संस्कृतिख़ास बात पितृसत्ता के अधीन फलती-फूलती एक दलित आशावर्कर की सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति

पितृसत्ता के अधीन फलती-फूलती एक दलित आशावर्कर की सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति

शारदा डरती हैं कि बच्चों के लिए ऐसे माहौल में गलत दिशा में जाने की संभावना अधिक बढ़ जाती है। वह कहती हैं, “मेरे बच्चे जब घंटों बाहर रहते हैं तो उन्हें कोई न कोई कुछ न कुछ खाने की चीज़ें दे देता है। मेरा घर संभालने का बजट बहुत सीमित होता है, मैं उतनी समर्थ बिल्कुल नहीं हूं की बच्चों को टाॅफी चाॅकलेट खरीदने के लिए पैसे दे सकूं। लेकिन मैं दो-तीन महीनों में थोड़े बहुत कुछ पैसे बचाकर उनके लिए फल जरूर लाती हूं।”

सदियों से एक दलित महिला जिसे जाति, वर्ग और लिंग पदानुक्रमों में सबसे नीचे रखा जाता है, वह भेदभाव के केवल एक रूप का सामना नहीं कर रही होती है। इसमें कई रूप शामिल हैं। जैसे एक दलित होना, गरीब होना, होमोसेक्शुअल होना और एक महिला होना। ये ऐसे कारक हैं जो इन महिलाओं के सामाजिक बहिष्कार और शोषण को मंजूरी देते हैं। शारदा (नाम बदला हुआ) (34) उन दलित महिलाओं में से एक हैं जिन्होंने शराब की ख़राब लत से आसक्त अपने पति के कारण एक दूसरी तरह के सामाजिक बहिष्कार को महसूस किया। ऐसी परिस्थिति में जी रही कोई महिला शायद ही किसी से खुलकर बात करती होगी।

शारदा यूपी के हापुड़ से सटे एक छोटे से गांव में रहती हैं। शादी से पहले या यूं कहे कि उसी साल 2012 में जिस साल शादी होने वाली थी तब उन्होंने बीए के दूसरे साल में प्रवेश किया था। भावी ससुरालवालों की तय शर्त के मुताबिक़ शादी होने के बाद उन्हें बी.ए की पढ़ाई ज़ारी रखने का वादा खूब किया गया, जो केवल वादा ही बनकर रह गया। अब उनके तीन बच्चे हैं, लेकिन घर चलाने में पति का सहयोग और योगदान न के बराबर है। तीनों बच्चों की लालन-पालन की पूरी ज़िम्मेदारी शारदा की बन चुकी है। शादी के ग्यारह साल में उनकी ज़िन्दगी कभी भी ऐसी नहीं रही जैसी उन्होंने कभी उम्मीद की थी। उनके लिए पितृसत्ता शादी से पहले भी और शादी के बाद भी बराबर रूप में मौजूद रही है। वह संघर्षों से डरती नहीं हैं पर उनके संघर्ष निरे संघर्ष भी तो नहीं हैं। वे पितृसत्ता की गहरी जड़ों से संचालित होते हैं।

शारदा ज़िन्दगी के इन संघर्षों के दौर में भी मेहनत करने से कभी पीछे नहीं हटी। वह क्या कुछ नहीं करती अपने घर को चलाने के लिए। वह आशा कार्यकर्ता के तौर पर गली-गली जाकर आंगनवाड़ी सेवाओं और परियाजनाओं की पहुंच सुनिश्चित करती हैं। इससे मिले कुछ मानदेय के अलावा कभी-कभी एक महिला किसान के तौर पर वह मौसमी खेती से उपजी फ़सल की कटनी और सफाई के साथ-साथ सर्दियों में छोटे बच्चों के स्वेटर बुनकर कुछ मुनाफा कमा लेती हैं। शारदा के रोज़ाना के संघर्षों को जो छिपी हुई गहरी पितृसत्तात्मक परतों का प्रतिबिंब हैं, उन्हें हमने इस लेख के ज़रिये जानने की कोशिश की है।

“जैसा समय मेरा कट रहा है, मैं नहीं चाहती वही समय मेरे बच्चों का भी कटे”

शारदा सुबह पांच बजे उठ कर अपने घर के काम में लग जाती हैं। घर की खराब आर्थिक स्थिति से पैदा हुई साधनहीन परिस्थिति से उभरने वाली समस्याओं से वह हर दिन अकेले जूझती हैं। वह दिन की एक अवस्था को अपने शब्दों में बयां करते हुए कहती हैं, “घर में नल नहीं है, मैं हर दिन चौक में गढ़े सरकारी हैंडपंप से पानी ढोती हूं। मदद के लिए कोई नहीं है। घर में टायलेट की कोई सुविधा नहीं है।”

शारदा का एक आशा कार्यकर्ता के तौर पर कोई निश्चित वेतन नहीं है। वह अपने पूरे परिवार के जीवनयापन के लिए मुख्य रूप से इस पेशे से मिलनेवाली मामूली आय पर निर्भर रहती हैं। बतौर आशा कार्यकर्ता वह जितना कुछ जोड़ पाती हैं वह सब जमा पूंजी घर के ख़र्चों में चली जाती है। वह अपने तीन बच्चों की स्कूल की फीस, स्कूल से जुड़ी दूसरी ज़रूरतें पूरी करना या कपड़े खरीदना, घर का राशन, पति का सहयोग करना, सब कुछ खुद ही करती आ रही हैं। वह एक दिन ऐसी हालत में आ जाएंगी उन्होंने कभी सोचा नहीं था। 

वह कहती हैं, ‘यह कहावत है कि जितनी लंबी चादर हो, उतने ही पैर फैलाने चाहिए। लेकिन मेरी परिस्थिति में तो चादर ही नहीं है।” उनकी इस असहाय होने की भावना ने खुद के लिए उनकी सारी उम्मीदों को इतना सीमित कर दिया है कि उनका मकसद अपने तीनों बच्चों को बस कामयाब बनाना है। वह कहती हैं, “जैसा समय मेरा कट रहा है, मैं नहीं चाहती वही समय मेरे बच्चों का भी कटे। मुझे सुकून तभी पहुंचता है जब मेरा नौ साल का बड़ा बेटा कहता है कि मैं पढ़-लिख कर एक जाॅब ले लूंगा तो हम पापा को यहीं छोड़ देंगें और आपको साथ लेकर चलेंगे।”

“मैं बच्चों को ऐसा परिवेश नहीं दे सकती, जिसकी एक पितृसत्तात्मक समाज मांग करता है”

शारदा कहती हैं, “मैं बच्चों को ऐसा परिवेश नहीं दे सकती जिसकी एक पितृसत्तात्मक समाज मांग करता है।” उनका मतलब यहां एक ऐसे पुरुष केंद्रित परवरिश से है जिसके आलिंगन में ही बच्चे सही तरह से व्यवहार करना, मूल्य ग्रहण करना, अनुशासन में जीना, सभ्य बनना और आने वाली पीढ़ियों में गुणों को संचारित करना, आदि सीखते हैं। परवरिश देने की इस प्रक्रिया में पिता की भूमिका पितृसत्तात्मक समाज के अनुसार बेहद ज़रूरी होती है।

वह आगे बताती हैं, “मैंने अपनी परिस्थिति से सीखा है कि जहां पुरुष शराब पीने के आदी हों वहां बच्चे निडर हो जाते हैं क्योंकि वहां उन्हें कोई कुछ कहने वाला नहीं होता। ऐसे में बच्चे मां की कम और पिता की बातें ज्यादा सुनते हैं। यह एक ऐसी स्थापित दकियानूसी संस्कृति है जब पिता अनुपस्थित होता है और माता कभी भी उस अनुपस्थिति की प्रतिपूर्ति नहीं कर सकती हैं।”

शारदा के घर का एक कोना, तस्वीर साभार: वर्षा

शराबी पति और बच्चों की समाजीकरण की प्रक्रिया पर प्रभाव

अपने घर के वातावरण को शारदा अपने बच्चों के लिए अनुकूल नहीं समझती हैं। वह बताती हैं, “मेरे पति रोजाना शराब पीते हैं और वह पीकर कुछ न कुछ अपशब्द बोलते रहते हैं या ज्यादातर बड़बड़ाते रहते हैं। उनके बड़बड़ाने में गालियां ज्यादा होती हैं। इससे बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव ज्यादा पड़ता है। बच्चों के पास खुद का कोई स्पेस नहीं है। ऐसे में वे जानबूझकर घंटों घर से बाहर रहते हैं।” शारदा इस बात की ओर इशारा कर रही हैं कि बच्चों की छोटी उम्र बेहद संवेदनशील होती है। “मेरे बच्चे अभी ऐसी परिस्थिति में हैं जहां उनकी ज़िंदगी में माता-पिता के उचित मार्गदर्शन और अपने आस-पास प्रेरणास्रोत का अभाव है।”

बतौर आशा कार्यकर्ता उनके कामों का स्वरूप ऐसा है कि शारदा पूरे गांव के लोगों के साथ बातचीत करती हैं और उन्हें अलग-अलग मुद्दों पर जागरूक करती हैं। उनके ससुराल वाले इससे इतने असुरक्षित हैं कि वे इसे खतरे की तरह देखते हैं। इस कारण से कई बार उनके चरित्र पर भी शक किया जाता है।

शारदा डरती हैं कि बच्चों के लिए ऐसे माहौल में गलत दिशा में जाने की संभावना अधिक बढ़ जाती है। वह कहती हैं, “मेरे बच्चे जब घंटों बाहर रहते हैं तो उन्हें कोई न कोई कुछ न कुछ खाने की चीज़ें दे देता है। मेरा घर संभालने का बजट बहुत सीमित होता है, मैं उतनी समर्थ बिल्कुल नहीं हूं की बच्चों को टाॅफी, चाॅकलेट खरीदने के लिए पैसे दे सकूं। लेकिन मैं दो-तीन महीनों में थोड़े बहुत कुछ पैसे बचाकर उनके लिए फल जरूर लाती हूं।”

शारदा ने महीनेभर पहले अपने पति को महीनों की क़िस्‍त पर एक बाइक खरीदकर दी थी ताकि उनका पति बाइक का इस्तेमाल गांव में समान बेचने के लिए या घर-घर डिलीवरी कर कुछ पैसे कमा सके। कई बार शारदा के पास किस्त का भुगतान करने के पैसे भी नहीं होते हैं तो ऐसे में उन्हें किसी से उधार लेना पड़ता है। 

“औरत का शिक्षित होना पितृसत्ता के लिए एक खतरा”

बतौर आशा कार्यकर्ता उनके कामों का स्वरूप ऐसा है कि शारदा पूरे गांव के लोगों के साथ बातचीत करती हैं और उन्हें अलग-अलग मुद्दों पर जागरूक करती हैं। उनके ससुराल वाले इससे इतने असुरक्षित हैं कि वे इसे खतरे की तरह देखते हैं। इस कारण से कई बार उनके चरित्र पर भी शक किया जाता है। यही कारण है की उनके पति उनके प्रति गांव की तथाकथित ऊंची जाति के बहुसंख्यक समुदाय के पुरुषों के साथ अवैध संबंध रखने जैसे घृणित मानसिकता रखते हैं।

शारदा का शिक्षित होना और अकेले रोज़ी-रोटी कमाना, उनके पति के गुस्से का कारण बनता है। इससे जुड़ा एक ताना जो कि वह अक्सर सुनती रहती हैं वह यह “तू पेन चलाती है और पेन चलाने का पैसा खाती है।” इसका मतलब है कि परिवार के पितृसत्तात्मक नज़रिये में केवल ‘शारीरिक श्रम’ ही स्वीकार्य है। शारीरिक श्रम या काम को पुरुषों का प्रतीक माना जाता है जिसके माध्यम से वे सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र में भी अपना वर्चस्व बनाए रखते हैं।

शारदा के घर का एक कोना, तस्वीर साभार: वर्षा

तीसरी संतान बिटिया को गोद लेने का अनुभव

शारदा एक किस्से का ज़िक्र करते हुए बताती हैं, “तीन साल पहले भाई की पत्नी (भाभी) चौथी बेटी को जन्म देते हुए गुज़र गईं। इससे पहले भाई-भाभी की तीन बेटियां थीं। बच्ची की मां के गुज़र जाने के बाद मुझे विश्वास था कि उसका लालन-पालन उचित ढंग से नहीं किया जाएगा क्योंकि बेटे की चाह में लगातार चौथी बार बेटी पैदा हुई थी। मैं यह बात अच्छे से जानती थी क्योंकि मैं अपने माता-पिता की सातवीं संतान हूं। अपने पीहर में भी सुख नहीं भुगता है मैंने कभी। इसलिए पीहर वालों की इज़ाज़त से उस 6 दिन की छोटी सी गुड़िया यानी अपनी भतीजी को मैं अपनी बेटी बनाकर घर ले आई। मेरा सपना उसे भी शिक्षित करना है। वह मेरी बेटी है जो मेरे बुढ़ापे में साथ देगी, जब बड़ी हो जाएगी उससे अपने मन की बातें बताया करूंगी, वह अपनी मां के दुख को दुख समझेगी क्योंकि मुझे इन मामलों में बेटों से कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि मेरी बेटी में एक स्त्री है।”

शारदा का शिक्षित होना और अकेले रोज़ी-रोटी कमाना, उनके पति के गुस्से का कारण बनता है। इससे जुड़ा एक ताना जो कि वह अक्सर सुनती रहती हैं वह यह कि तू पेन चलाती है और पेन चलाने का पैसा खाती है। इसका मतलब है कि परिवार के पितृसत्तात्मक नज़रिये में केवल ‘शारीरिक श्रम’ ही स्वीकार्य है। शारीरिक श्रम या काम को पुरुषों का प्रतीक माना जाता है जिसके माध्यम से वे सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र में भी अपना वर्चस्व बनाए रखते हैं।

इस तरह क्या हम सभी कल्पना कर सकते हैं की दूर-दराज गाँवों में न जाने कितनी शारदा हैं जो कहने को तो आज़ाद भारत का हिस्सा हैं लेकिन पितृसत्ता के साये में अपना रहन-बसर करने पर मजबूर होती हैं। ऐसा दिखाई देता है की घर के बुरे हालात और सरकारी सहयोग दोनों पितृसत्ता की चपेट में जकड़ें हैं। त्योहार के दौरान 10 लाख दिये लगाने और 80 लाख फूलों से भव्य सज्जो सजावट का वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाने की बजाये अगर सरकार जमीनीस्तर पर सरकारी मुहिमों को पहुंचा रही इन कार्यकर्ताओं के गरिमापूर्ण  जीविका अर्जन के लिए उपयुक्त तय सैलरी का प्रावधान कर दें तो वो अपने गॉंवों को उज्जवल बना सकती हैं। देश की आशा कार्यकर्ता समाज के पदानुक्रम में जिस स्तर के लोगों को सरकारी सुविधाएं पहुंचा रही हैं वे न तो अमीर हैं न ही मिडिल क्लास। कारण इस नज़रिये का भी है जो व्यवस्था की पक्षपातपूर्ण मानसिकता को दर्शाता है जो कि आशा कार्यकर्ताओं को गरीबी में निरंतर बने रहने के लिए और भी बाध्य करता है। 


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