गर्भावस्था किसी भी महिला के जीवन का एक खूबसूरत अनुभव होता है। लेकिन यह पल उत्साह के साथ-साथ अनेक प्रकार की जटिलताएं भी साथ ला सकता है। इस समय गर्भवती महिलाओं के मन में अनगिनत सवाल उठते हैं, लेकिन अमूमन इन सवालों के जवाब मिथकों और अंधविश्वासों से घिरे होते हैं। ये मिथक न केवल ग़लत धारणाओं को बढ़ावा देते हैं, बल्कि महिलाओं के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। हालांकि विज्ञान और शोध ने कई ऐसे मिथकों को गलत साबित किया है। लेकिन अब भी ये समाज में गहराई से अपनी जगह बनाए हुए हैं। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम विज्ञान के दृष्टिकोण से इन मान्यताओं की सच्चाई परखें और गर्भवती महिलाओं को सही जानकारी प्रदान करें।
हमारे समाज में एक आम मिथक है कि गर्भवती महिला को ज़्यादा से ज़्यादा आराम करना चाहिए, अधिक चलना-फिरना या व्यायाम करना हानिकारक हो सकता है। हालांकि विज्ञान के अनुसार, गर्भावस्था के दौरान आप जितना ज़्यादा सक्रिय और फिट रहेंगे, आपके लिए अपने बदलते आकार और वज़न बढ़ने के साथ तालमेल बिठाना उतना ही आसान होगा। इससे प्रसव पीड़ा से निपटने में भी मदद मिलती है। डॉक्टर गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को व्यायाम करने की सलाह देते हैं, क्योंकि यह प्रसव को सहज बनाने में मदद करता है। हालांकि, नए और मुश्किल व्यायाम करने से बचना चाहिए, क्योंकि शरीर उन्हें तुरंत अपनाने में सक्षम नहीं हो सकता।
आमतौर पर, डॉक्टर भारी-भरकम कामों के बजाए रोज़मर्रा के हल्के घरेलू काम जारी रखने की सलाह देते हैं। डॉक्टर के अनुसार यदि गर्भावस्था में कोई जटिलता नहीं है, तो नियमित रूप से हल्का या मध्यम व्यायाम करना फायदेमंद होता है, और महिलाओं को इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाना चाहिए। जो व्यायाम पहले से किए जा रहे थे, वे आमतौर पर सुरक्षित होते हैं। लेकिन यदि किसी तरह का संदेह हो तो डॉक्टर या दाई से परामर्श लेना जरूरी होता है।
यह धारणा पोषण के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करती है। गर्भावस्था के दौरान अतिरिक्त कैलोरी की ज़रूरत होती है, लेकिन यह मात्रा बहुत अधिक नहीं होती। पहली तिमाही में सामान्य आहार पर्याप्त होता है, जबकि दूसरी और तीसरी तिमाही में लगभग 300-500 अतिरिक्त कैलोरी की जरूरत होती है।
क्या दो लोगों का खाना जरूरी होता है
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गर्भवती महिलाओं को अक्सर ये सलाह दी जाती है कि उन्हें दो लोगों का खाना खाना चाहिए। हालांकि विज्ञान के अनुसार ऐसा कोई तथ्य नहीं है जो यह दिखाता हो कि गर्भवती होने पर 2 लोगों के लिए खाने की जरूरत है। किसी भी महिला को कितनी अतिरिक्त कैलोरी खाने की ज़रूरत है यह उसके वज़न और लंबाई, उसकी सक्रियता और महिला की गर्भावस्था कितनी आगे बढ़ चुकी है, इस पर निर्भर करेगा। यह धारणा पोषण के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करती है। गर्भावस्था के दौरान अतिरिक्त कैलोरी की ज़रूरत होती है, लेकिन यह मात्रा बहुत अधिक नहीं होती। पहली तिमाही में सामान्य आहार पर्याप्त होता है, जबकि दूसरी और तीसरी तिमाही में लगभग 300-500 अतिरिक्त कैलोरी की जरूरत होती है। ज़रूरी यह है कि भोजन पोषणयुक्त हो, न कि मात्र अधिक मात्रा में खाया जाए।
पेट का आकार और अलग-अलग भ्रांति
ऐसा ही एक मिथक है कि पेट के आकार से बच्चे का लिंग पता लगाया जा सकता है। लोगों में ये ग़लत धारणा होती है कि अगर पेट नुकीला है, तो लड़का होगा और पेट गोल है तो लड़की होगी। वहीं कुछ लोग पेट पर बनी लकीरों के माध्यम से शिशु का लिंग पता करने की कोशिश करते हैं। जबकि कुछ लोग हृदय गति के ज़रिए जेंडर पता करने का दावा करते हैं। लेकिन, ये सारी बातें पूरी तरह से अंधविश्वास है। वैज्ञानिक रूप से, पेट का आकार गर्भाशय की स्थिति, माँ के शरीर के प्रकार और बच्चे के विकास पर निर्भर करता है, न कि उसके लिंग पर। गर्भावस्था के दौरान यात्रा करने पर भी लोगों में कई तरह की भ्रांतियां होती हैं, जैसे गर्भ ठहरने के कितने माह तक यात्रा करना ठीक है? सूरज ढलने के बाद गर्भवती महिला का घर से निकलना असुरक्षित है। हालांकि जब तक गर्भावस्था सामान्य रूप से आगे बढ़ रही है और कोई जटिलता नहीं है, तब तक यात्रा करना पूरी तरह सुरक्षित है। हवाई यात्रा और ट्रेन से सफर करने के लिए आमतौर पर दूसरी तिमाही सबसे अनुकूल होती है। हालांकि, लंबे सफर में डॉक्टर से परामर्श ज़रूर लेना चाहिए।
गर्भावस्था के दौरान यात्रा करने पर भी लोगों में कई तरह की भ्रांतियां होती हैं, जैसे गर्भ ठहरने के कितने माह तक यात्रा करना ठीक है? सूरज ढलने के बाद गर्भवती महिला का घर से निकलना असुरक्षित है। हालांकि जब तक गर्भावस्था सामान्य रूप से आगे बढ़ रही है और कोई जटिलता नहीं है, तब तक यात्रा करना पूरी तरह सुरक्षित है।
क्या है भ्रम
इन मिथकों के लिस्ट में खाने-पीने से जुड़े भ्रम की भी कमी नहीं है। हमारे समाज में ये आम धरना है कि गर्भवती महिला को पपीता और अनानास नहीं खाना चाहिए। यह धारणा इस तथ्य पर आधारित है कि कच्चे पपीते में पपैन नामक एंजाइम होता है, जो गर्भाशय को उत्तेजित कर सकता है। हालांकि, पका हुआ पपीता सुरक्षित होता है और इसमें मौजूद पोषक तत्व गर्भवती महिला के लिए फायदेमंद होते हैं। इसी तरह, अनानास में ब्रोमेलिन होता है, जो गर्भाशय को हल्का नरम कर सकता है, लेकिन इसे सामान्य मात्रा में खाने से कोई समस्या नहीं होती। वहीं एक धरना ये है कि मसलेदार खाना खाने से मिस्कैरेज हो सकता है या आपका बच्चा अंधा पैदा हो सकता है, जबकि गर्भावस्था के दौरान ज्यादा मसालेदार भोजन खाने से महिलाओं को एसिडिटी जैसी समस्याओं का अधिक सामना करना पड़ सकता है। लेकिन ये बच्चे को अंधा नहीं बनाता।
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देश में कुछ लोगों का ये भी मानना है कि गर्भवती महिला को दूध, बटर, पीनट जैसे उत्पादों से इसलिए दूर रहना चाहिए क्यों कि ये बच्चे में एलर्जी विकसित करता है। जबकि चिकित्सकों की मानें तो महिलाएं वो सारे खाद्य पदार्थ खा सकती हैं, जबतक उन्हें खुद इससे एलर्जी न हो। इस से बच्चे की एलर्जी से कोई संबंध नहीं है। हालांकि कुछ ऐसे खाद्य पदार्थ हैं जिससे गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को परहेज़ करना चाहिए जैसे, शराब का सेवन करना , अधिक मात्रा में कैफ़ीन का उपभोग या ऐसी मछलियां जिनमें पारा की मात्रा अधिक हो। ऐसे खाद्य पदार्थ जिनमें रोगाणु होने की अधिक संभावना होती है जो खाद्य जनित बीमारी का कारण बन सकते हैं। जैसे, अधपका हुआ मांस, पोल्ट्री, अंडे और समुद्री भोजन जो गर्भवास्था के दौरान नुकसानदेह हो सकते हैं।
हमारे समाज में ये आम धरना है कि गर्भवती महिला को पपीता और अनानास नहीं खाना चाहिए। यह धारणा इस तथ्य पर आधारित है कि कच्चे पपीते में पपैन नामक एंजाइम होता है, जो गर्भाशय को उत्तेजित कर सकता है। हालांकि, पका हुआ पपीता सुरक्षित होता है और इसमें मौजूद पोषक तत्व गर्भवती महिला के लिए फायदेमंद होते हैं।
अलग-अलग अंधविश्वास और प्रेग्नन्सी
ऐसे ही एक धारणा ये है कि गर्भवती महिला का मूड उसके बच्चे के लिंग को दिखाता है जबकि विज्ञान कहता है कि यह बात पूरी तरह से निराधार है। किसी भी महिला के मूड स्विंग्स हार्मोनल बदलावों के कारण होते हैं, न कि बच्चे के लिंग के कारण। गर्भावस्था के दौरान एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन जैसे हार्मोन बढ़ते हैं, जिससे भावनात्मक उतार-चढ़ाव आते हैं। कुछ ऐसी अवैज्ञानिक धारणाएं समाज में इतनी आम हो चुकी हैं कि वो धार्मिक पाखंड का रूप ले चुकी हैं, जैसे गर्भावस्था में सूर्य या चंद ग्रहण देखना बच्चे पर बुरा असर डालता है, इससे बच्चे के तालू में दरार पड़ सकती है। लेकिन विज्ञान की माने तो यह मात्र एक पौराणिक विश्वास है जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। अब तक कोई भी शोध यह साबित नहीं कर पाया है कि ग्रहण देखने से अजन्मे शिशु पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह पूरी तरह से एक सामाजिक अंधविश्वास है।
गर्भावस्था से जुड़ी कई लोकधारणाओं में से एक यह भी है कि यदि किसी गर्भवती महिला को सीने में जलन होती है, तो उसके बच्चे के सिर पर अधिक बाल होंगे। साल 2006 में बर्थ पत्रिका में प्रकाशित जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में 64 गर्भवती महिलाओं पर शोध किया गया, जिसमें पाया गया कि जिन महिलाओं को ज्यादा सीने में जलन हुई, उनके शिशुओं के सिर पर अधिक बाल थे, और यह संबंध सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण था। वैज्ञानिकों का मानना है कि गर्भावस्था के दौरान हार्मोनल बदलाव पेट और पाचनतंत्र के बीच की मांसपेशियों को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे एसिड रिफ्लक्स बढ़ सकता है और ये हार्मोन भ्रूण के बालों के विकास में भी भूमिका निभा सकते हैं। हालांकि, इस अध्ययन में अधिकांश प्रतिभागी कोकेशियान थीं, इसलिए इस निष्कर्ष को वैश्विक तौर पर मानने से पहले अधिक शोध की आवश्यकता है। यह अध्ययन इस धारणा की पूरी तरह पुष्टि तो नहीं करता, लेकिन यह बताता है कि कुछ संबंध हो सकता है। फिर भी, हर गर्भावस्था अलग होती है, और सीने में जलन हमेशा अधिक बालों वाले बच्चे का संकेत नहीं देती।
अक्सर ये कहा जाता है कि पहले बच्चे की डिलीवरी ही मुश्किल होती है, जबकि दूसरी बार यह प्रक्रिया आसान हो जाती है। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हर गर्भावस्था अलग होती है, और यह मान लेना कि दूसरी डिलीवरी हमेशा आसान होगी, पूरी तरह सही नहीं है।
पहली डिलीवरी मुश्किल और बाद में आसान का तथ्य
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ऐसे ही मिथकों में एक मिथक में अक्सर ये कहा जाता है कि पहले बच्चे की डिलीवरी ही मुश्किल होती है, जबकि दूसरी बार यह प्रक्रिया आसान हो जाती है। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हर गर्भावस्था अलग होती है, और यह मान लेना कि दूसरी डिलीवरी हमेशा आसान होगी, पूरी तरह सही नहीं है। कई महिलाओं के लिए दूसरी बार का अनुभव पहले से अधिक जटिल हो सकता है, खासकर यदि उनकी पहली डिलीवरी सीज़ेरियन के जरिए हुई हो। इसके अलावा, प्रसव की जटिलता कई कारकों पर निर्भर करती है, जैसे महिला की शारीरिक स्थिति, उम्र, स्वास्थ्य, और पिछली गर्भावस्था के दौरान आने वाली समस्याएं। इसलिए, हर गर्भावस्था को एक अलग अनुभव के रूप में देखना और उचित चिकित्सीय परामर्श लेना जरूरी है।
ये समझना ज़रूरी है कि गर्भावस्था एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसे लेकर समाज में कई मिथक प्रचलित हैं। इन मिथकों की वजह से कई बार महिलाएं अनावश्यक तनाव और गलत धारणाओं का शिकार हो जाती हैं। ज़रूरी यह है कि हम वैज्ञानिक तथ्यों पर भरोसा करें और गर्भावस्था को एक स्वस्थ और सकारात्मक अनुभव बनाएं। आधुनिक चिकित्सा और शोधों के आधार पर सही जानकारी अपनाकर ही हम मातृ और शिशु स्वास्थ्य को बेहतर बना सकते हैं।