केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किया गया 2025 का बजट आजकल चर्चा में है। इसमें मध्य वर्ग को करों में छूट को लेकर किए गए प्रावधान की सराहना हो रही है। साथ ही इस आधार पर इसकी आलोचना भी हो रही है कि इसमें हाशिए के समुदायों के लिए कोई ख़ास प्रावधान नहीं है। हालांकि 2025-26 के बजट में ‘सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग’ को 13,611 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है, जो पिछले वित्त वर्ष 2024-25 के संशोधित अनुमान यानी 10,026.40 करोड़ रुपये से 35.75 फीसद अधिक है। लेकिन समाज के एक तबके में बजट को लेकर कोई ख़ास उत्साह नहीं है। हमारे समाज में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हाशिए पर रखे गए समुदायों ख़ासतौर पर विकलांग और एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों को लेकर इस बजट में कोई ठोस योजना नज़र नहीं आती। इससे इस बजट की समावेशिता पर सवाल उठते हैं।
विकलांग व्यक्तियों के लिए बजट: उम्मीदें और हक़ीक़त
भारत में हुई पिछली जनगणना 2011 के अनुसार देश की कुल आबादी का 2.2 फीसद हिस्सा किसी न किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक विकलांगता से ग्रस्त है। इस समय देश की आबादी से इस की तुलना की जाए तो यह संख्या 3 करोड़ से ज़्यादा ही है। ज़ाहिर सी बात है कि 14 वर्ष बीत जाने के बाद आज 2025 में यह संख्या कहीं अधिक होगी। इसके बावजूद बजट में विकलांग व्यक्तियों के लिए सिर्फ़ 1275 करोड़ यानी कुल बजट का 0.025 फीसद राशि ही आवंटित की गई है। इसमें विकलांग लोगों को सहायक उपकरण खरीदने के लिए 316.7 करोड़ रुपये, दीनदयाल दिव्यांगजन पुनर्वास योजना के लिए 165 करोड़ रुपये और विकलांग छात्रों की छात्रवृत्ति के लिए 145 करोड़ रुपये शामिल हैं।

इसके साथ ही विकलांग व्यक्तियों के कल्याण हेतु राष्ट्रीय पुनर्वास संस्थानों को 430.19 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। साथ ही ‘राष्ट्रीय विकलांग वित्त और विकास निगम’ और ‘भारतीय कृषि कृत्रिम अंग निर्माण निगम’ को संयुक्त रूप से 240 करोड़ रुपयों का आवंटन किया गया है। पिछले साल यानी 2024-25 के बजट में ‘दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग’ को 1,225.27 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। इस बार इस में मामूली बढ़त देखने को मिल रही है।
ग़ौरतलब है कि विकलांगों को 2012 से महज ₹300 प्रति माह की पेंशन दी जा रही है जो कि बढ़ती महंगाई के हिसाब से न के बराबर है। 12 साल में महंगाई के साथ पेंशन का न बढ़ाया जाना अफ़सोसजनक है।
‘नेशनल प्लेटफॉर्म फॉर राइट्स ऑफ डिसएबल्ड’ (एनपीआरडी) ने सरकार के विकलांग नागरिकों की ज़रूरतों को अनदेखा करने के लिए सरकार की आलोचना की है। द प्रिंट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार एनपीआरडी ने इस बजट पर अपनी चिंता ज़ाहिर की। इसके अनुसार सरकार ने दिव्यांगता पहल में निर्धारित धनराशि का पूरा उपयोग भी नहीं किया है। इसके अलावा दिव्यांगों के लिए पहले से चल रही विभिन्न केंद्रीय योजनाओं के लिए धनराशि में भी कटौती की गई है। आर्थिक सर्वेक्षण में बार-बार दी गई चेतावनी के बावजूद विकलांगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए ‘टेलीमेंटल’ स्वास्थ्य कार्यक्रम का बजट भी 90 करोड़ रुपये से घटाकर 79.60 करोड़ रुपये कर दिया गया है , जोकि बेहद निराशाजनक है।
विकलांग व्यक्तियों के प्रति सरकार की उदासीनता के ख़िलाफ़ एनपीआरडी ने 10 फरवरी को विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है, जिसमें विकलांग व्यक्तियों का अधिकार अधिनियम को लागू करने, मौजूदा पेंशन को 300 रुपए से बढ़ाकर 5,000 रुपये प्रति माह करने की मांग की जाएगी। ग़ौरतलब है कि विकलांगों को 2012 से महज ₹300 प्रति माह की पेंशन दी जा रही है जो कि बढ़ती महंगाई के हिसाब से न के बराबर है। 12 साल में महंगाई के साथ पेंशन का न बढ़ाया जाना अफ़सोसजनक है। इससे यह साफ पता चलता है कि सरकार इस समुदाय के प्रति कितनी संवेदनशील है।
विकलांग व्यक्तियों के प्रति सरकार की उदासीनता के ख़िलाफ़ एनपीआरडी ने 10 फरवरी को विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है, जिसमें विकलांग व्यक्तियों का अधिकार अधिनियम को लागू करने, मौजूदा पेंशन को 300 रुपए से बढ़ाकर 5,000 रुपये प्रति माह करने की मांग की जाएगी।
महत्त्वपूर्ण योजनाओं पर प्रभाव
‘सुगम्य भारत योजना’ विकलांग व्यक्तियों के लिए सार्वजनिक जगहों को सुविधाजनक बनाए जाने के लिए चलाई गई थी। इसमें सरकारी कार्यालयों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशन और दूसरी जगहों को व्हीलचेयर के अनुकूल बनाए जाने का प्रावधान है। बजट की कमी से इस अभियान को लागू करना मुश्किल हो सकता है। सार्वजनिक जगहों पर सभी की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए यह ज़रूरी है कि उनके अनुकूल ढांचागत सुधार किए जाएं। विकलांग व्यक्तियों के लिए व्हीलचेयर की उपलब्धता, रैंप, ब्रेल साइन, विशेष शौचालय जैसी सुविधाएं पहले से ही बहुत कम जगह पर मौजूद हैं इससे उनकी गतिशीलता और अवसरों तक पहुंच सीमित हो जाती है।

इसके अलावा पर्याप्त धनराशि आवंटित न किए जाने से सरकार द्वारा बनाया गया विकलांग अधिकार अधिनियम की सार्थकता पर भी सवाल उठाते हैं। कोई भी योजना बनाए जाने के साथ ही ज़्यादा ज़रूरी है कि उसको सही तरीके से लागू किया जाए वरना तो यह महज खानापूर्ति ही रह जाती है। इसके अलावा 2025 के बजट में विकलांग व्यक्तियों के लिए रोजगार और कौशल विकास की कोई ख़ास योजना नहीं लाई गई है। इस समुदाय के लिए विशेष तौर पर कौशल विकास कार्यक्रम ज़रूरी हैं, जिससे वे रोज़गार हासिल कर अपना जीवनयापन कर सकें। लेकिन इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
2025 के बजट में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के बारे में कोई ज़िक्र तक नहीं किया गया है। भारत में एलजीबीटीक्यू+ भारत की आबादी का लगभग 10 फीसद हिस्सा है, जिसका मतलब है कि लगभग 135 मिलियन लोग एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से संबंधित हैं।
एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के मुद्दों पर चुप्पी
2025 के बजट में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के बारे में कोई ज़िक्र तक नहीं किया गया है। भारत में एलजीबीटीक्यू+ भारत की आबादी का लगभग 10 फीसद हिस्सा है, जिसका मतलब है कि लगभग 135 मिलियन लोग एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से संबंधित हैं। 2018 में होमोसेक्शूएलिटी को अपराध के दायरे से बाहर किए जाने के बावजूद अभी भी क्वीयर समुदाय को न तो सामाजिक स्वीकृति मिल पाई है न ही समानता का क़ानूनी अधिकार। यह समुदाय सदियों से मुख्यधारा से अलग-थलग रखा गया है। सुप्रीम कोर्ट में सेम सेक्स मैरिज पर बहस के दौरान सरकार ने होमोसेक्शूएलिटी को ‘शहरी एलीट कॉन्सेप्ट’ बताते हुए सेम सेक्स मैरिज को वैध बनाने से इनकार कर दिया था। इस मामले में वर्तमान सरकार का रुख हमेशा से ही पारंपरिक रूढ़िवादी सोच से ग्रसित है। ऐसे में बजट में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की चर्चा तक न होना चौंकाता नहीं है।
क्वीयर समुदाय के कुछ ज़रूरी मुद्दे

क्वीयर समुदाय को सेहत से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है लेकिन इसके लिए अब तक कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया है। ख़ासतौर पर ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए हार्मोन थेरेपी और जेंडर री-असाइनमेंट सर्जरी काफ़ी जटिल मसला है। इसके लिए इन्हें परिवार और समाज से सहयोग भी कम ही मिल पाता है। साथ ही नौकरियों में भेदभाव की वजह से अक्सर इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रहती। ऐसे में सरकार को इनके लिए अलग से योजनाएं चलाने और उन्हें ठीक से लागू करने की ज़रूरत है।
इसके अलावा एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं भी अधिक होती हैं। अपनी पहचान और यौनिकता को लेकर असमंजस की स्थिति, जेंडर बाइनरी खांचे में खुद को फिट न पाना, परिवार और समाज द्वारा किया जाने वाला भेदभाव क्वीयर समुदाय में तनाव और डिप्रेशन जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की बड़ी वजह है। इसके अलावा आर्थिक अवसरों की कमी, सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियां मुश्किलों को और बढ़ाने का काम करती हैं। ऐसे में बजट में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को अनदेखा करना बेहद निराशाजनक है।
इस समय देश की आबादी से इस की तुलना की जाए तो यह संख्या 3 करोड़ से ज़्यादा ही है। ज़ाहिर सी बात है कि 14 वर्ष बीत जाने के बाद आज 2025 में यह संख्या कहीं अधिक होगी। इसके बावजूद बजट में विकलांग व्यक्तियों के लिए सिर्फ़ 1275 करोड़ यानी कुल बजट का 0.025 फीसद राशि ही आवंटित की गई है।
क्या किए जाने की ज़रूरत है?
सरकार को ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे को सार्थक करने के लिए समावेशी बजट की जरूरत है। हाशिए पर रहे समुदायों के लिए नीतियां बनाकर उन्हें मुख्यधारा में लाना आवश्यक है। विकलांग व्यक्तियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कौशल विकास योजनाएं चलानी चाहिए और सरकारी व निजी संस्थानों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए। छोटे व्यवसायों को प्रोत्साहन और पेंशन राशि महंगाई के अनुसार बढ़ाना जरूरी है। सार्वजनिक स्थानों पर उनकी सुगमता के लिए बुनियादी ढांचे में बदलाव भी अहम है। इसके लिए बजट में पर्याप्त धनराशि आवंटित करना महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।

बजट में LGBTQ+ समुदाय के प्रति सरकार का भेदभाव साफ नज़र आता है। जिस तरह समाज ने उनके अस्तित्व को नकारा है, सरकार का रवैया भी वैसा ही प्रतीत होता है। स्कूल, कॉलेज, ऑफिस और सार्वजनिक स्थानों पर भेदभाव रोकने के लिए क़ानून बनाए जाने चाहिए। इसके साथ जागरूकता अभियान ज़रूरी हैं ताकि इसे अप्राकृतिक या पश्चिमी अवधारणा मानने की ग़लतफ़हमियां दूर हों।
क्वीयर समुदाय को आत्मनिर्भर बनाने के लिए स्वरोजगार योजनाएं, कौशल विकास, विशेष लोन और नौकरी में आरक्षण जैसे प्रावधान हो सकते हैं। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए सर्जरी, हार्मोन थेरेपी और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा भी सुनिश्चित होनी चाहिए। समलैंगिक विवाह की क़ानूनी मान्यता, बच्चा गोद लेने का अधिकार, संयुक्त बैंक खाता और राशन कार्ड में परिवार की मान्यता जैसे कदम समावेशिता की दिशा में अहम हैं। समावेशिता केवल नारों से नहीं, बल्कि ठोस नीतियों से आती है। जब तक हाशिए के समुदायों की समस्याओं का समाधान नहीं होगा, तब तक ‘सबका साथ, सबका विकास’ एक कागज़ी नारा ही रहेगा।