। इससे पहले भी वर्ष 2020 में किसानों ने, दिल्ली की सीमाओं पर, सरकार द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों का विरोध किया, जिसके कारण वर्ष 2021 में सरकार द्वारा उन कानूनों को निरस्त कर दिया गया। क़ानून रद्द करने के बाद एमएसपी पर एक समिति बनाने की घोषणा की गई। लेकिन किसान की मांगे अबतक पूरी नहीं हुई है।

सरकार से किसानों की मांग पर सवाल पूछने के बजाय मीडिया किसानों के लिए घुसपैठ, दमनकारी, और खालिस्तानी जैसी भाषा का प्रयोग करती नज़र आई। 

किसानों के प्रति मीडिया का बर्ताव

किसान आंदोलन को रोकने के लिए  सरकार द्वारा सिंधु और टिकरी बॉर्डर पर लोहे और सीमेंट के बेरिकेड्स  लगाए गए, कँटीली ताड़े, बड़े- बड़े कील  और कंटेनर के माध्यम से रास्तों को अवरुद्ध किया गया ताकि किसान दिल्ली न आ सकें। लेकिन इसके बाद भी जब किसान शांतिपूर्ण रूप से आगे बढ़ते रहे तो मीडिया द्वारा लगतार किसान आंदोलन का दुष्प्रचार किया गया। सरकार से किसानों की मांग पर सवाल पूछने के बजाय मीडिया किसानों के लिए घुसपैठ, दमनकारी, और खालिस्तानी जैसी भाषा का प्रयोग करती नज़र आई। 

इसी दौरान एक किसान बताते हैं कि उनके सोशल मीडिया अकॉउंट बंद कर दिए गए हैं। हमारा एक्स( ट्वीटर) ब्लॉक कर दिया गया है। हम अपनी बात लोगों तक नहीं पहुंचा सकते हैं।

वहीं मीडिया की ऐसे गैरज़िम्मेदाराना व्यवहार से आंदोलन कर रहे किसान भी बेहद नाराज़ नज़र आ रहे हैं। किसानों के पहले आंदोलन में मेनस्ट्रीम मीडिया को जमकर बॉयकॉट किया गया था। वहीं इस बार भी किसान आंदोलन की शुरुआत से ही मीडिया के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर की जा रही है। मुख्यधारा की मीडिया के कई चैनलों के पत्रकारों का आम जनता भी खुलकर विरोध कर रहे हैं। इसलिए किसानों की बात लोगों तक पहुंचाने का माध्यम अब केवल छोटे पत्रकार, यूटूबर और सोशल मीडिया ही रह गया है।

किसानों को कहा जा रहा है खालिस्तानी

इसी बारे में जब यूट्यूब न्यूज़ चैनल रेड माइक से बातचीत में आंदोलनकारी किसानों से मुख्यधारा की मीडिया द्वारा किसानों को खालिस्तानी और अराजक कहे जाने पर सवाल पूछा गया तो किसान आंदोलनकारी ने बताया कि अंडमान निकोबार में काला पानी में हमारे पूर्वजों ने देश के लिए अपनी जान दी है। वो हिंदुस्तान के लिए फांसी पर चढ़े थे। लेकिन हमें ‘खालिस्तानी’ कहा जा रहा है। हम यहां अपना हक मांगने आए हैं और हम मीडिया के ऐसे आरोपों को जस्टिफाई भी नहीं करना चाहते।

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इसी सवाल का जवाब देते हुए भारतीय किसान संघ से जुड़ी, भटिंडा जिला की किसान नेत्री कहती हैं कि मैं आंकड़ों की बात करूंगी। आज भारत में हर किसान पर लगभग 17000 कर्ज़ है जबकि पंजाब में यह कर्ज़ 2 लाख 95 हज़ार हो जाता है। वह इसका कारण कहीं ना कहीं हरित क्रांति को मानती हैं। वह बताती हैं कि 2023 के आंकड़ों के अनुसार भारत के कुल गेहूं उत्पादन का 51 फीसद योगदान पंजाब करता है जबकि चावल में कुल योगदान 21 फीसद है। इसके बाद भी अगर हम अपने हक में एमएसपी की मांग करते हैं तो हमें खालिस्तानी कहा जाता है।

मीडिया की ऐसे गैरज़िम्मेदाराना व्यवहार से आंदोलन कर रहे किसान भी बेहद नाराज़ नज़र आ रहे हैं। किसानों के पहले आंदोलन में मेनस्ट्रीम मीडिया को जमकर बॉयकॉट किया गया था। वहीं इस बार भी किसान आंदोलन की शुरुआत से ही मीडिया के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर की जा रही है।

सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया पर पाबंदी

वहीं किसानों पर पिछले आंदोलन से ही मुख्यधारा की मीडिया विदेशी आर्थिक सहयोग का आरोप लगाती रही है। किसानों के कपड़ों, किसानों के ट्रैक्टर और उनकी गाड़ियों पर भी टिप्पणी करती रही है। जब सौरभ इस बारे में सवाल करते हैं तो किसान नेता कहते हैं कि पंजाब हमेशा से एक संपन्न राज्य रहा है। जब यहां किसी के पास कुछ नहीं होता तो हमारे पास अरबी घोड़े होते थे। उन्होंने ने कहा कि हम यहाँ केवल अपनी मांग के लिए नहीं आये बल्कि पूरे देश के किसानों के लिए एक जुट हुए हैं। इसी दौरान एक किसान बताते हैं कि उनके सोशल मीडिया अकॉउंट बंद कर दिए गए हैं। हमारा एक्स( ट्वीटर) ब्लॉक कर दिया गया है। हम अपनी बात लोगों तक नहीं पहुंचा सकते हैं।

यहां किसानों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। एक तरफ़ जहां मीडिया उनकी आवाज़ को दबा रही है या उल्टा किसानों को ही व्यवस्था ख़राब करने का ज़िम्मेदार ठहरा रही है, वहीं दूसरी और जो कुछ किसान अपनी बात अपने सोशल मीडिया के माध्यम  से जनता और सरकार तक सही-सही पहुंचा रहे थे, उन्हें भी रोका जा रहा है। सच्ची और खोजी पत्रकारिता लोकतंत्र को जिंदा रखती है। यह प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन की ताकत है। लेकिन दिन प्रति दिन गिर रहे पत्रकारिता के स्तर से कहीं न कहीं लोकतंत्र में बोलने और आंदोलन करने की आज़ादी ख़त्म होती नज़र आ रही है।

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