समाजमीडिया वॉच भारत सरकार की पैनी नज़र के बीच स्थानीय स्तर पर स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की चुनौतियां

भारत सरकार की पैनी नज़र के बीच स्थानीय स्तर पर स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की चुनौतियां

स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता करना, लोगों की बात करना, प्रशासन और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने की वजह से उन्हें बहुत सारे जोखिम उठाने पड़ते हैं। देश के अलग-अलग क्षेत्र में रहने वाले अधिकतर स्वतंत्र पत्रकारों ने अपनी वेबसाइट, अखबार या सोशल मीडिया चैनल बनाकर सीधे लोगों तक अपनी पहुंच बनाई हैं।

बीते महीने अगस्त में ग्रामीण भारत और खेती-किसानी के मुद्दों को कवर करनेवाली वेबसाइट गांव-सवेरा के सोशल मीडिया अकाउंट्स पर अचानक रोक लगा दी गई। पहले गांव-सवेरा का फेसबुक पेज और बाद में एक्स (पहले ट्विटर) अकाउंट बंद कर दिया गया। न्यूज़लाड्री में प्रकाशित ख़बर के अनुसार ट्टिटर ने कहा था कि भारत सरकार के पत्राचार के बाद गांव-सवेरा वेबसाइट पर यह कार्रवाई की गई थी। 31 अगस्त तक गांव-सवेरा के दोनों सोशल मीडिया को रिस्टोर कर दिया गया था लेकिन यहां सवाल बैन और रिस्टोर कहीं अधिक गंभीर है। 

इसी तरह उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी ज़िले में हिंदी दैनिक ‘अमृत विचार’ के साथ काम करने वाले पत्रकार शिशिर शुक्ला पर एफआईआर दर्ज की गई। आर्टिकल-14 की ख़बर के अनुसार सरकारी स्कूली किताबों को कबाड़ में बेचने से जुड़ी ख़बर दिखाने पर प्रशासन की छवि खराब करने की बात कहकर उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया। बीते दिनों दिल्ली में पल-पल न्यूज़ नामक यूट्यूब चैनल चलानेवाली मुस्लिम महिला पत्रकार खुशबू अख़्तर के घर में आग लगने की घटना सामने आई। द वायर में छपी ख़बर के अनुसार खुशबू का कहना है कि उनके काम की वजह से यह सब हुआ है क्योंकि वे मुस्लिम और अन्य पिछड़े समुदाय से जुड़ी ख़बरों पर काम करती है। 

स्वतंत्र पत्रकार है तो आपकी पत्रकार होने पर भी सवाल उठाया जाता है। जब तक आप आइडेंटिटी कार्ड नहीं दिखाते है और कोई साख नहीं जमा पाते है तब तक प्रशासन का रवैया बहुत खराब होता है।

दरअसल, देश में मौजूदा दौर में पत्रकारिता करना या तो बहुत आसान है या बहुत मुश्किल। यह तय होता है कि बतौर पत्रकार आप किस तरफ खड़े हैं। कॉर्पोरेट और मेनस्ट्रीम मीडिया से अलग अगर आप दिल्ली से दूर हाशिये की ख़बरें रिपोर्ट कर रहे हो तो एक स्वतंत्र पत्रकार के लिए यहीं से चुनौतियां शुरू हो जाती हैं। स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता करना, लोगों की बात करना, प्रशासन और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने की वजह से इन पत्रकारों को कई जोखिम उठाने पड़ते हैं।

देश के अलग-अलग क्षेत्र में रहने वाले अधिकतर स्वतंत्र पत्रकारों ने अपनी वेबसाइट, अखबार या सोशल मीडिया चैनल बनाकर सीधे लोगों तक अपनी पहुंच बनाई है। इन स्वतंत्र पत्रकारों के पास अपने-अपने दर्शक और पाठक हैं। स्थानीय स्तर पर सरकार की कार्रवाई पर सवाल-जवाब करने की वजह से स्टेट सीधे तौर पर इन्हें निशाना बना रहा है। पत्रकारों को धमकाना, हत्या, उनके काम में बाधा, उनके ख़िलाफ़ सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग, पुलिस केस आदि आज एक सामान्य बात है।

“कॉर्पोरेट मीडिया सूचनाओं को रोकता है”

लगातार एक के बाद एक ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं जिसमें स्टेट सीधे तौर पर स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले समूह या पत्रकार को निशाना बना रहा है। स्वतंत्र पत्रकारों के काम को रोकने की सरकारी कार्रवाई और स्वतंत्र पत्रकारिता की चुनौतियों पर बात करते हुए गांव-सवेरा के मनदीप पुनिया का कहना है, “यह जो पूरा कॉर्पोरेट मीडिया है यह ऐसी सूचनाओं को रोकता है जो लोगों को जाननी ज़रूरी है। सूचनाओं को रोकने की यह जो पूरी दीवार है इसमें हम स्वतंत्र मीडिया या पत्रकार जो हैं सिर्फ पत्थर मारते हैं ताकि थोड़ी सी रोशनी आ सके यानी किसी तरह लोगों तक जानकारी पहुंच सके। कॉर्पोरेट मीडिया जो महत्वपूर्ण सूचनाओं की गेटकीपिंग करता है उसको तोड़ने में स्वतंत्र मीडिया एक बड़ा रोल रहा है और इसीलिए सरकार की नज़र उस पर बनी रहती है। इसमें अलग-अलग चुनौतियों का सामना करना पड़ता है एक तो संसाधनों की है, दूसरा सरकार आपके काम में बाधा पहुंचाती है। पुलिस के माध्यम से या आपके चैनल को बैन कर रही है, ट्रोल जो परेशान करते हैं, चैनल को हैक किया जाता है। मुख्य तौर पर यह गलत सूचनाओं और गेटकीपिंग का दौर है।” 

तस्वीर साभारः CPJ

ग्रामीण पत्रकारिता के महत्व और स्थानीय प्रशासन की पैनी नज़र पर आगे बात करते हुए मनदीप का कहना है, “22 अगस्त को हरियाणा और पंजाब में बाढ़ के मुआवज़े के लिए किसान जब मार्च कर रहे थे तो उसकी रिपोर्टिंग करते हुए पुलिस भी हमारे घर तक पहुंच गई। चूंकि स्थानीय प्रशासन को यह पता होता है कि ये सूचनाएं यहां से यह आदमी पहुंचा रहा है तो उन्हें ट्रैक करना आसान होता है। हमें काम रोकने को कहा जाता है। पिछले दो-तीन सालों से ट्रेंड भी बन गया है कि ग्रामीण और लोकल स्तर के मुद्दों पर बोलने और काम करनेवाले लोगों को कई बार हाउस अरेस्ट किया गया है। किसान आंदोलन के दौरान यह बहुत हुआ है। ये सब चुनौतियां है क्योंकि जब आप ग्राउंड से छोटी-छोटी स्टोरी करते हैं, जानकारी बाहर लाते हैं तो ये सीधा गेटकीपिंग को तोड़ती है।” 

आर्थिक और सीमित संसाधनों पर आगे उनका कहना है, “स्टेट को जैसे ही पता चलता है कि इनकी कमाई का जो ज़रिया है वह सोशल मीडिया है तो उस पर ही बैन लगा देता है। पेज बैन हटा भी लेता है तो मोनिटाइजेशन को बंद करवा देता है। गांव-सवेरा के पेज बैन के बाद हमारे मॉनिटाइजेशन पर रोक लगी हुई है। हालांकि, लग रहा है कि जल्द ही यह रोक भी हट जाएगी। इस तरह से हम जो सीमित भी कमा रहे हैं तो उस पर भी रोक लगा दी जाती है। हमारे साथ सोशल मीडिया पर पेज बैन की घटना तीसरी बार हुई है तो इन सब चीजों का बहुत ज्यादा असर पड़ता है। इस तरह से एनर्जी पर बहुत असर पड़ता है। 20 अगस्त के बाद से ये सवाल और सामने खड़े हैं।”    

न्यूज़रूम में दलित, आदिवासी का प्रतिनिधित्व नहीं

भारतीय मेनस्ट्रीम मीडिया का चेहरा विशेषाधिकार प्राप्त और सवर्ण लोगों से भरा है। ख़बरे बनाने, उन्हें तय करनेवाले से लेकर उन्हें सबके सामने प्रस्तुत करने वाले लोगों में ज्यादतर एक ही जाति-वर्ग के लोग मौजूद हैं। भारतीय न्यूज़रूम में काम करने वालों में ही विविधता कम होना मीडिया में दूर-दराज के आदिवासी क्षेत्र और अन्य हाशिये के समुदाय के लोगों की बात को महत्वपूर्ण नज़रिये से न देखने की एक बड़ी वजह है। ऑक्सफैम और न्यूज़लॉड्री की मीडिया में विविधता को लेकर जारी रिपोर्ट के अनुसार 90 फीसदी नेतृत्व के पदों में भारतीय मीडिया में तथाकथित उच्च जाति के लोग काम कर रहे हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया में दलित और आदिवासी नहीं हैं। पांच में से तीन लेख हिंदी और अंग्रेजी के अख़बारों में लेख सामान्य वर्ग के लेखक लिखते हैं। वहीं, हाशिये की जाति एससी, एसटी और ओबीसी के लेखक पांच में से एक ही हैं। न्यूज़रूम में असमान प्रतिनिधित्व, किस तरह की सूचना लोगों को दी जा रही है उसे प्रभावित करती है। 

छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र पत्रकार थमीर कश्यप का कहना है, “जब आप आदिवासियों की बात कहते है तो आपको अपनी रिपोर्ट को दिल्ली में जगह दिलाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। और यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि आपकी कोशिशें कामयाब हो। बातचीत हो सकती है, मुद्दा बहुत सही हो सकता है लेकिन उस ख़बर को प्रकाशित होना बहुत मुश्किल भरा काम है। न नौकरी मिलती है, न आपकी रिपोर्ट प्रकाशित होती है तो इसी के बाद फिर स्वंतत्र तौर पर स्थानीय स्तर सोशल मीडिय पर खुद का चैनल बनाकर काम करना शुरू किया। लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। आदिवासी लोगों की बात कहने के लिए  स्थानीय स्तर पर ग्राउंड पर काम करना सूचना को बाहर लाना बहुत मुश्किल भरा काम है। स्वतंत्र पत्रकार है तो आपकी पत्रकार होने पर भी सवाल उठाया जाता है। जब तक आप आइडेंटिटी कार्ड नहीं दिखाते हैं और कोई साख नहीं जमा पाते हैं, तब तक प्रशासन का रवैया बहुत खराब होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके लिए मीडिया का मतलब कुछ बड़े चैनल के नाम है तो इस तरह से आपके साथ बहुत बुरा बर्ताव होता है। साथ में ख़बर के चलते गिरफ्तारी का भी लगातार डर बना रहता है कि कहीं ऐसा कुछ हो गया तो उसके बाद परिवार का क्या होगा। हर तरह से चाहे वह रिपोर्टिंग करना हो, पैसा हो, पहचान हो हर स्तर पर काम करने में मुश्किल रहती है। साथ ही राज्य के पास आपके काम पर नज़र रखने के तमाम साधन है और आपको नियंत्रण में करने के लिए भी।” 

“स्टेट को जैसे ही पता चलता है कि इनकी कमाई का जो ज़रिया है वह सोशल मीडिया है तो वह क्या करता है कि बैन लगा देता है। पेज बैन हटा भी लेता है तो मोनेटाइजेशन को बंद करवा देता है। गांव-सवेरा के पेज बैन के बाद हम पर अभी भी मोनेटाइजेशन की रोक लगी हुई है हालांकि लग रहा है कि जल्द ही यह भी हट जाएगा। इस तरह से हम जो सीमित भी कमा रहा है तो उस पर भी रोक लगा दी जाती है।”

उत्तर प्रदेश में ‘नकारात्मक ख़बर’ करने पर जांच 

स्वतंत्र और क्षेत्रीय स्तर काम करने वाली मीडिया पर रोक लगाने की दिशा में बीते दिनों एक आदेश उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से जारी हुआ है। न्यूज़लॉड्री में छपी ख़बर के अनुसार राज्य सरकार की छवि खराब करने वाली नकारात्मक ख़बरों की जिला प्रशासन द्वारा जांच की जाएगी। उत्तर प्रदेश की सरकार ने राज्य के अधिकारियों को यह आदेश दिया है। अधिकारियों से कहा गया है कि अगर रिपोर्ट असंगत या गलत तथ्य प्रस्तुत करती है तो मीडिया आउटलेट्स से स्पष्टीकरण मांगा जाएगा। राज्य सरकार का यह कदम साफ तौर पर स्वतंत्र और छोटे मीडिया समूह पर पडे़गा। यह फरमान से दूर-दराज़ के क्षेत्र में ग्राउंड रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की मुश्किल को बढ़ा सकता है। 

मीडिया की स्थिति पर बीते वर्ष ‘कमेटी अगेंस्ट असॉल्ट ऑन जर्नलिस्ट’ की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में साल 2017 से 2022 के बीच 138 केस पत्रकारों के ख़िलाफ़ दर्ज किए गए हैं। द वॉयर में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़ 78 फीसदी केस 2020 और 2021 के समय कोविड-19 महामारी के दौरान दर्ज हुए। जब से मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने शपथ ली है 12 पत्रकारों की मौत, 48 को शारीरिक रूप से उत्पीड़न और 66 के कई आरोपों में गिरफ्तार किया गया। इतना ही नहीं, 12 केस जासूसी  के भी दर्ज किए गए। उत्तर प्रदेश में ही हाथरस बलात्कार मामले की रिपोर्टिंग करने लिए पत्रकार सिद्दकी कप्पन पर यूएपीए लगाकर उन्हें 800 दिनों तक जेल में रखा गया।

अभी कुछ दिनों पहले जून में अमेठी की सांसद स्मृति ईरान के सोशल मीडिया पर पत्रकारों को धमकाते हुए एक वीडियो सामने आया। इसके बाद भास्कर के साथ काम करने वाले इन पत्रकार को नौकरी से निकाल दिया गया। बीते महीने केरल में एसआईएफ नेता को बदनाम करने की साजिश के मामले में केरल पुलिस की एफआईआर में एशियानेट पत्रकार को आरोपी बनाया गया है। एशियानेट की रिपोर्टर अखिला नंदकुमार को केरल में एक मामले में आरोपी बनाया गया है। एसएफआई स्टेट सक्रेट्री पी.एम. अर्शो ने उन पर बदनाम करने की साजिश का आरोप लगाया था। 20 मई 2022 में बिहार में लोकल केवल स्टेशन सिटी न्यूज़ के रिपोर्टर सुभाष कुमार महतो की हत्या कर दी गई थी। महतो मुख्य तौर पर राज्य में शराब माफियाओं पर रिपोर्टिंग कर रहे थे। वे पब्लिक ऐप नामक हाइपलोकल पर अपनी रिपोर्ट पोस्ट किया करते थे। इसी तरह कश्मीर में क्षेत्रीय मीडिया को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। अखबार बंद करना, पत्रकारों को जेल में डालने का काम किया जा रहा है।

एक साल से कैद में स्वतंत्र पत्रकार रूपेश

बीते साल 17 जुलाई को झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह जेल में हैं। रूपेश पर झारखंड की सरायकेला खरसावां जिले की नक्सलियों से संपर्क रखने का आरोप लगाया है। एक साल से ज्यादा वक्त हो चुका है और रूपेश जेल में ही हैं। एक पैटर्न के तरह सरकार स्वतंत्र मीडियाकर्मियों के काम को बाधा पहुंचा रही है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में आदिवासियों के हित की बात करने वाले पत्रकारों की नक्सलियों के साथ जोड़कर जेल डाल रही है। ‘नकारात्मक ख़बर’ के नैरेटिव से उनके काम को रोकने और पुलिस का डर दिखा रही है।

रूपेश कुमार के साथ ईप्सा सताशी। तस्वीर साभारः Telegraph India

झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार और फिलहाल बिहार जेल में बंद रूपेश कुमार की पत्नी ईप्सा सताशी का कहना है, “रूपेश की जिस केस में गिरफ्तारी हुई थी उस केस के अलावा अन्य तीन केस लगाए गए हैं। कुल चार केस हैं उनमें से दो में बेल मिल चुकी है। एक साल के अंदर ही बेल मिल चुकी है। बाकी दो केस है उनमें से एक एनआईए ने टेकओवर किया हुआ है जो बिहार के रोहतास ज़िले का केस है। झारखंड के तीन केस हैं जिनमें से दो में हमें बेल मिल चुकी है। एक केस है जिसमें उनकी 17 जुलाई 2022 को गिरफ्तारी हुई थी वह मामला हाईकोर्ट में चल रहा है।”

“एनआई वाले केस को छोड़ दें तो रूपेश का नाम एफआईआर कही नहीं है। ये जो रोहतास वाला केस है ये हमने सबसे पहले खुद अखबार में ही पढ़ा था कि रूपेश नाम लिखा हुआ है। ये एनआईआई वाला मामला जब सामने आया था जब रूपेश दिल्ली गए हुए थे जहां ‘आदिवासी हुक्कार’ नाम का एक कार्यक्रम हुआ था जिसमें देशभर के, छत्तीसगढ़ के और अन्य लोग भी शामिल हुए थे। रूपेश को भी बुलाया गया था जिसका मकसद आदिवासियों को लेकर जो देश में चल रहा है उस पर बात करना था। जैसे ही वह वहां से वापिस आते हैं उसके बाद ही एफआईआर में नाम आया। 2023 में इस केस में रिमांड ली गई और अप्रैल से उन्हें कस्टडी में ले लिया गया और बिहार की बेउर जेल में ट्रांसफर कर दिया गया है।” 

ईप्सा ने आगे हमें बताया है कि रूपेश के जेल में रहते हुए भी उनके घर में एनआईए रांची की टीम ने 2 मई 2023 में रेड की थी। वह बताती हैं, “हमें कहा गया है कि हमें जानकारी मिली है तो हम लोग आश्वासन लेना चाहते हैं कि कुछ गड़बड़ नहीं है। उस समय झारखंड में पांच जगह इस तरह की जांच हुई थी मुझे बाद में पता चला है। मजूदरों के संगठन पर भी कार्रवाई करी गई थी। और मुझे ऐसा लगता है कि रूपेश ने इस संगठन के ऊपर रिपोर्टिंग की है एक बार इस पर संगठन पर बैन लगा था बाद में हटा दिया गया था। दोनों समय रूपेश ने इसे कवर भी करा था। जो भी लोग है बोलने, लिखने और पढ़ने वाले उन्हें इस दौर में बहुत ज्यादा परेशान किया जा रहा है।”

स्वतंत्र पत्रकार और फिलहाल बिहार जेल में बंद रूपेश कुमार की पत्नी ईप्सा सताशी का कहना है, “रूपेश की जिस केस में गिरफ्तारी हुई थी उस केस के अलावा अन्य तीन केस लगाए गए हैं। कुल चार केस हैं उनमें से दो में बेल मिल चुकी है। एक साल के अंदर ही बेल मिल चुकी है। बाकी दो केस है उनमें से एक एनआईए ने टेकओवर किया हुआ है जो बिहार के रोहतास ज़िले का केस है।”

कारोबारी मीडिया ने सत्ता के आगे चुप्पी साध ली है

देश में स्वतंत्र मीडिया की स्थिति पर मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार का कहना है, “कारोबारी मीडिया के आगे देश के अलग-अलग हिस्से में व्यक्तिगत या सामूहिक स्तर पर पत्रकारिता को लेकर जो प्रयास किए जा रहे हैं, संसाधन के स्तर पर बहुत पीछे और कमतर हैं लेकिन इसका दूसरा बड़ा उजास पक्ष है कि जिस साहस और बेफिक़्री के साथ वो पत्रकारिता कर पा रहे हैं, वो कारोबारी मीडिया के लिए लगभग असंभव सा हो गया है। छोटे-छोटे स्तर पर किए गए प्रयास संसाधन और पहुंच के स्तर पर भले ही वो प्रभाव पैदा नहीं कर पाते किन्तु उनकी ओर से दर्ज़ की गयी असहमति और साहसिकता कारोबारी मीडिया को असहज करते हैं। ये प्रयास हमेशा एक संभावनाओं से भरे होते हैं और कभी भी इनका स्वर और पहुंच विस्तार पा सकती है। ऐसे एक नहीं, दर्जनों मामले हैं जिन पर कारोबारी मीडिया ने बहुमत की सत्ता के मिज़ाज को ध्यान में रखते हुए चुप्पी साध ली और इन छोटे-छोटे प्रयासों ने उन घटनाओं को वैश्विक स्तर पर पहुंचाने का काम किया या फिर यूं कहें कि स्थानीयता को लांघकर वो ख़बरें वैश्विक स्तर पर पहुंच गयी।” 

विनीत कुमार आगे कहते है, “कारोबारी मीडिया और बहुमत की सत्ता को असल परेशानी इसी बात से है कि ख़बरें किसी न किसी रूप में अपना आकार और जगह ले ही लेती हैं और कारोबारी मीडिया की कोशिशें अप्रासंगिक जान पड़ती है। बहुमत की सत्ता का गठजोड़ अब कुछ इस तरह से है कि कारोबारी मीडिया की कोशिशों के नाक़ाम होने का मतलब सत्ता के मंसूबे पर पानी फिर जाना है। दूसरी बात कि ऐसे कई मामले में उनकी पार्टी की आईटी सेल तमाम कोशिशों के बावज़ूद हांफने लग जाती हैं। यानि जिन्हें हम छोटे-छोटे प्रयास और संसाधन के स्तर पर कमतर माध्यम कह रहे हैं, वो अपने उत्साह, साहस और लगातार की सक्रियता से लोकतंत्र के भीतर के इस दोस्ताना कोशिशों को नाक़ाम करने, थकाने और अप्रासंगिक बनाने का काम करते हैं। लिहाज़ा इन पर समय-समय पर की जानेवाली कार्रवाई और रोकने की कोशिशें इन्हीं बातों की परिणति है।”

तस्वीर साभाः AL Jazeera

पिछले पांच सालों में दुनिया में भारतीय मीडिया की स्वतंत्रता में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर की ओर से जारी रैंक में भारत का प्रदर्शन लगातार खराब होता जा रहा है। जब से केंद्र में मोदी सरकार आई अगर तब से आंकड़ों की बात करें तो  साल 2014 में भारत की रैंक 140 थी। उसके बाद 2015, 16, 17 में तीनों वर्ष 136 की रैंक बनी रही। साल 2018 के बाद से स्थिति में लगातार गिररावट देखने को मिल रहा है। साल 2018 -138, 2019-140, 2020-142, 2021-142, 2022- 150, 2023-161 दर्ज की गई है। कई अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में भारत में मीडिया की स्वतंत्रता की स्थिति पर चर्चा की जा चुकी है। सरकार के सहयोगी कॉर्पोरेट घरानों का मेनस्ट्रीम मीडिया पर प्रतिनिधित्व बढ़ता जा रहा है। मुख्य व्यसायी ही मीडिया मालिक बने हुए हैं।

स्वतंत्र क्षेत्रीय पत्रकारों को लगातर सवाल करने, ग्राउंड पर रिपोर्टिंग करने, सूचना को सबके सामने रखने के लिए मंत्री से डांट, नौकरी गंवानी, धमकी, साजिश का आरोप, हत्या, जेल का सामना करना पड़ रहा है। असहयोग से भरे महौल के साथ पैसे की कमी को लेकर सुरक्षा का सवाल भी उन्हें घेरे रखता है। मौजूदा दौर में अक्सर किसी स्वतंत्र पत्रकारों के ख़िलाफ़ सरकारी की कार्रवाई के बाद उसे विपक्ष के धड़े में हीरो और ‘सच्ची पत्रकारिता का सिपाही’ बनाकर पेश किया जाता है। वास्तव में स्थानीय पत्रकारिता करनेवाले स्वतंत्र पत्रकारों को उनके काम और कमाई के हर स्तर पर बहुत संघर्षपूर्ण स्थिति में काम करना पड़ता है।


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