स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य क्या होता है डायबिटिक बर्नआउट और महिलाओं के लिए ये क्यों है चुनौतीपूर्ण?

क्या होता है डायबिटिक बर्नआउट और महिलाओं के लिए ये क्यों है चुनौतीपूर्ण?

डायबीटीज का असर केवल शारीरिक सेहत तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह मानसिक स्वास्थ्य को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। नियमित रूप से ब्लड शुगर लेवल की जांच और निगरानी, दवाएं लेना और डाइट पर ध्यान देना महिलाओं के लिए बेहद तनाव भरा होता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2021 में डायबीटीज और उससे होने वाली किडनी की बीमारी से दुनियाभर में 20 लाख से अधिक मौतें हुईं। इनमें से 47 फीसद लोगों की आयु 70 वर्ष से कम थी। इसके साथ ही लगभग 11 फीसद लोगों में हृदय की बीमारियों से होने वाली मौत की वजह हाई शुगर लेवल थी। उच्च आय वर्ग की तुलना में मध्यम और निम्न आय वर्ग वाले देशों में डायबीटीज तेजी से बढ़ रहा है। साल 2022 के आंकड़ों से पता चलता है कि 50 फीसद से अधिक लोगों ने डायबीटीज के लिए कोई दवा नहीं ली। ज़ाहिर सी बात है कि इसमें बड़ी संख्या निम्न और मध्यम आय वर्ग वाले देशों की है। डायबीटीज तेजी से बढ़ रही एक ऐसी बीमारी है जो करोड़ों लोगों को प्रभावित करती है। इसके साथ ही इससे मानसिक बीमारियों का जोख़िम भी बढ़ जाता है। डायबिटीज से होने वाले मानसिक और भावनात्मक थकावट को ‘डायबिटिक बर्नआउट’ के नाम से जाना जाता है।

द इकोनामिक टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट से पता चला है कि डायबीटीज के 86 फीसद मरीज डायबिटिक बर्नआउट से जूझते रहते हैं। अब चूंकि यह जीवन भर चलने वाली बीमारी है इसलिए यह व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक रूप से थका देती है। ख़ासकर महिलाओं के लिए यह और भी बड़ी चुनौती बन जाती है क्योंकि पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में उनपर पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियां निभाने का दबाव रहता है। उनके लिए अपनी सेहत के लिए वक़्त निकालना मुश्किल हो जाता है। अगर कोई महिला अपने कॅरियर को लेकर महत्वाकांक्षी है, तो उसकी मुश्किलें दोगुनी हो जाती हैं। आज के ज़माने में भले महिलाएं कामकाजी हो, फिर भी उन्हें घरेलू ज़िम्मेदारियों से छुटकारा नहीं मिल पाता।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2021 में डायबीटीज और उससे होने वाली किडनी की बीमारी से दुनियाभर में 20 लाख से अधिक मौतें हुईं। इनमें से 47 फीसद लोगों की आयु 70 वर्ष से कम थी।

डायबिटिक बर्नआउट क्या है?

तस्वीर साभार: Freepik

डायबिटिक बर्नआउट एक ऐसी स्थिति है जहां डायबीटीज से होने वाली चुनौतियों और मुश्किलों का सामना करते हुए व्यक्ति थक जाता है। यह थकावट सिर्फ शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी होती है। डायबिटिक व्यक्तियों को समय-समय पर ब्लड शुगर की जांच करना, उसपर निगरानी रखना, समय पर दवा लेना, खाने-पीने में परहेज और व्यायाम जैसे स्वास्थ्य देखभाल पहलुओं पर ध्यान देना होता है। लंबे समय तक इस तरह का रूटीन मैनेज करना आम लोगों के लिए बड़ी चुनौती हो सकती है। ऐसा हो सकता है कि एक समय के बाद इंसान अपना सब्र खो देता है या फिर काम के बोझ के चलते ये सारी चीजें मैनेज नहीं कर पाता। ऐसे में बीमारी बढ़ने का जोख़िम बढ़ जाता है जो व्यक्ति के तनाव को और भी बढ़ा देता है।

महिलाओं पर डायबिटीज का प्रभाव और मैनेज करने की चुनौतियां

हमारे पितृसत्तात्मक संरचना में महिलाओं को अपने जेंडर की वजह से अतिरिक्त समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पारिवारिक ज़िम्मेदारियां, काम का दबाव, समाज की उम्मीदें इन कठिनाइयों को और भी बढ़ा देती हैं। जेंडर रोल्स की वजह से हमारे समाज में महिलाओं पर पूरे परिवार की देखभाल का जिम्मा डाल दिया जाता है। इसके अलावा महिलाएं खुद को सबसे कम प्राथमिकता देती हैं। त्याग, सेवा और समर्पण के नाम पर शोषण का महिमामंडन करके महिलाओं के दिमाग में बचपन से ही यह कंडीशनिंग डाल दी जाती है। आज भी अगर कोई महिला अपनी ख़ुशी, सेहत और देखभाल को प्राथमिकता देती है, तो उसे स्वार्थी और बुरी महिला का खिताब दे दिया जाता है।

डायबिटिक बर्नआउट एक ऐसी स्थिति है जहां डायबीटीज से होने वाली चुनौतियों और मुश्किलों का सामना करते हुए व्यक्ति थक जाता है। यह थकावट सिर्फ शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी होती है। डायबिटिक व्यक्तियों को समय-समय पर ब्लड शुगर की जांच करना, उसपर निगरानी रखना, समय पर दवा लेना, खाने-पीने में परहेज और व्यायाम जैसे स्वास्थ्य देखभाल पहलुओं पर ध्यान देना होता है।

गृहणियों की मुश्किलें  

डायबिटीज को मैनेज करना थोड़ा मुश्किल और चुनौती भरा काम है। इसमें नियमित रूप से चेकअप, दवाएं और अनुशासित खान-पान और जीवनशैली शामिल है। भारत में डायबीटीज मैनेजमेंट पर हर महीने लगभग 6000 से लेकर 15,000 तक का खर्च या सकता है। महिलाओं के लिए यह चुनौती और भी बढ़ जाती है चाहे वो नौकरीपेशा हों या नहीं। अवैतनिक घरेलू काम करने वाली महिलाएं जो आर्थिक रूप से परिवार पर निर्भर होती हैं, उनके लिए यह और भी मुश्किल होता है। अगर किसी महिला को डायबीटीज है और वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है तो परिवार से अपने लिए मेडिकल सुविधा लेना ही उसे बहुत बड़ी बात लगती है। खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के लिए विशेष खान-पान, एक्सरसाइज, जिम जैसे चीजों को ग़ैरज़रूरी मानी जाती है। अवैतनिक काम करने वाली घरेलू महिलाओं की सेहत कहीं न कहीं पीछे रह जाती है।

तस्वीर साभार: Freepik

उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले की रहने वाली पूनम एक गृहिणी जिन्हें डायबिटीज है। वह कहती हैं, “परिवार और बच्चों के लिए खाना बनाने और दूसरे कामों में इतना थक जाती हूं कि अपने लिए अलग से कुछ बना पाने की हिम्मत नहीं बचती। साथ ही बजट का भी सोचना पड़ता है। इसके अलावा एक्सरसाइज करने का तो सवाल ही नहीं उठता। अगर किसी तरह समय भी निकालूं तो न तो इसके लिए घर में ठीक-ठाक जगह है न आस-पास कोई ऐसा पब्लिक प्लेस है जहां पर हम जैसी महिलाएं एक्सरसाइज कर सकें। हम तो बीमार होना भी अफोर्ड नहीं कर सकते।”

परिवार और बच्चों के लिए खाना बनाने और दूसरे कामों में इतना थक जाती हूं कि अपने लिए अलग से कुछ बना पाने की हिम्मत नहीं बचती। साथ ही बजट का भी सोचना पड़ता है। इसके अलावा एक्सरसाइज करने का तो सवाल ही नहीं उठता। अगर किसी तरह समय भी निकालूं तो न तो इसके लिए घर में ठीक-ठाक जगह है न आस-पास कोई ऐसा पब्लिक प्लेस है जहां पर हम जैसी महिलाएं एक्सरसाइज कर सकें। हम तो बीमार होना भी अफोर्ड नहीं कर सकते।

आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाओं की चुनौतियां

जहां अवैतनिक घरेलू महिलाओं के लिए डायबीटीज को मैनेज करना चुनौतीपूर्ण है, वहीं वैतनिक कामकाजी महिलाओं की मुश्किलें भी कम नहीं है। उनके पास समय की कमी होती है जिस वजह से अपनी अलग से देख-भाल कर पाना मुश्किल होता है। डायबीटीज को नियंत्रित करने के लिए खान-पान में बदलाव सबसे ज़रूरी है। इसके लिए एक अलग तरह की डाइट अपनानी पड़ती है जिसमें शुगर, तले-भुने और मीठे खाद्य पदार्थों की मात्रा कम या न के बराबर हो। ऑफिस और घर को मुश्किल से संभाल पाती महिलाओं के लिए अपने लिए अलग डाइट प्लान बनाना किसी चुनौती से कम नहीं है। इसके साथ ही जिम या एक्सरसाइज के लिए समय निकालना भी इनके लिए आसान नहीं होता। इन सब के साथ ही पैसे कमाने के बावजूद उसका बड़ा हिस्सा अपने ऊपर खर्च करना भी मुमकिन नहीं होता है। कम वेतन वाली नौकरियों में यह और भी मुश्किल होता है।

इस विषय पर गुड़गांव की 40 वर्षीय कॉलेज लेक्चरर सुमन बताती हैं, “कामकाजी होने के कुछ फ़ायदे तो हैं पर अपने नुकसान भी हैं। हमें घर और ऑफिस की दोहरी ज़िम्मेदारियों से जूझना पड़ता है। ऐसे में डायबीटीज हो जाने से मेरी मुश्किलें कई गुना बढ़ गई। संयुक्त परिवार के बीच रहते हुए मुश्किल से समय निकालकर अपने लिए अलग से डायट प्लान बनाया तो किसी को रास नहीं आया। सबको यह लगता है कि मैं अपने पैसे अपने ही ऊपर ही उड़ाना चाहती हूं। इन सब का असर काफ़ी गहरा होता है और बहुत बार गिल्ट वाली फीलिंग देता है।”

संयुक्त परिवार के बीच रहते हुए मुश्किल से समय निकालकर अपने लिए अलग से डायट प्लान बनाया तो किसी को रास नहीं आया। सबको यह लगता है कि मैं अपने पैसे अपने ही ऊपर ही उड़ाना चाहती हूं। इन सब का असर काफ़ी गहरा होता है और बहुत बार गिल्ट वाली फीलिंग देता है।

इस तरह डायबीटीज का असर केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह मानसिक स्वास्थ्य को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। नियमित रूप से ब्लड शुगर लेवल की जांच और निगरानी, दवाएं लेना और डाइट पर ध्यान देना महिलाओं के लिए सारे कामकाज के बीच बेहद तनाव भरा हो सकता है। ख़ुद पर ध्यान देने और परिवार और दूसरों के देखभाल के लिए समय न निकालने पर उम्मीदें पूरा न कर पाने का अपराधबोध भी होता है। हालांकि अपनी देखभाल न कर पाने पर बीमारी बढ़ने का जोख़िम और उससे होने वाली शारीरिक समस्याओं की वजह से चिंता बढ़ती है। डायबिटीज की वजह से आंखों की रोशनी कम होना, किडनी और दिल से जुड़ी बीमारियों का ख़तरा ज्यादा होता है ऐसे में भविष्य में होने वाली मुश्किलों को लेकर भी तनाव रहता है जो कभी-कभी डायबिटिक बर्नआउट की वजह बन जाता है।

क्या हो सकती है आगे की राह

तस्वीर साभार: Freepik

डायबिटिक बर्नआउट से निपटने के लिए न सिर्फ़ महिलाओं को बल्कि परिवार और समाज को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी। सरकार और समाज को इस मुद्दे को गंभीरता से लेना होगा। सरकार को चाहिए कि शहर से लेकर गांवों तक उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाएं कम से कम दरों पर उपलब्ध कराए। आर्थिक रूप से कमज़ोर महिलाओं के लिए डायबीटीज की दवाएं और चेकअप सुविधा उपलब्ध कराना बेहद ज़रूरी है। इसके साथ ही डाइट के लिए अलग से आर्थिक मदद भी दी जा सकती है। पूरे समाज को इसके लिए जागरुक बनाना पड़ेगा, जिससे महिलाओं को अपनी देखभाल के लिए समय और संसाधन उपलब्ध कराए जा सकें। यह समझना बेहद ज़रूरी है कि किसी भी व्यक्ति के लिए ख़ुद को प्राथमिकता देना और देखभाल करना स्वार्थी होना नहीं है।

परिवार के सभी सदस्यों को भी अपनी ज़िम्मेदारी खुद उठाना सीखना होगा जिससे महिलाओं पर दूसरों के देखभाल का अतिरिक्त बोझ न पड़े। महिलाओं को भी अपनी सेहत को प्राथमिकता देनी होगी। संतुलित भोजन, नियमित व्यायाम, समय पर चेकअप और निगरानी डायबिटिक बर्नआउट से बचने में कारगर कदम साबित हो सकते हैं। इसके साथ ही ज़रूरत पड़ने पर प्रोफेशनल काउंसलर की मदद भी ली जा सकती है। डायबिटिक लोगों के सपोर्ट ग्रुप का हिस्सा बनकर एक दूसरे से मदद लेना भी काफ़ी अच्छा उपाय है, जहां एक दूसरे के अनुभवों से बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है। यहां ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि परिवार, समाज और सरकार को मिलकर महिलाओं के इस संघर्ष में साथ देना होगा जिससे वे भी एक सेहतमंद ज़िन्दगी जी सकें।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content