हर साल अरबों घंटों का समय अवैतनिक (बिना पैसे के काम) श्रम के तौर पर खर्च कर दिया जाता है। पूरी दुनिया में ऐसा काम करनेवालों में महिलाएं सबसे ज्यादा हैं या यूं कहे कि लैंगिक आधार पर यह बोझ महिलाओं पर लादा हुआ है। पितृसत्तात्मक दुनिया में घर के कामों को महिलाओं की जिम्मेदारी बना दी गई है। इसके लिए उन्हें किसी तरह का कोई मेहनताना भी नहीं दिया जाता है। यही नहीं, अवैतनिक श्रम से महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को भी अनदेखा किया जाता है। इस वजह से अवैतनिक श्रम एक कम शोध वाला विषय है, खासकर जब इसका संबंध मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा हो। लेकिन क्या आप जानते हैं कि महिलाओं पर घर के काम का यह बोझ उनके मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। घरेलू काम की ज़िम्मेदारी, जिसे वे आजीवन बिना किसी वेतन और प्रशंसा के निभाती जाती हैं उससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।
हाल में एक अध्ययन में यह बात सामने निकलकर आई है कि बिना वेतन के काम करने वाले लोगों को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों का ज्यादा सामना करना पड़ता है। जेंडर आधारित भूमिकाओं और अवैतिनक काम करने की वजह से महिलाएं इससे ज्यादा प्रभावित हैं। दुनियाभर में महिलाएं अवैतनिक काम में पुरुषों के मुकाबले में ज्यादा समय बिताती हैं। लैंसेंट द पब्लिक हेल्थ के एक अध्ययन के अनुसार अनपेड काम करने की वजह से महिलाओं को खराब मानसिक स्वास्थ्य से गुजरना पड़ता है। यह स्टडी “जेंडर डिफरेंस इन द एसोसिएशन बिटवीन अनपेड लेबर एंड मेंटल हेल्थ इन एम्पलॉय एडलट्सः ए सिस्टमैटिक रिव्यू” के नाम से जारी की गई।
रिसर्च में यह बात भी सामने आई है कि अगर एक सप्ताह में एक घंटा अतिरिक्त अवैतनिक काम का भार बढ़ता है तो थोड़ा ही सही लेकिन मानसिक स्वास्थ्य में बदलाव होते है। अन्य स्टडी के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हुआ है कि अवैतनिक श्रम के 10 घंटा बढ़ जाने की वजह से डिप्रेशन स्कोर 0.2 से 0.4 प्वाइंट बढ़ जाता है। महिलाओं में गुस्सा, चिड़चिड़ापन और अवसाद बढ़ जाता है।
काम, घर और मानसिक स्वास्थ्य के जेंडर इंटरसेक्शन की जांच करने के स्थिति का विश्लेषण किया गया है। इसमें कुल 19 अध्ययनों की समीक्षा की गई है जिसमें 14 अध्ययनों में महिलाओं और पुरुषों दोंनो पक्षों की जांच की गई। पांच अध्ययनों में अवैतनिक लेबर (जिसमें देखभाल भी शामिल है), नौ में घर के काम के आधार पर चीजें जांची गई हैं। 14 में से 11अध्ययनों में पाया गया है कि अनपेड लेबर की डिमांड बढ़ने की वजह से महिलाओं में डिप्रेशन और मनोवैज्ञानिक तनाव के लक्षणों को बढ़ता देखा गया है। हालांकि, 12 में से केवल 3 अध्ययनों में पुरुषों के लिए नकारात्मक परिणाम दर्ज किए गए।
महत्वपूर्ण यह है कि अवैतनिक काम मुख्य रूप से जेंडर के आधार पर बांटा गया है। पुरुषों के 0.5 से लेकर 2 घंटों के मुकाबले महिलाएं अवैतनिक कामों में प्रतिदिन 3-6 घंटे से ज्यादा गुजार देती हैं। यही नहीं पेड और अनपेड दोंनो कामों में महिलाएं ज्यादा समय गुजराती हैं। रिसर्च में यह बात भी सामने आई है कि अगर एक सप्ताह में एक घंटा अतिरिक्त अवैतनिक काम का भार बढ़ता है तो थोड़ा ही सही लेकिन मानसिक स्वास्थ्य में बदलाव होते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट हुआ है कि अवैतनिक श्रम के 10 घंटा बढ़ जाने की वजह से डिप्रेशन स्कोर 0.2 से 0.4 प्वाइंट बढ़ जाता है। महिलाओं में गुस्सा, चिड़चिड़ापन और अवसाद बढ़ जाता है।
रिसर्च की मुख्य जेन इरविन कहा है, “हमनें दुनियाभर के 35 से अधिक देशों में पाया है कि लैंगिक भेदभाव की वजह से हर भौगोलिक स्थिति और समय में महिलाओं को ज्यादा अवैतनिक श्रम करना पड़ता है।” इरविन ने कहा है, “पेड और अनपेड काम का दोहरा बोझ महिलाओं के पास समय की कमी और उनके खराब मानसिक स्वास्थ्य को उजागर करता है। महत्वपूर्ण यह है कि महिलाएं अपनी अनपेड जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए, पेड वर्क के बाद भी लगातार काम करती हैं।” अध्ययन में यह भी कहा गया है कि अवैतनिक श्रम के बंटवारे को मिटाने के लिए अधिक ध्यान देने की और इस पर काम करने की बहुत आवश्यकता है।
जेंडर आधारित भूमिकाएं बचपन से ही लड़कियों पर बढ़ाती हैं बोझ
कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि जेंडर के अनुसार बांटे गए काम की वजह से महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा होता है। भले ही वे नौकरी कर रही हो लेकिन उसके बाद भी घर के काम का ज्यादा से ज्यादा भार उन्हीं पर होता है। यही नहीं, इस वजह से छोटी बच्चियों पर स्कूल जाने के समय से ही घर के काम करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है। प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार लड़कियां किशोरावस्था से ही लड़कों के मुकाबले ज्यादा काम करना शुरू कर देती हैं। स्कूल के सालों में एक दिन में घर के काम करने में एक अमेरिकी लड़की औसतन 38 मिनट खर्च करती है। वहीं, लड़के एक दिन में 24 मिनट खर्च करते हैं। यह विश्लेषण यह भी दिखाता है कि लड़कों के मुकाबले लड़कियां सफाई और खाना बनाने में दोगुना समय (29 मिनट से 12 मिनट) बिताती हैं। यूनिसेफ के आकड़ों के अनुसार दक्षिण एशिया, मिडिल ईस्ट और उत्तरी अफ्रीका के देशों में 10 से 14 साल की उम्र में ही लड़कियां घर के कामों में लड़कों से दोगुना समय बिताती हैं। लड़कियां रोज़ाना घर के कामों में लड़कों की तुलना में 160 मिलियन अधिक घंटे काम में बिताती है।
कोविड-19 महामारी ने इस अंतर को और बड़ा कर दिया
लैंसेट स्टडी में इस बात का ज़िक्र किया गया है कि महामारी ने महिलाओं पर काम के बोझ को और अधिक बढ़ाया है। साथ ही अध्ययन में यह भी कहा गया है कि आर्थिक स्थिति में अंतर होने की वजह से भी महिलाएं अधिक मानसिक तनाव से गुजरती हैं। भारत के परिदृश्य से बात करें तो रीति-रिवाज और परंपरा के आधार पर महिलाओं पर अवैतनिक श्रम को थोपा जाता है। डाउन टू अर्थ में छपी ख़बर के अनुसार भारत वह देश है जहां महिलाएं घर के कामों में एक दिन में 352 मिनट लगाती हैं और पुरुषों में यह समय केवल 51.8 मिनट प्रतिदिन है। पुरुषों और महिलाओं के काम में इस तरह का अंतर सीधा उनकी स्थिति पर प्रभाव डालता है। इससे अलग इस तरह के अंतर से महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर कैसा असर पड़ता है उसको लेकर कोई बात नहीं होती है।
महिलाएं मानसिक स्वास्थ्य खराब होने पर पुरुषों के मुकाबले कम डॉक्टरी सलाह ले पाती हैं। लगभग 25 फीसदी महिलाएं डिप्रेशन और एंग्जायटी से ग्रसित है लेकिन कलंक, पति और ससुराल के सहयोग न मिलने की वजह से वे अस्पताल नहीं जा पाती हैं।
भारत में महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर क्या है स्थिति
लैंसेट के अध्ययन से यह बात साफ स्पष्ट होती है कि कि घर के काम और देखभाल की वजह से महिलाओं की मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है और इस पहलू को अनदेखा भी किया जाता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर आधारित भारतीय परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाओं से अवैतनिक श्रम लिया जाता है। उनके मानसिक स्वास्थ्य पर इसका क्या असर पड़ता है बात नहीं होती है। अगर भारत में महिलाओं से जुड़े मानसिक स्वास्थ्य के आंकड़ों पर गौर करें तो बड़ी संख्या में महिलाएं मानसिक बीमारियों से पीड़ित हैं।
से जुड़े अनके अध्ययन से यह मालूम होता है कि कॉमन मेंटल डिसऑर्डर (सीएमडी), डिप्रेशन और एंग्जायटी महिलाओं में लैंगिक भेदभाव की वजह से अधिक होता है। कम्यूनिटी बेस्ड स्टडी और ट्रीटमेंट दिखाता है कि महिलाओं में सीएमडी से प्रभावित होने का दो से तीन गुना ज्यादा जोखिम होता है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक तमिलनाडु में महिलाएं मानसिक स्वास्थ्य खराब होने पर पुरुषों के मुकाबले कम डॉक्टरी सलाह ले पाती हैं। लगभग 25 फीसदी महिलाएं डिप्रेशन और एंग्जायटी से ग्रसित है लेकिन कलंक, पति और ससुराल के सहयोग न मिलने की वजह से वे अस्पताल नहीं जा पाती है। ख़बर के अनुसार अधिकतर विवाहित महिलाएं अपने माता-पिता के साथ ही इलाज करवाने आ पाती हैं।
महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को कम गंभीरता से लेने का एक परिणाम यह भी सामने आया है कि महिलाओं में आत्महत्या से मौत के मामलों में बढ़ोतरी देखी गई है। हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार साल 2021 में आत्महत्या से होने वाली महिलाओं की मौत में 51.5 फीसद गृहिणियां थी। बीते साल कुल 45,026 महिलाओं की मौत आत्महत्या से हुई जिसमें से 23,178 गृहणियां शामिल थीं। ऐसे आंकड़े दिखाते हैं कि महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को नज़रअंदाज करने के चलन की वजह से महिलाएं अपनी जान इस तरह से भी गंवा रही हैं।
मानसिक स्वास्थ्य के हर पहलू पर बात करना है ज़रूरी
महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक पहलूओं से अलग-अलग देखे जाने की बहुत आवश्यकता है। महिलाओं को मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जानकारी देने की भी बहुत ज्यादा आवश्यकता है। मानसिक तनाव का उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है जिससे उनमें कई तरह की बीमारियां होने का खतरा बना रहता है। महिलाओं के काम और उनकी स्थिति को लेकर योजनाओं को बनाने की अब ज़रूरत सामने आ गई है जिससे काम के असमान बंटवारे, उनकी पारिवारिक स्थिति और जिम्मेदारियों की वजह से महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित होने से रोका जा सके।