समाजख़बर पत्रकार मुकेश चंद्रकार की हत्याः स्थानीय पत्रकारों की सुरक्षा और चुनौतियों को लेकर फिर उठे सवाल

पत्रकार मुकेश चंद्रकार की हत्याः स्थानीय पत्रकारों की सुरक्षा और चुनौतियों को लेकर फिर उठे सवाल

दिसम्बर में पत्रकार मुकेश चंद्रकार ने माओवाद प्रभाव इलाक़े में हो रहे कथित भ्रष्टाचार पर खबर चलाई गई थी जिसमें बीजापुर के ही ठेकेदार सुरेश चंद्रकार ने 50 करोड़ के बजट में होने वाले सड़क निर्माण कार्य को 120 करोड़ का बता कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया, जिसकी रिपोर्टिंग मुकेश ने की। इस ख़बर के बाद राज्य सरकार ने सड़क निर्माण के उस ठेके पर जाँच के आदेश दिया और सच सबके सामने आया।

छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के बारे में नक्सलियों को लेकर हमेशा चर्चा रहती है। नक्सलियों और सुरक्षाबलों की लड़ाई के केंद्र बस्तर में बात पत्रकारिता और पत्रकारों की करे तो उनके लिए यहां रिपोर्टिंग करना बहुत असुरक्षित है। उन्हें कई मोर्चों पर जूझना पड़ता हैं जिसमें कई बार इसकी क़ीमत जान दे कर चुकानी पड़ती है। स्वतंत्र पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या इसका ताज़ा उदाहरण है। ये हत्या सिर्फ़ मुकेश चंद्रकार की ही नहीं भारत देश की लोकतंत्र और उन तमाम पत्रकारों के साहस और जज़्बे की भी है जो देश में चल रहे भ्रष्टाचार और काला बाज़ारी से लिप्त लोगों और सिस्टम का पर्दाफ़ाश करते है।

भारत विश्व के उन पांच खतरनाक देशों में शामिल है जहां पत्रकारों के काम करने के लिए सुरक्षित माहौल नहीं है। साल 2024 की रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के अनुसार भारत 180 देशों में 159वें स्थान पर है।

पत्रकार मुकेश चंद्राकर कौन थे? 

33 वर्षीय मुकेश चंद्राकर एक स्वतंत्र पत्रकार थे। बतौर स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर वह ‘एनडीटीवी’ के लिए काम करते थे। इसके अलावा वे यूट्यूब पर एक लोकप्रिय चैनल बस्तर जंक्शनभी चलाते थे। इस चैनल पर वे विशेष रूप से बस्तर की भीतर की ख़बरों को प्रसारित करने का काम किया करते थे। मुकेश बीजापुर, बस्तर के रहने वाले थे। उनका बचपन बीजापुर के ही एक गाँव बासागुंडा में गुजरा जो नक्सल आंदोलन का गढ़ माना जाता है। शुरुआत में मुकेश कुछ समय तक रायपुर के कुछ अख़बार और न्यूज़ चैनलों के लिए काम करते थे। उन्होंने बहुत कम पैसो में काम करने की शुरुआत की। उनकी रिपोर्टिंग और वीडियो को कुछ मीडिया चैनल अपने नाम से चलाने लगे ऐसी कई मुश्किलों के बाद उन्होंने अपना चैनल बनाया। अपने चैनल पर बस्तर की ख़बरें प्रसारित करते थे।

अपने काम के जरिये उन्होंने अपनी अलग पहचान बना लीं। उनकी कई चर्चित रिपोर्टिंग में से एक रिपोर्टिंग है जब साल 2021 में सीआरपाईएफ के एक क़मांडो जिसे नक्सली द्वारा अपहरण कर लिया गया था तब वे कुछ पत्रकार (गणेश मिश्रा बीजापुर के पत्रकार) के साथ गए और नक्सलियों के साथ लंबी बातचीत के बाद उन्हें छुड़ा कर ले आए थे। उन्होंने अपनी रिपोर्टिंग में कई ऐसे खुलासे और फ़र्ज़ी तरीक़े से चल रहे काम का उजागर किया जिनके कारण उन्हें मौत की धमकियां भी मिलती रही। जिसे सफल बनाने में विरोधी पक्ष सफल रहे। दिसम्बर में पत्रकार मुकेश चंद्रकार ने माओवाद प्रभाव इलाक़े में हो रहे कथित भ्रष्टाचार पर खबर चलाई गई थी जिसमें बीजापुर के ही ठेकेदार सुरेश चंद्रकार ने 50 करोड़ के बजट में होने वाले सड़क निर्माण कार्य को 120 करोड़ का बता कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया, जिसकी रिपोर्टिंग मुकेश ने की। इस ख़बर के बाद राज्य सरकार ने सड़क निर्माण के उस ठेंके पर जाँच के आदेश दिया और सच सबके सामने आया और इसी कारण सुरेश चंद्रकार जो मुकेश के दूर के रिश्तेदार भी हैं उन्होंने मुकेश की हत्या कर दी।

बीसीसी में छपी जानकारी के अनुसार 33 वर्षीय मुकेश चंद्राकर इसी साल एक जनवरी की रात से ही अपने घर से लापता हो गए थे। बाद में उनका शव ठेकेदार सुरेश चंद्राकर की ओर से अपने मज़दूरों के लिए बनाए गए एक आवासीय परिसर के सेप्टिक टैंक से बरामद किया गया था। इस मामले में पुलिस ने तीन जनवरी को सुरेश चंद्राकर के दो भाई रितेश चंद्राकर और दिनेश चंद्राकर समेत एक सुपरवाइज़र महेंद्र रामटेके को हिरासत में लिया था और उनसे पूछताछ कर रही थी। पुलिस ने बीते शनिवार को हत्या मामले में अभियुक्त ठेकेदार का खाता सीज़ किया था। वहीं गोदाम और मज़दूरों के रहने के लिये बनाए गए अवैध निर्माण को भी ढहा दिया गया था।

छत्तीसगढ़ के भिलाई में मुकेश की हत्या के बाद विरोध प्रदर्शन करते लोग। तस्वीर साभारः रचना

ना कोई वेतन और ना ही कोई सुरक्षा 

बस्तर में एक मुकेश नहीं कई उनके जैसे पत्रकार हैं जो बंदूक की गोली के सामने रहकर निष्पक्ष तरीके से वहां की ख़बरों को लोगों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। बस्तर के ही तामेश्वर सिन्हा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यहां पत्रकारों की क्या स्थिति है इस पर विस्तार से बोलते हुए उनका कहना है, “बस्तर में पत्रकारों का बुरा हाल है और उन्हें कई चुनौतियों के साथ रिपोर्टिंग करनी पड़ती है वो भी बिना किसी पारिश्रमिक, बिना कोई मेहनताना के। ऐसा इसलिए क्योंकि वो मुद्दा उन्ही के गाँव, घर का ज़मीन से जुड़ा हुआ होता है तो “अपने गाँव के ही मुद्दे पर नहीं बोलेंगे तो और कहाँ के मुद्दे पर बोलेंगे” और यही काम मुकेश भी करता था।”

उनका आगे ये भी कहना है, ‘अगर पत्रकार नक्सल रिपोर्टिंग करें तो सरकार को लगता है कि ये नक्सल का पक्ष ले रहे हैं और प्रसाशन से तरफ़ से रिपोर्टिंग करें तो फिर नक्सलियों की तरफ से रिपोर्टिंग करने में मुश्किल होती है। कुछ घटनाएं तो ऐसी भी हुई हैं, जिनमें पत्रकार को पहले पुलिस ने माओवादी बताकर कई महीनों तक जेल में रखा और बाद में माओवादियों ने उस पत्रकार को पुलिस का मुखबिर बताकर, उसकी हत्या कर दी। बस्तर के पत्रकार दोनों तरफ़ से पिसते है। वह आगे कहते हैं कि घने जंगल और पहाड़ों से घिरा इलाक़ा जहां कोई साधन भी नहीं, उन्हें पैदल ही रिपोर्टिंग के लिए लम्बे रास्ते तय करने पड़ते हैं। इस तरह की कई प्रकार की चुनौतियों के बाद भी वहाँ के पत्रकार काम कर रहे हैं। सच विरोधियों को चुभता है इस कारण कई पत्रकारों को धमकियां भी मिली है और कई फ़र्ज़ी मामलों में जेल भी गए जैसे प्रभात सिंह, लिंगा कोडोपि, सोमरु आदि। इसमें वर्तमान में सबसे बड़ा उदाहरण है कमल शुक्ला जिनके ऊपर विरोधियों के द्वारा हमला किया गया ना कोई सुरक्षा ना कार्यवाही।

पत्रकार तामेश्वर ने ये भी बताया है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार ने सत्ता में आने से पहले वादा किया था कि पत्रकार सुरक्षा क़ानून लाएंगे इसका मसौदा भी तैयार हुआ और वो पास भी हुआ लेकिन उसके अनुसार काम नहीं किया गया। छत्तीसगढ़, बस्तर के सीनियर पत्रकारों ने उस मसौदे को नकार दिया क्योंकि उसमें पत्रकार के किसी भी प्रकार की सुरक्षा की कोई बात ही नहीं की गई थी। साल 2016 में पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की छत्तीसगढ़ इकाई ने पत्रकार के ऊपर हो रही हिंसा को देखते हुए चिंता जताई और पत्रकारों के सुरक्षा के लिए एक मसौदा अधिनियम का प्रस्ताव रखा गया। इसके बाद फिर 2018 कांग्रेस के भूपेश बघेल ने एक मसौदा तैयार करने का निर्देश जारी किया था क्योंकि यह उनके चुनावी वादे का हिस्सा था और आज भी इस पर कोई कार्यवाही आगे नहीं बढ़ी है। उनका कहना था कि किसी की ख़बर छापो और अगर वो आकर मार दिया या कोई हिंसा हुई तो उसके लिए कोई सुरक्षा नहीं मिलेगी तो सुरक्षा क़ानून किस काम का है।

तस्वीर साभार: Media vigil 

अब वर्तमान में भाजपा सरकार ने कहा है कि हम भी पत्रकार सुरक्षा लाएंगे जो आगे देखने वाली बात है। जो क़ानून है वो बड़े पत्रकार टेबल में बैठकर काम करने वालों के लिए सुरक्षा है। बस्तर में पत्रकारों की आर्थिक स्थिति पर बोलते हुए कहते है, “यहां काम करना बहुत चुनौतीपूर्ण है। रिपोर्टिंग करना और परिवार चलाने तक का पैसा नहीं मिलता है, उल्टा हम अपने आप और घर को भी ख़तरे में डाल रहे हैं। हमें कम से कम आने-जाने का रिपोर्टिंग का तो पैसे मिले जो नामी पत्रकार हैं उनको कई फ़ायदे हैं हम जो ज़मीन से जुड़कर खबर लाते हैं उसका क्या? फ़्रीलांसर होना बहुत बड़ी चुनौती है।” 

भारत में पत्रकारों की हत्या-एक चिंताजनक स्थिति

तस्वीर साभारः mpcg ndtv

भारत विश्व के उन पांच खतरनाक देशों में शामिल है जहां पत्रकारों के काम करने के लिए सुरक्षित माहौल नहीं है। साल 2024 की रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के अनुसार भारत 180 देशों में 159वें स्थान पर है। भारत में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पिछले दस वर्षों में मारे गए 28 पत्रकारों में से लगभग आधे पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहे थे। इनमें मीडिया निदेशक, खोजी पत्रकार और संवाददाता शामिल हैं। मारे गए पत्रकार मुख्य रूप से ज़मीनों का अधिग्रहण और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए अवैध खनन जैसे मुद्दों पर रिपोर्ट कर रहे थे। इनमें से कई पत्रकार भारत के कुख्यात “रेत माफिया” पर रिपोर्टिंग के कारण मारे गए, जो देश के तेज़ी से बढ़ते निर्माण उद्योग के लिए अवैध रूप से रेत की खुदाई करता है। यह संगठित अपराध नेटवर्क अक्सर नेताओं से जुड़ा होता है और उनके संरक्षण में काम करता है। माफिया, अपनी गतिविधियों में रुचि दिखाने वाले पत्रकारों को जल्दी से चुप कराने का काम करता है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) ने पत्रकारों की शारीरिक और डिजिटल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक तंत्र की तत्काल स्थापना की मांग की है। 

पत्रकार तामेश्वर ने ये भी बताया है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार ने सत्ता में आने से पहले वादा किया था कि पत्रकार सुरक्षा क़ानून लाएंगे इसका मसौदा भी तैयार हुआ और वो पास भी हुआ लेकिन उसके अनुसार काम नहीं किया गया और छत्तीसगढ़, बस्तर के सीनियर पत्रकारों ने उस मसौदे को नकार दिया क्योंकि उसमें पत्रकार के किसी भी प्रकार की सुरक्षा की कोई बात ही नहीं की गई थी।

देश में पत्रकारों को लगातर सवाल करने, ग्राउंड पर रिपोर्टिंग करने, सूचना को सबके सामने रखने के लिए कई तरह के परिणामों का सामना करना पड़ रहा है। इसमें नौकरी गंवानी, धमकी, साजिश का आरोप, हत्या, जेल का सामना करना पड़ रहा है। फिर भी वे अपने पेशे के साथ बने हुए पैसे की कमी से लेकर सुरक्षा का सवाल उन्हें घेरे रखता है लेकिन सिस्टम समय के साथ और खराब हो रहे हैं। पत्रकार मुकेश चंद्रकार की हत्या के बाद एक बार फिर पत्रकारों की सुरक्षा-स्थिति पर सवाल खड़े हो गए हैं। साथ ही दिल्ली से बाहर जमीनी स्तर पर स्थानीय पत्रकारों की चुनौतियों और रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों के खतरे को सामने रखा है।

ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों की सामाजिक और आर्थिक तरह की कई चुनौतियां है। दिल्ली से दूर रहकर पत्रकारिता के मूल को बचाने वाले स्थानीय पत्रकारों को तीसरी श्रेणी का पत्रकार समझा जाता है और जो बड़े हस्ती या नेताओं के साथ कैमरे में दिखे उन्हें एक बड़े पत्रकार का दर्जा दिया जाता है यही सबसे बड़ी विषमता की बात है। ये स्थिति सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की नहीं उन तमाम जगह की है जहां के पत्रकार अपनी ज़िंदगी को हाथ में लेकर इस देश में पत्रकारिता, रिपोर्टिंग को बचाने के काम में लगे हुए हैं। असली  सवाल ये भी है कि क्या मुकेश चंद्रकार के साथ-साथ उन तमाम पत्रकारों जो फ़र्ज़ी रिपोर्ट में जेल गए या हत्या कर दी गई उनको कब न्याय मिलेगा?


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