इंटरसेक्शनलजेंडर अगर गृहिणियों को वेतन मिले, तो उनकी ‘सैलरी’ कितनी हो?

अगर गृहिणियों को वेतन मिले, तो उनकी ‘सैलरी’ कितनी हो?

दुनिया भर में इस व्यवस्था के तहत महिलाएं घर की सफाई, खाना बनाना, बर्तन धोना, पानी की व्यवस्था करना, परिवार की वित्तीय व्यवस्था संभालना, भोजन से संबंधित वस्तुओं की व्यवस्था करना और लकड़ी लाना, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल करना जैसे काम करती हैं। वे प्रतिदिन औसतन 297 मिनट घरेलू कार्यों में खर्च  करती हैं, जबकि पुरुष केवल 31 मिनट का समय इस तरह के कामों में लगाते है। कु

मम्मी कल छुट्टी है खाने में क्या स्पेशल है?, मेरे कपड़े कहां है?, चाय कब मिलेगी?, बाहर गेट पर कौन है देखना जरा?, पासबुक कहां रखी है? अक्सर हमारे घरों में इस तरह के सवालों की लाइन घर पर रहकर काम करने वाली महिलाओं के लिए बनी रहती हैं। रोज घर में सबसे पहले जागकर काम पर लगने वाली गृहणियों की दिनचर्या रात में सबसे बाद तक चलती रहती है। न रविवार की छुट्टी और न ही उनके काम को काम मानना। दरअसल पितृसत्तात्मक समाज में घर का काम एक जिम्मेदारी है जिसे निभाना महिलाओं का कर्तव्य है। इस तरह से एक गृहिणी बिना वेतन के और मेहनत को काम का दर्जा न मिलने साल दर साल और पीढ़ी दर पीढ़ी  जिम्मेदारी के तौर पर श्रम करती रहती है। कामकाजी महिलाओं के लिए तो स्थिति और भी मुश्किल है। कई स्थिति में बिना किसी घरेलू साहयक के महिलाएं पेशेवर ड्यूटी के साथ घर की ड्यूटी साथ निभाती हैं। केवल कुछ महिलाओं, विशेष वर्ग की महिलाओं के लिए घरेलू सहायक की सुविधा उपलब्ध है अन्यथा घर के सारे काम बिना किसी शिकायत और उम्मीद के गृहणियों के हिस्से है।

महिलाओं को घरेलू कामों के लिए आर्थिक मूल्य हो इस दिशा में कभी-कभार बात होती नज़र आती है लेकिन सामाजिक ढ़ांचे में यह कभी बहस का विषय नहीं बन पाता है। इस वजह से दुनिया भर में महिलाएं बिना वेतन के कामों में अधिक समय लगाकर शक्ति और स्वायत्तता में पीछे हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, औसतन, पुरुष बिना वेतन वाले देखभाल कार्यों में 83 मिनट व्यतीत करते हैं, जबकि महिलाएं तीन गुना अधिक, यानी 265 मिनट खर्च करती हैं। गृहिणियों के द्वारा किये जाने वाले कामों को सराहना से परे देखा जाता है। दुनिया भर में इस व्यवस्था के तहत महिलाएं घर की सफाई, खाना बनाना, बर्तन धोना, पानी की व्यवस्था करना, परिवार की वित्तीय व्यवस्था संभालना, भोजन से संबंधित वस्तुओं की व्यवस्था करना और लकड़ी लाना, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल करना जैसे काम करती हैं। वे प्रतिदिन औसतन 297 मिनट घरेलू कार्यों में खर्च  करती हैं, जबकि पुरुष केवल 31 मिनट का समय इस तरह के कामों में लगाते है। कुल पुरुषों में से केवल एक चौथाई ही घरेलू कार्यों में शामिल होते हैं, जबकि महिलाओं में यह आंकड़ा बहुत अधिक है।

54 वर्षीय शशिबाला एक गृहणी हैं। महिलाओं को घरेलू श्रम के भुगतान पर उनका कहना है, “यह एक ज़रूरी सवाल है कि औरतों को घर के काम के बदले कितना पैसा मिलना चाहिए। लेकिन स्थिति ऐसी है कि हमारी पूरी उम्र इस काम में बीत गई लेकिन हम खुद अपनी मेहनत की कीमत के बारे नहीं बता पाएंगे।

इकोनॉमिक टाइम्स में छपी जानकारी के अनुसार साल 2011 में आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, एक औसत भारतीय महिला प्रतिदिन लगभग छह घंटे बिना वेतन वाले कामों में बिताती है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भले ही यह काम बिना वेतन के हो, लेकिन गृहिणियों द्वारा किया जाने वाला घरेलू कार्य एक आर्थिक गतिविधि है और इसे राष्ट्रीय आय में शामिल किया जाना चाहिए। इसे नजरअंदाज करने से हम अर्थव्यवस्था में महिलाओं के योगदान को कम आंकते हैं।

गृहणियों को कितनी सैलरी मिलनी चाहिए?

यह तो साफ है कि एक गृहिणी केवल घर के कामों तक सीमित नहीं रहती है, बल्कि वह परिवार के सदस्यों की बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक भलाई को संवारने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिन्हें पैसे देकर बाहरी लोगों से करवाना मुश्किल होता है। हालांकि, उन कामों को शामिल किया जा सकता है जिनका प्रत्यक्ष आर्थिक मूल्य लगाया जा सकता है। इनमें घर की सफाई, पूरे परिवार के लिए व्यक्तिगत पसंद के अनुसार तीन समय का भोजन बनाना, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल करना, बच्चों के होमवर्क और स्कूल प्रोजेक्ट्स में सहायता करना, किराने और दवाइयों की खरीदारी आदि शामिल हैं।

घर के समुचित रख-रखाव का ध्यान रखना, पारिवारिक सदस्यों का ख्याल रखना, सामाजिक आयोजनों की व्यवस्था करना, हर स्तर पर घर की देखभाल करना जैसे काम गृहणियों का कार्यक्षेत्र हैं। एक गृहणी को कितना वेतनमान मिलना चाहिए इसके बारे में बात करते हुए 68 वर्षीय गृहणी नरेश का कहना हैं, “औरतों को घर के काम के पैसे ये तो इस दुनिया में होना नामुकिन सी बात है। हमारे काम को काम ही कहां माना जाता है। ये तो रवायत ही ऐसी है कि औरतें पूरा जीवन अपना घर के कामों में लगा देती है लेकिन उसे मिलता कुछ नहीं है। पैसा तो बहुत दूर की बात है। फिर भी अगर रसोई संभालने तक ही चीजों को देखे तो कम से कम 10,000 रूपये महीना मिलना चाहिए। इस तरह से काम की कीमत समझ आएंगी।”

एक गृहिणी केवल घर के कामों तक सीमित नहीं रहती है, बल्कि वह परिवार के सदस्यों की बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक भलाई को संवारने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिन्हें पैसे देकर बाहरी लोगों से करवाना मुश्किल होता है।

54 वर्षीय शशिबाला एक गृहणी हैं। महिलाओं को घरेलू श्रम के भुगतान पर उनका कहना है, “यह एक ज़रूरी सवाल है कि औरतों को घर के काम के बदले कितना पैसा मिलना चाहिए। लेकिन स्थिति ऐसी है कि हमारी पूरी उम्र इस काम में बीत गई लेकिन हम खुद अपनी मेहनत की कीमत के बारे नहीं बता पाएंगे। घर के काम के मूल्य को ज्यादा नहीं माना जाता है आप खुद ही देख लो जो घरेलू कामगार के तौर पर काम करती है उनका श्रम ही कितना कम होता है। 500 रूपये महीना बर्तन का करने पर 16-17 रूपये रोज का बनता है और कम से कम एक घर में आधा घंटे से ज्यादा वक्त देकर इतना रूपया प्रतिदिन मिलता है। जब हम महिलाएं घरेलू साहयिका की तलाश में होती है तो घरेलू काम के मूल्य को कम आंकने का काम पहले खुद करती हैं।”

तस्वीर साभारः Telegraph India

साल 2006 में वेनेज़ुएला ने अपने संविधान के अनुच्छेद 88 में यह प्रावधान किया कि गृहिणियों को न्यूनतम वेतन दिया जाएगा। भारत में भी इस तरह की चर्चा हो चुकी है। 2012 में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने गृहणियों को निश्चित वेतन मिले इस विचार को सामने रखा था, लेकिन इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। भारत की अदालतों से भी इस तरह की बातें कही जा चुकी हैं। बीते वर्ष सुप्रीम कोर्ट घरेलू काम की महत्वता पर ही कहा था कि एक महिला के घरेलू कामों का मूल्य किसी ऐसे व्यक्ति से कम नहीं है जो दफ्तर से वेतन लाता है। अदालत ने “गृहिणी” के योगदान को अमूल्य करार दिया। हिंदुस्तान टाइम्स में छपी ख़बर के अनुसार अदालत ने अपने आदेश में कहा था, “एक गृहिणी की भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि उस परिवार के सदस्य की, जिसकी आय प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है। यदि गृहिणी द्वारा किए गए कामों को एक-एक करके गिना जाए, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि उसका योगदान उच्च स्तर का और अमूल्य है। वास्तव में, उनके योगदान को केवल आर्थिक दृष्टि से आंकना कठिन है।”

आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, एक औसत भारतीय महिला प्रतिदिन लगभग छह घंटे बिना वेतन वाले कामों में बिताती है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भले ही यह काम बिना वेतन के हो, लेकिन गृहिणियों द्वारा किया जाने वाला घरेलू कार्य एक आर्थिक गतिविधि है और इसे राष्ट्रीय आय में शामिल किया जाना चाहिए।

भारत में घरेलू कामकाज करने वाली महिलाओं के श्रम का आर्थिक मूल्यांकन एक जटिल और बहस का विषय रहा है। अधिकांश मामलों में, गृहिणियों द्वारा किए जाने वाले कार्यों को अवैतनिक श्रम के रूप में देखा जाता है और इसे आर्थिक उत्पादन या सकल घरेलू उत्पाद में शामिल नहीं किया जाता। हालांकि, हाल के वर्षों में इस काम के मूल्य को पहचानने और इसे आर्थिक गणना में शामिल करने की मांग तेज़ हुई है। घरेलू श्रम को मान्यता देकर लैंगिक असमानता को खत्म किया जा सकता है। घरेलू श्रम को व्यापक मान्यता देकर दुनिया की आधी आबादी जो घरों को संभालने की थकाऊ दिनचर्या में फंसी है उनका जीवन स्तर बेहतर होगा। गृहणियों को वेतन देने के आयामी बदलाव होंगे। पारिवारिक कानूनों में बदलाव होगा, पारिवारिक सरंचना में लैंगिक भूमिकाओं के आधार पर होने वाले भेदभाव को खत्म किया जा सकता है। वहीं पितृसत्ता व्यवस्था घरेलू श्रम को मान्यता देने के विचार को व्यवहारिक नहीं मानती है और इसे सामाजिक व्यवस्था को खत्म करने वाला मानती है। गृहिणियों को वेतन देने के संभावित अनपेक्षित परिणाम क्या हो सकते हैं। इन सभी पहलुओं पर लगातार बात करने की आवश्यकता है। आखिर कब तक समाज के एक वर्ग को इस तरह की व्यवस्था के तहत हाशिये पर रखा जाएगा। 

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