संस्कृतिकिताबें भीष्म साहनी का बसंती: एक महिला का संघर्ष और अस्तित्व की लड़ाई

भीष्म साहनी का बसंती: एक महिला का संघर्ष और अस्तित्व की लड़ाई

बसंती को अब यह एहसास हो चुका था कि उसके लिए कोई रास्ता नहीं बचा है। इसलिए वह बुलाकी के साथ रहने के लिए मजबूर हो जाती है। बुलाकी पेशे से दर्जी था और उसने बसंती के बच्चे के लिए कपड़े सिलकर उसे उपहार में दिए। यह देखकर बसंती को पहली बार सुकून महसूस हुआ।

भीष्म साहनी का उपन्यास बसंती महानगरीय जीवन, खासतौर पर दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले प्रवासी मजदूरों के कठिन जीवन को बारीकी से उकेरता है। यह उपन्यास न केवल आर्थिक असमानता और सामाजिक अन्याय की कहानी कहता है, बल्कि एक महिला के रूप में बसंती के जीवन संघर्ष, विद्रोह और अस्थिरता को भी दर्शाता है। बसंती इस उपन्यास की मुख्य पात्र है, और उसी के नाम पर इस उपन्यास का शीर्षक रखा गया है। भीष्म साहनी ने बसंती के माध्यम से एक ऐसे समाज की तस्वीर पेश की है, जहां गरीबी, असमानता और महिलाओं के प्रति अन्याय अपने चरम पर हैं।

राजस्थान में पड़े सूखे के कारण हजारों लोग आजीविका की तलाश में दिल्ली जैसे महानगरों की ओर पलायन करते हैं, लेकिन वहां भी उनके जीवन में स्थिरता नहीं आती। उपन्यास इस बात को स्पष्ट करता है कि मजदूरों की झुग्गियां तभी तक टिकती हैं, जब तक उनका श्रम किसी अमीर की कोठी खड़ी करने में इस्तेमाल हो रहा होता है। जैसे ही इमारतें खड़ी हो जाती हैं, मजदूरों को वहां से खदेड़ दिया जाता है।

बसंती एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखती है। उसके पिता नाई हैं और अत्यंत गरीबी में किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। आर्थिक तंगी इस हद तक पहुंच जाती है कि वह अपनी बेटी का सौदा करने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

झुग्गी-झोपड़ियों में जीवन और बसंती का संघर्ष

झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों का जीवन कठिनाइयों से भरा होता है। खासकर महिलाओं के लिए यह और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। न केवल आर्थिक तंगी, बल्कि सामाजिक असुरक्षा और शोषण भी उनके जीवन का हिस्सा बन जाता है। बसंती एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखती है। उसके पिता नाई हैं और अत्यंत गरीबी में किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। आर्थिक तंगी इस हद तक पहुंच जाती है कि वह अपनी बेटी का सौदा करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। बुलाकी नामक वृद्ध और असमर्थ व्यक्ति को वह बसंती के बदले पैसे लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस दौरान बुलाकी कहते हैं, “बारह सौ होंगे, कहेगा तो आज ही उसके हाथ पीले कर दूंगा। चार सौ पेशगी अभी दे दें, जिससे कुल रकम एक हजार हो जाएगी। बाकी के दो सौ लूंगाई आने पर दे देना।”

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी


यह गरीब परिवारों में बेटियों की स्थिति को पूरी तरह स्पष्ट कर देता है। बेटियों का जीवन उनके लिए बोझ बन जाता है और वे बिना उनकी भावनाओं या भविष्य की चिंता किए सौदेबाजी कर लेते हैं। बसंती का यह पहला सौदा नहीं था। इससे पहले भी उसके पिता ने उसका सौदा किया था, लेकिन हर बार वह किसी न किसी तरह बच निकलती है। पहली बार जब उसकी शादी तय होती है, तो वह चूहे मारने की दवा खाकर बेहोश हो जाती है। दूसरी बार वह अपने दोस्त के पास भाग जाती है। तीसरी बार जब उसकी शादी तय हो जाती है, उसी समय झुग्गियों को तोड़ने के लिए प्रशासन का अभियान शुरू हो जाता है, जिससे मौके का फायदा उठाकर बसंती फिर से भाग निकलती है।

बसंती का यह पहला सौदा नहीं था। इससे पहले भी उसके पिता ने उसका सौदा किया था, लेकिन हर बार वह किसी न किसी तरह बच निकलती है। पहली बार जब उसकी शादी तय होती है, तो वह चूहे मारने की दवा खाकर बेहोश हो जाती है। दूसरी बार वह अपने दोस्त के पास भाग जाती है।

बसंती का अस्थायी ठिकाना और आत्मनिर्भर बनने की कोशिश

भागने के बाद बसंती श्याम बीबी के घर शरण लेती है। श्याम बीबी एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला हैं, जो अपने जीवन के कष्टों से मुक्ति पाने के लिए आध्यात्मिक उपायों पर भरोसा करती हैं। उन्हें किसी व्यक्ति की सेवा करने का आदेश दिया गया था और वे इसे ही अपने उद्धार का साधन मानती हैं। इसी वजह से वे बसंती को अपने घर में शरण देती हैं। बसंती के लिए यह सुरक्षा की एक नई किरण थी। वह घरों में काम करने लगती है और धीरे-धीरे जीवन को नए सिरे से संवारने की कोशिश करती है। लेकिन उसका जीवन अब भी संघर्षों से मुक्त नहीं था। एक शादी-ब्याह वाले घर में काम करने के दौरान बसंती की मुलाकात दीनू से होती है। उसे यह समझ आता है कि अगर उसे उस बूढ़े व्यक्ति से बचना है जिससे उसके पिता ने सौदा किया था, तो उसे खुद अपनी जिंदगी का फैसला लेना होगा।

यही सोचकर वह दीनू के साथ भाग जाती है और उससे शादी कर लेती है। लेकिन कुछ समय बाद उसे पता चलता है कि दीनू पहले से ही शादीशुदा है और उसकी पत्नी गांव में रहती है। यह सुनकर बसंती टूट जाती है। हालांकि, वह खुद को समझाने की कोशिश करती है। उसे लगता है कि कम से कम अब वह किसी बूढ़े और लाचार व्यक्ति की पत्नी बनने से बच गई है। वह सोचती है कि दीनू गांव की अपनी पत्नी को छोड़कर उसके साथ रहेगा और घर में उसकी चलेगी। लेकिन यह भी बसंती का भ्रम साबित होता है। कुछ ही समय बाद दीनू उसे 300 रुपये में बरडू नामक व्यक्ति के हाथों बेचकर खुद गांव भाग जाता है। इस तरह बसंती फिर से एक पुरुष से दूसरे पुरुष के हाथों बिकने की त्रासदी में फंस जाती है।

बसंती का विद्रोह उस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ़ है जो महिलाओं को केवल एक वस्तु के रूप में देखती है। उसकी इच्छाएं, भावनाएं और आत्मनिर्भर बनने की कोशिशें उसे निरंतर संघर्ष करने के लिए मजबूर करती हैं। लेकिन यह भी सच है कि उसके जीवन का अंत शोषण और मजबूरी में ही होता है।

बसंती की मातृत्व यात्रा और मजबूरी का जीवन

दीनू के जाने के बाद बसंती के जीवन में और अधिक कठिनाइयां आ जाती हैं। वह गर्भवती होती है, जो डीनु और उसका संतान है। लेकिन वह दर-दर भटकने को मजबूर हो जाती है। आखिरकार उसके पिता एक बार फिर उसका सौदा करने का फैसला करते हैं और उसे दोबारा बुलाकी के हाथ बेच देते हैं। अब चूंकि वह माँ बनने वाली होती है, और ब्याहे जाने के लिए वह आदर्श लड़की नहीं, साहनी समाज की पितृसत्ता सोच को बेहद बेहतरीन तरीके से दिखाते हैं। बुलाकी कहता है, पांच सौ किस बात के? बारह सौ पर बात हुई थी। नौ सौ ले चुका है, बाकी तीन सौ मेरी तरफ निकलती हैं। तीन सौ पिछले और दो सौ पेट के बच्चे के। तुम्हें बसी-बसाई गृहस्थी मिल रही है। इसके लिए क्या दो सौ ज्यादा हैं?”

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

बसंती को अब यह एहसास हो चुका था कि उसके लिए कोई रास्ता नहीं बचा है। इसलिए वह बुलाकी के साथ रहने के लिए मजबूर हो जाती है। बुलाकी पेशे से दर्जी था और उसने बसंती के बच्चे के लिए कपड़े सिलकर उसे उपहार में दिए। यह देखकर बसंती को पहली बार सुकून महसूस हुआ। उसे लगा कि अब उसका बच्चा सुरक्षित रहेगा और वह उसे अच्छे से पाल पाएगी। घर-घर काम करने के दौरान बसंती ने अमीरों के रहन-सहन को करीब से देखती है। वह देखती है कि कैसे अमीर परिवार अपने बच्चों को हर सुविधा देते हैं, जबकि उसकी जैसी गरीब महिलाओं को अपने बच्चों के भविष्य की चिंता सताती रहती है। वह सोचती थी कि क्या वह भी अपने बच्चे को अच्छे कपड़े, खिलौने और सुरक्षा दे पाएगी?

बसंती को अब यह एहसास हो चुका था कि उसके लिए कोई रास्ता नहीं बचा है। इसलिए वह बुलाकी के साथ रहने के लिए मजबूर हो जाती है। बुलाकी पेशे से दर्जी था और उसने बसंती के बच्चे के लिए कपड़े सिलकर उसे उपहार में दिए।

क्या बसंती एक विद्रोही नायिका बन पाई  

बसंती का किरदार अपनेआप में बहुत गहरा है। वह पारंपरिक नैतिकता और परिवारिक दबावों से विद्रोह करती है, लेकिन समाज उसे बार-बार कुचलने की कोशिश करता है। वह कई बार बच निकलती है, लेकिन आखिरकार पुरुष-प्रधान समाज में वह एक वस्तु बनकर रह जाती है, जिसका सौदा बार-बार किया जाता है। बसंती का विद्रोह उस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ़ है जो महिलाओं को केवल एक वस्तु के रूप में देखती है। उसकी इच्छाएं, भावनाएं और आत्मनिर्भर बनने की कोशिशें उसे निरंतर संघर्ष करने के लिए मजबूर करती हैं। लेकिन यह भी सच है कि उसके जीवन का अंत शोषण और मजबूरी में ही होता है। बंसती एक ऐसी पात्र है जिससे उसकी जीवन यात्रा में न केवल संघर्ष बल्कि आत्मनिर्भरता की भी झलक मिलती है। वह एक ऐसी महिला है जो समाज द्वारा निर्धारित सीमाओं और मान्यताओं से बाहर निकलने की कोशिश करती है।

लेकिन यह विद्रोह उसे दैहिक और मानसिक शोषण की ओर भी खींचता है। उसका परिवार और समाज उसे एक खास भूमिका में देखता है एक आदर्श पत्नी, बेटी और बहू की भूमिका। लेकिन बसंती उन बंधनों से मुक्ति चाहती है। बसंती की इच्छायें, भावनायें, अपने को सम्पन्न बनाने की कोशिश उससे निरंतर संघर्ष करवाती है और वह निरंतर बड़ी होती जाती है। भीष्म साहनी का यह उपन्यास केवल एक महिला के जीवन की त्रासदी नहीं, बल्कि समाज के उन क्रूर पहलुओं को उजागर करता है जहां गरीबी, लाचारी और पितृसत्ता के बीच महिलाओं की जिंदगी झुलसती रहती है। बसंती की कहानी महज एक किरदार की नहीं, बल्कि हजारों ऐसी महिलाओं की कहानी है, जो संघर्ष तो करती हैं, लेकिन आखिर में समाज के बनाए हुए जाल से बाहर नहीं निकल पातीं।

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