Skip to content
स्वास्थ्यमानसिक स्वास्थ्य क्यों महिलाओं में अवसाद गंभीर और जटिल समस्या है?

क्यों महिलाओं में अवसाद गंभीर और जटिल समस्या है?

डबल्यूएचओ के मुताबिक, 10 फीसद महिलाएं गर्भावस्था के बाद अवसाद का सामना करती हैं। गर्भावस्था के दौरान महिलाएं भावनात्मक रूप से भी तनावग्रस्त हो सकती हैं। कई बार उन्हें आने वाले बच्चे के पालन-पोषण की चिंता सताने लगती है।

जन्म के साथ ही मनुष्य में मानवीय भावनाएं स्वाभाविक रूप से मौजूद होती हैं। जैसे रोना, हंसना, गुस्सा होना और खुश होना। कभी-कभी, मनचाही परिस्थितियां न मिलने पर निराशा या चिड़चिड़ापन भी महसूस होता है, जो एक सामान्य बात है। लेकिन ये भावनाएं तब तक ही सामान्य मानी जाती हैं, जबतक वे इंसान को लंबे समय तक प्रभावित न करें। ऐसे में यदि किसी को बार-बार एक ही तरह के नकारात्मक विचार आ रहे हैं, तो यह अवसाद (डिप्रेशन) के संकेत हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप छोटी-छोटी बातों पर बार-बार गुस्सा हो जाते हैं और घंटों उसके बारे में सोचते रहते हैं, तो इससे आपको चिड़चिड़ापन महसूस होता है और यह एक असामान्य मानसिक स्थिति हो सकती है। यह धीरे-धीरे अवसाद का रूप ले सकती है। ऐसे में व्यक्ति किसी भी काम में एकाग्रता बनाए नहीं रख पाता हैं।

अवसाद का सामना कर रहे व्यक्ति में निराशावादी सोच जन्म लेने लगती है। वह अक्सर सुस्त और उदासीन रहता है। नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक 79 फीसद लोग अवसाद का इलाज नहीं करवाते, जिससे वे और भी कई तरह की मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करते हैं। कई बार मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती है। हालांकि अवसाद किसी के लिए भी अच्छी नहीं लेकिन आम तौर पर महिलाओं में अवसाद पुरुषों की तुलना में अधिक पाया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार गर्भावस्था के दौरान लगभग 10 फीसद महिलाएं अवसाद का सामना करती हैं और यह कभी-कभी आत्महत्या से मौत का कारण भी बन सकता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के साल 2021 में जारी आंकड़ों के अनुसार, 22,372 गृहिणियों की आत्महत्या से मौत हुई यानी प्रतिदिन लगभग 61 आत्महत्याएं से मौत।  

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार गर्भावस्था के दौरान लगभग 10 फीसद महिलाएं अवसाद का सामना करती हैं और यह कभी-कभी आत्महत्या से मौत का कारण भी बन सकता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के साल 2021 में जारी आंकड़ों के अनुसार, 22,372 गृहिणियों की आत्महत्या से मौत हुई यानी प्रतिदिन लगभग 61 आत्महत्याएं से मौत।  

डिप्रेशन क्या है?

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

डबल्यूएचओ के मुताबिक अवसाद एक आम मानसिक स्वास्थ्य समस्या है। इसमें व्यक्ति लंबे वक्त तक उदासी महसूस करता है और किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता। अवसाद से घिरा व्यक्ति अक्सर अपराधबोध से भरा रहता है। उसे नींद कम आती है और कई बार उसके अंदर आत्महत्या से मौत का विचार भी आ सकता है। डबल्यूएचओ के साल 2019 के आंकड़ों के अनुसार, 15 से 29 वर्ष के युवाओं में आत्महत्या से होने वाली मौत, मौत का चौथा प्रमुख कारण है। यह भावना अक्सर डिप्रेशन की वजह से पैदा होती है। यह मानसिक समस्या किसी भी उम्र के व्यक्ति को प्रभावित कर सकती है। डबल्यूएचओ की रिपोर्ट अनुसार, दुनिया की 5 फीसद वयस्क आबादी अवसाद का सामना कर रही है, जिसमें 4 फीसद पुरुष और 6 फीसद महिलाएं शामिल हैं। महिलाओं में अवसाद होने की संभावना पुरुषों की तुलना में 50 फीसद अधिक होती है।

महिलाओं में अवसाद के क्या कारण हैं?

देश और विदेश के अनेक प्रतिष्ठित संस्थानों में हुई शोध के मुताबिक  महिलाओं में पुरुषों की तुलना में डिप्रेशन अधिक आम पाया गया है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। जैसेकि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक कारक, जो अलग-अलग तरीकों से व्यक्ति पर असर डालते हैं। महिलाओं की बढ़ती उम्र के साथ उनके शरीर में कई तरह के शारीरिक बदलाव आते हैं, जो मुख्य रूप से हार्मोनल चैंजेस की वजह से होते हैं। किशोरावस्था में भी महिलाओं के हार्मोन बदलते रहते हैं हो, जिससे उनका मूड अक्सर बदलता रहता है। इन उम्र में ही किशोरियों में पीरियड्स की शुरुआत होती है और शरीर में कुछ जरूरी शारीरिक बदलाव भी होने शुरू हो जाते हैं।

आमतौर पर ये बदलाव पुरुषों की तुलना में महिलाओं में जल्दी दिखाई देने लगते हैं। अलीगंज के कंसल्टेंट साइकेट्रिक डॉ अक्षय सिंह बताते हैं, “महिलाओं के शरीर में होने वाले हार्मोनल बदलाव, मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। पीरियड्स के दौरान उलझन, चिड़चिड़ापन और थकावट महसूस होना सामान्य है। कई महिलाएं इस समय बिना किसी स्पष्ट कारण के तनाव और अवसाद महसूस करती हैं। इसे प्रीमेंस्ट्रुअल डिस्फोरिक डिसॉर्डर कहा जाता है, जिसे कुछ चिकित्सक प्रीमेंस्ट्रुअल सिंड्रोम भी मानते हैं। आसान भाषा में समझे तो इसे पीरियड्स से पहले होने वाला तनाव, अनमनापन और बेचैनी कहा जा सकता है।”

महिलाओं के शरीर में होने वाले हार्मोनल बदलाव, मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। पीरियड्स के दौरान उलझन, चिड़चिड़ापन और थकावट महसूस होना सामान्य है। कई महिलाएं इस समय बिना किसी स्पष्ट कारण के तनाव और अवसाद महसूस करती हैं। इसे प्रीमेंस्ट्रुअल डिस्फोरिक डिसॉर्डर कहा जाता है, जिसे कुछ चिकित्सक प्रीमेंस्ट्रुअल सिंड्रोम भी मानते हैं।

गर्भावस्था और पीरियड्स और उसके बाद अवसाद की स्थिति  

महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान हार्मोनल बदलाव होते हैं, जो मूड स्विंग्स और चिंता का कारण बन सकते हैं। प्रोजेस्टेरोन और एस्ट्रोजेन जैसे हार्मोन का स्तर बढ़ता रहता है, जिसकी वजह से महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। गर्भावस्था के दौरान कई प्रकार के शारीरिक बदलाव भी होते हैं, जैसे वजन बढ़ना, थकान, मतली, और कई अन्य असुविधाओं का सामना करना। ये सभी अवसाद का प्रमुख कारण बन सकते हैं। डबल्यूएचओ के मुताबिक, 10 फीसद महिलाएं गर्भावस्था के बाद अवसाद का सामना करती हैं। गर्भावस्था के दौरान महिलाएं भावनात्मक रूप से भी तनावग्रस्त हो सकती हैं। कई बार उन्हें आने वाले बच्चे के पालन-पोषण की चिंता सताने लगती है। इस प्रकार के विचार उन्हें मानसिक रूप से प्रभावित करते हैं। ये सारी मुसीबतें यही खत्म नहीं होती, बल्कि गर्भावस्था और प्रसव के बाद भी कई शारीरिक बदलावों का मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

डॉ अक्षय बताते हैं, “गर्भावस्था और प्रसव के बाद भी एस्ट्रोजेन, प्रोजेस्टेरोन और थायरॉइड हार्मोन के स्तर में अचानक कमी आ सकती है, जिससे मानसिक अस्थिरता बढ़ जाती है। नींद की कमी और थकावट भी इसमें योगदान देते हैं। चिकित्सकीय विज्ञान में इसे पोस्टपार्टम डिप्रेशन कहा जाता है, जिसे हिंदी में ‘प्रसवोत्तर अवसाद’ कह सकते हैं। यह एक गंभीर समस्या है और यदि समय रहते इसका इलाज न किया जाए, तो यह हफ्तों, महीनों या वर्षों तक बना रह सकता है।”

डबल्यूएचओ के मुताबिक, 10 फीसद महिलाएं गर्भावस्था के बाद अवसाद का सामना करती हैं। गर्भावस्था के दौरान महिलाएं भावनात्मक रूप से भी तनावग्रस्त हो सकती हैं। कई बार उन्हें आने वाले बच्चे के पालन-पोषण की चिंता सताने लगती है।

भेदभाव और जेंडर के बंटवारे के कारण मानसिक स्वास्थ्य समस्या

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

वे आगे बताते हैं, “मेनोपॉज़ के दौरान भी हार्मोनल असंतुलन, डिप्रेशन की वजह बन सकती है। कुछ महिलाओं में समय से पहले मेनोपॉज़ के लक्षण दिखते हैं और यह समय से पहले हो भी जाता है। यह भी मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। ऐसे संकेतों को पहचानकर मानसिक रूप से मजबूत रहना जरूरी है, बजाय अवसाद में जाने के।” इन सबके अलावा देखा जाए तो आमतौर पर भारतीय महिलाएं, गर्भावस्था के दौरान भी घरेलू कामों में व्यस्त रहती हैं। वहीं, घर में हो रही लड़ाई-झगड़े या पति के साथ संबंधों में तनाव भी उनकी मानसिक स्थिति पर असर डालते हैं। ये सभी कारण गर्भावस्था के दौरान अवसाद को बढ़ा सकते हैं। समाज ने महिलाओं के लिए हर क्षेत्र में अलग-अलग दायरे बना रखे हैं। ये दायरे उनकी मानसिक योग्यता के आधार पर नहीं, बल्कि केवल जेंडर होने की वजह से निर्धारित किए जाते हैं।

गर्भावस्था और प्रसव के बाद भी एस्ट्रोजेन, प्रोजेस्टेरोन और थायरॉइड हार्मोन के स्तर में अचानक कमी आ सकती है, जिससे मानसिक अस्थिरता बढ़ जाती है। नींद की कमी और थकावट भी इसमें योगदान देते हैं। चिकित्सकीय विज्ञान में इसे पोस्टपार्टम डिप्रेशन कहा जाता है, जिसे हिंदी में ‘प्रसवोत्तर अवसाद’ कह सकते हैं।

अक्सर देखा जाता है कि महिला किसी अवसर के लिए पूरी तरह से योग्य होने के बावजूद, उसे वह अवसर नहीं मिलता। यह भेदभाव बचपन से शुरू होता है, जब पुरुष और महिला की परवरिश अलग-अलग तरह से की जाती है। कई बार यह मानसिक स्थिति युवावस्था में घातक रूप से असर डालती है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के अध्ययन के अनुसार महिलाओं को बचपन के दुर्व्यवहार याद रहते हैं जो पैनिक अटैक और ट्रामा के रूप में भी दिखाई देते है। कई बार जब लड़कियों का कम उम्र में विवाह होता है तो वे उस वक्त मानसिक रूप से उतनी परिपक्व नहीं होती हैं कि दूसरे के घर जाकर जिम्मेदारियां संभाल सकें। इससे घर में आपसी मतभेदों की संभावना बढ़ जाती है और वे अक्सर चिंतित और दबाव महसूस करती है। घरेलू हिंसा, मैरिटल रेप और महिलाओं को अधिक जिम्मेदार समझे जाने की सामाजिक धारणा भी अवसाद का कारण बन सकती है।

महिलाओं में अवसाद क्यों है जटिल

डॉ अक्षय बताते हैं, “महिलाओं के अवसाद का एक गहरा सामाजिक कारण पितृसत्तात्मक व्यवस्था भी है। जैसे-जैसे लड़कियां समझदार होती हैं, वे इस संरचना के दायरे में आने लगती हैं। कुछ भाग्यशाली लड़कियों को उनके परिजन इस मानसिकता से बचाने की कोशिश करते हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों को यह सौभाग्य नहीं मिलता। महिलाओं को समाज में पुरुषों की तुलना में दोगुना संघर्ष करना पड़ता है और आधुनिक दुनिया में तो उनपर तीहरे दबाव हैं। इनमें पारिवारिक दायित्व, सामाजिक अपेक्षाएं और आर्थिक स्वतंत्रता तीनों हैं। यदि कभी महिलाएं, मानसिक या शारीरिक रूप से थकान महसूस करती हैं, तो उन्हें शर्मिंदगी महसूस कराई जाती है। यही कारण है कि महिलाएं अवसाद के शारीरिक लक्षण लेकर आती हैं, जिसे चिकित्सा विज्ञान में साइकोसोमैटिक सिंपटम्स कहा जाता है। आज भी कई घरों में महिलाओं को तब तक आराम नहीं मिलता जब तक वे शारीरिक रूप से बीमार न हो जाएं।” महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाना और रूढ़िवादी सोच में बदलाव लाना बेहद जरूरी है। मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जाए और इसपर खुलकर चर्चा हो, तभी इस समस्या को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। 

Leave a Reply

संबंधित लेख