इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत खेती में महिला किसानों का योगदान और जमीनी हक की लड़ाई

खेती में महिला किसानों का योगदान और जमीनी हक की लड़ाई

महिला किसानों को जमीनी अधिकार नहीं मिलता है। आमतौर पर जमीन पिता के बाद पुत्र के नाम हो जाती है और ससुराल में ससुर की जमीन पति के नाम कर दी जाती है। भारत मानव विकास सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 83 फीसद कृषि भूमि पुरुष सदस्यों को परिवार से रियासत में मिलती है।

हमारे देश में हजारों ग्रामीण महिलाएं खेतों में काम करती हैं और कृषि की तरक्की में अपना पूरा योगदान दे रही है। लेकिन जब भी किसान की बात करता है तो उसमें बस पुरुषों को ही आमतौर पर शामिल किया जाता है। आवधिक सर्वेक्षण 2019-20 के अनुसार कृषि क्षेत्र में काम करने वाली ग्रामीण महिलाएं 75.7 प्रतिशत है। ये आंकडे ये भी बताते हैं कि खेतिहर मजदूर वर्ग में भी महिलाओं की भागीदारी बहुत ज्यादा है। महिला किसान बुआई, जुताई और कटाई सभी चरणों में फसल बोने से लेकर पकने तक पुरुषों से कम योगदान नहीं देत्ती। वहीं, ग्रामीण इलाकों में दूध उत्पादन पर भी जोर दिया जाता है। इसमें भी महिलाएं अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाती है।

काम करने के बावजूद इन महिलाओं को अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए घर के पुरुषों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना सरकार की किसानों को सीधा फायदा पहुंचाने वाली योजना है। इसमें किसान के नाम खेती योग्य भूमि होने पर उसे सालाना 6000 रुपये मिलेंगे। 15 नवंबर, 2023 को पीएम-किसान लाभार्थियों का कुल आंकड़ा 8.12 करोड़ था, जिनमें से 6.27 करोड़ या 77.33 प्रतिशत पुरुष और 1.83 करोड़ या 22.64 प्रतिशत महिलाएं थीं। कुल मिलाकर, महिला लाभार्थियों का उच्चतम अनुपात मेघालय (70.33 प्रतिशत) में दर्ज किया गया, उसके बाद नागालैंड (55.84 प्रतिशत), अरुणाचल प्रदेश (52.63 प्रतिशत) और मणिपुर (51.85 प्रतिशत) का स्थान रहा।

शादी से पहले मैंने पिता के घर में खेतों में फसल की जुताई, कटाई, मड़ाई, सफाई और आखिर में भंडारण हर प्रक्रिया में भाई और पिता के साथ काम किया और घरेलू काम भी करती थी। मैं आठवीं कक्षा तक पढ़ी हूं, जिसके बाद मेरी शादी कर दी गई। अब 63 वर्ष की हो गई हूं और अब भी पति की 5 एकड़ जमीन पर काम कर रही हूं।

महिलाओं की जमीनी भागीदारी में कमी

तस्वीर साभार: Canva

महिला किसानों को जमीनी अधिकार नहीं मिलता है। आमतौर पर जमीन पिता के बाद पुत्र के नाम हो जाती है और ससुराल में ससुर की जमीन पति के नाम कर दी जाती है। भारत मानव विकास सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 83 फीसद कृषि भूमि पुरुष सदस्यों को परिवार से रियासत में मिलती है। वहीं महिलाओं को सिर्फ 2 फीसद उत्तराधिकारी में मिली है। महिलाएं केवल खेतों में जाकर मेहनत करती रह जाती है जिनका मालिकाना हक भी उन्हें प्राप्त नहीं होता है। जमीनी अधिकार पर हरियाणा के मालापुर की निवासी कमल बताती हैं, “शादी से पहले मैंने पिता के घर में खेतों में फसल की जुताई, कटाई, मड़ाई, सफाई और आखिर में भंडारण हर प्रक्रिया में भाई और पिता के साथ काम किया और घरेलू काम भी करती थी। मैं आठवीं कक्षा तक पढ़ी हूं, जिसके बाद मेरी शादी कर दी गई। अब 63 वर्ष की हो गई हूं और अब भी पति की 5 एकड़ जमीन पर काम कर रही हूं।”

महिलाओं के नाम क्यों नहीं हो सकती ज़मीन   

फेमिनिज़म इन इंडिया के पूछने पर कि क्या उन्हें जमीनी मालिकाने का अधिकार लेने का विचार नहीं आया, तो वह बताती हैं, “जमीन तो पुरुषों के नाम ही होती है और होनी भी चाहिए। किसी बहन को भाई का हक नहीं मारना चाहिए और ससुराल में भी तो ससुर की जमीन बेटों के नाम ही तो होगी। हमने जमीन ली तो हम तो हमारा मायका ही खो देंगी। हमें तो घर में नहीं बुलाया जाएगा।” जमीनी अधिकार पर बात करते हुए, 42 वर्षीय सिवानी निवासी मुकेश बताते हैं, “मेरे नाम जमीन सिर्फ इस वजह से है क्योंकि मेरे भाई की मौत बचपन में ही हो गई थी। अगर वह जीवित होते, तो मैं खुद वो जमीन नहीं लेती।” वहीं, लोहारू (हरियाणा) की निवासी 45 वर्षीय उर्मिला कहती हैं, “ये तो मेरा काम है कि पति के साथ खेतों में काम करें। उनके बिना भी खेतों में जाकर खरपतवार निकालना, भैंसों के लिए चारा लाना ये काम हमें ही करना है। मर्द घर का काम नहीं करेंगे। दिन में अगर सिंचाई हो रही है, तो मुझे साथ में जाकर मदद करनी होती है। जमीनी हक के बारे में तो मैंने कभी सोचा नहीं क्योंकि मुझे मालूम ही नहीं है कि महिलाओं के नाम जमीन भी हो सकती है।”

जमीन तो पुरुषों के नाम ही होती है और होनी भी चाहिए। किसी बहन को भाई का हक नहीं मारना चाहिए और ससुराल में भी तो ससुर की जमीन बेटों के नाम ही तो होगी। हमने जमीन ली तो हम तो हमारा मायका ही खो देंगी। हमें तो घर में नहीं बुलाया जाएगा।

पितृसत्ता और औरतों का जमीनी मालिकाने का अधिकार

फेमिनिज़म इन इंडिया के पूछे जाने पर कि क्या उन्हें जिस जमीन पर वो काम करती आ रही है उसका हक चाहिए, वह बताती हैं, “मुझे इसका अधिकार नहीं चाहिए। गांव की औरतें ही मेरे बारे में गलत कहेंगी कि अपने भाई का हक खा गई।” इनके अलावा भूमिहीन मजदूर महिलाएं भी खेतों में जाकर अपने पति मजदूर के मुकाबले में अधिक काम करती है। भारत मानव विकास सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार 81 फीसद महिलाएं कृषि मजदूर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से और आवधिक और भूमिहीन मजदूरी में सबसे अधिक योगदान दे रही है। कमला, मुकेश और उर्मिला जैसी महिलाओं की बातों से साफ है कि उन्हें अपने अधिकार के बारे में पता नहीं है। साथ ही उन्हें समाज का भी डर है। उन्हें गलत समझा जाएगा या खुद उनके परिवार वाले ही उनको बहिष्कृत कर देंगे।

शिक्षा का अभाव और जागरूकता की कमी

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तीनों महिलाओं को ही खेती से संबंधित कोई शिक्षा नहीं है। इन महिलाओं को ट्रैक्टर से संबंधित ज्ञान भी नहीं है। वे ऐसे वहां को चलाने में असमर्थ हैं और कौन-सी मशीन का इस्तेमाल करना ज्यादा फायदेमंद रहता है, उनको जानकारी नहीं है। इसलिए, इन कामों के लिए महिलाएं पुरुषों आश्रित है। महिलाएं घरेलू जिम्मेदारियों के साथ-साथ खेती का काम करती हैं। इससे उनके शरीर को आराम नहीं मिल पाता है और वे खेती में अधिक श्रम बल वाले काम कर पाने में कई बार असमर्थ होती हैं। शारीरिक तौर पर दोहरे काम के बोझ से महिलाओं को शारीरिक और मानसिक थकान महसूस होना जायज़ है। घर-परिवार और पशुओं की जिम्मेदारी के बीच उन्हें आराम नहीं मिल पाता है।

भारत मानव विकास सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 83 फीसद कृषि भूमि पुरुष सदस्यों को परिवार से रियासत में मिलती है। वहीं महिलाओं को सिर्फ 2 फीसद उत्तराधिकारी में मिली है।

महिला किसान विभिन्न तरह से दे रही हैं योगदान

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार भारत के कृषि क्षेत्र में महिलाओं का योगदान लगभग 32 प्रतिशत है। इनके अलावा कुछ राज्य जैसे केरल और तमिलनाडू में महिलाओं का योगदान पुरुषों से अधिक है। लगभग 48 फीसदी महिलाएं कृषि संबंधी रोजगार में शामिल हैं। वहीं 7.5 करोड़ से ज्यादा दूध उत्पादन और पशुधन मैनेजमेंट में अपनी भूमिका निभा रही है। महिलाएं सबसे अधिक कटाई में अपना योगदान दे रही है। गेंहू, बाजरा, सरसों, चना, मेथी, जौ, धान जैसी फसलों की कटाई, कढ़ाई, सफाई और भंडारण में हरियाणा क्षेत्र की महिलाओं का योगदान पुरुषों के मुकाबले अधिक होता है। इसके अलावा बारीकी से काम होने वाले फसलों जैसे कपास, मूंग में भी महिलाएं पूरे दिन खेतों में खड़े होकर काम करती हैं। फसलों के अलावा पशु पालन में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले अधिक मेहनत करती हैं। पीरियड्स के दौरान पूरे दिन खेतों में धूप में काम करना बहुत मुश्किल होता है। वहीं खेती में आय कम होने के कारण हजारों पुरुषों ने शहरों की ओर रुख कर लिया, जिसके बाद खेतों का कार्यभार महिलाओं ने ही संभाला हुआ है।

महिला किसानों की अहम भूमिका

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ग्रामीण इलाकों में बहुत कम महिलाएं किसानों के लिए चलाई गई नीतियों बारे जागरूक होती है। जिन महिला किसानों से हमने बात की, उन्हें महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना के बारे में पता ही नहीं था। हरियाणा में 29,672 महिला किसानों को प्रशिक्षण दिया गया है जबकि महिला किसानों की संख्या पीएम किसान योजना में 2,31,263 है। राज्यसभा में पेश की गई पीएम किसान योजना की रिपोर्ट में था कि देश में कुल 8,70,12,401 पात्रों को फायदा मिला जिसमें 1,99,87,669 महिलाएं थी। वहीं 2011 की कृषि जनगणना के अनुसार देश में महिला किसानों की संख्या 3,60,45,846 है जबकि खेतों में महिला मजदूरों की संख्या 6,15,91,353 है। पुरुषों के समान काम करने के बावजूद समाज में महिला किसान शब्द का अस्तित्व न होना महिलाओं की भागीदारी को अनदेखा करना है। देश की उन्नति में महिला हर प्रकार से योगदान दे रही है। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को खेती संबंधित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। समय-समय पर महिला किसानों को सम्मानित किया जाना चाहिए और उनके जागरूकता की दिशा में तत्काल काम करना होगा।

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