ग्राउंड ज़ीरो से हाशिये पर खड़ा गड़िया लोहार समुदाय: उपेक्षा, अभाव और संघर्ष की कहानी

हाशिये पर खड़ा गड़िया लोहार समुदाय: उपेक्षा, अभाव और संघर्ष की कहानी

गड़िया लोहार समुदाय की झुग्गियों में रहने वाले लोगों की ज़िंदगी बिल्कुल अलग है। यहां न तो नहाने की जगह है और न ही शौचालय की सुविधा।

“प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना हो या जननी सुरक्षा योजना, मैंने इनके बारे में आज पहली बार सुना है। अब तक हमें इसकी कोई जानकारी नहीं दी गई है। सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण योजना के बारे में भी मैं कुछ नहीं जानती। सरकार के लोग तो हमारी बस्ती की तरफ कभी आते ही नहीं। हमारी बस्ती में न कोई सरकारी अफसर आता है, न कोई एनजीओ।” ये आवाज़ें हैं दिल्ली में रह रहे गड़िया लोहार समुदाय की, जो कभी खानाबदोश और घुमंतू जीवन जीते थे। आज वे राजधानी के बीचोंबीच झुग्गियों में बेहद कठिन हालात में जीवन बिता रहे हैं। दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों में रहने के बावजूद इन्हें केंद्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का सीधा लाभ नहीं मिल पाता। द इंडियन एक्स्प्रेस की रिपोर्ट अनुसार गड़िया लोहार समुदाय की 55 फीसद आबादी के पास राशन कार्ड है, 97 फीसद लोगों के पास आधार कार्ड है और 84 फीसद के पास वोटर आईडी जैसे जरूरी पहचान दस्तावेज़ भी हैं। इसके बावजूद इन्हें न तो सरकारी योजनाओं की जानकारी मिलती है, न ही उनके लाभ।

तस्वीर साभार: अमरेन्द्र किशोर

दिल्ली के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में स्थित सरस्वती विहार की झुग्गियों में रहने वाले गड़िया लोहार समुदाय के लोग आज भी बुनियादी अधिकारों और सरकारी सेवाओं से वंचित हैं। उनके पास आधार कार्ड, वोटर आईडी और राशन कार्ड जैसे सभी ज़रूरी दस्तावेज़ हैं। फिर भी, स्वास्थ्य सेवाओं, आवास योजनाओं और सामाजिक सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं उनसे कोसों दूर हैं। गड़िया लोहार समुदाय के लोग पारंपरिक लौह शिल्पकार हैं। वे तवा, कड़ाही, फावड़ा, छैनी और चिमटा जैसे औज़ार बनाते हैं और इसी काम से रोज़ाना केवल ₹200 से ₹400 की आमदनी होती है। वर्षों से वे सड़कों के किनारे अस्थायी झोपड़ियों में रह रहे हैं। सरस्वती विहार के निवासी सीताराम लोहार कहते हैं, “हम भारत के सबसे ईमानदार वोटर माने जा सकते हैं। हमें सरकारी सुविधा के नाम पर सिर्फ़ मुफ़्त अनाज मिलता है, लेकिन हम कभी चुनाव का बहिष्कार नहीं करते।”

हम भारत के सबसे ईमानदार वोटर माने जा सकते हैं। हमें सरकारी सुविधा के नाम पर सिर्फ़ मुफ़्त अनाज मिलता है, लेकिन हम कभी चुनाव का बहिष्कार नहीं करते।

सड़कों के किनारे धूल फाँकती ज़िंदगियां

राजस्थान जैसे राज्यों में गड़िया लोहारों को ‘अति पिछड़ा वर्ग’ (एमबीसी) के रूप में मान्यता प्राप्त है, जिससे उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलता है। लेकिन दिल्ली में उन्हें केवल ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) में गिना जाता है, जिससे उन्हें कोई विशेष योजना या संरक्षण नहीं मिलता। दिल्ली की चमकदार इमारतों और चौड़ी सड़कों के बीच इस तबके की ज़िंदगी धूल और धुएं के बीच सिमटी हुई है। बिना पक्के घरों, बिजली, शौचालय और साफ़ पानी जैसी ज़रूरी सुविधाओं के बिना, इनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी कई तरह की चुनौतियों से भरी हुई है। खासतौर पर महिलाओं और बच्चों के लिए यह हालात और भी कठिन हैं।

प्रेम नगर की जेजे कॉलोनी में रहने वाले नन्हे राठौर कहते हैं, “गाड़ियों से निकलते प्रदूषण के कारण बीमारियों का खतरा लगातार बढ़ रहा है। समुदाय की महिलाओं की सुरक्षा भी चिंता का विषय है। अभी तक तो सब ठीक है, लेकिन आगे कुछ कह नहीं सकते।” महिलाओं की समस्याओं पर शीला लोहार बताती हैं, “हमारा समाज पिता-प्रधान है। ऐसे में महिलाएं खुलकर अपनी बात नहीं कह पातीं। वे सबसे आख़िर में खाना खाती हैं और अपनी सेहत से जुड़ी परेशानियों को नज़रअंदाज़ कर देती हैं। आंगनवाड़ी केंद्र तक जाना भी पति की इजाज़त पर निर्भर करता है।”

हमारा समाज पिता-प्रधान है। ऐसे में महिलाएं खुलकर अपनी बात नहीं कह पातीं। वे सबसे आख़िर में खाना खाती हैं और अपनी सेहत से जुड़ी परेशानियों को नज़रअंदाज़ कर देती हैं। आंगनवाड़ी केंद्र तक जाना भी पति की इजाज़त पर निर्भर करता है।

सामाजिक परंपराएं और समुदाय की महिलाओं की हालत  

तस्वीर साभार: अमरेन्द्र किशोर

हालांकि, सभी की राय एक जैसी नहीं है। पालम में रहने वाले राजवीर लोहार गर्व से कहते हैं, “हमें समुदाय की महिलाओं की सुरक्षा की ज़्यादा चिंता नहीं होती। हम लोहे के औजार बनाते हैं, जिससे असामाजिक तत्व हमारे पास आने से डरते हैं।” सामाजिक परंपराएं भी इनकी बेटियों की ज़िंदगी को प्रभावित करती हैं। जनकपुरी मेट्रो के पास रहने वाली प्रेमा कहती हैं, “हमारे समाज में लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है। 12 से 14 साल की उम्र में वे स्कूल छोड़ देती हैं। ज़्यादातर लड़कियां शादी के बाद अपने पतियों के लोहे के काम में मदद करने लगती हैं।” वहीं, नाम न बताने के शर्त एक युवती बताती हैं, “नई पीढ़ी पढ़ाई के लिए थोड़ा-बहुत तैयार है, अगर वे चाहें तो। लेकिन मेरी शादी तो जैसे ही मैं 18 साल की हुई, उसी दिन कर दी गई थी।”

बुनियादी ज़रूरतों के लिए जद्दोजहद

सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन के पास का इलाका देखने में तो काफी विकसित लगता है—बड़े-बड़े मकान हैं, बाजार है और दूसरी सुविधाएं मौजूद हैं। लेकिन इसी इलाके के पास गड़िया लोहार समुदाय की झुग्गियों में रहने वाले लोगों की ज़िंदगी बिल्कुल अलग है। यहां न तो नहाने की जगह है और न ही शौचालय की सुविधा। पवन कुमार प्रधान बताते हैं कि पास में दिल्ली नगर निगम का एक सार्वजनिक शौचालय है, लेकिन हर बार उसके इस्तेमाल के लिए पैसे देने पड़ते हैं। सुनीता चौहान कहती हैं कि शौच के लिए पाँच रुपये, नहाने के लिए दस रुपये और कपड़े धोने के लिए बीस रुपये लगते हैं। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि रात नौ बजे के बाद शौचालय बंद कर दिया जाता है, जिससे महिलाओं को मजबूरी में खुले में जाना पड़ता है। यह स्थिति उनके लिए बेहद असुरक्षित और अपमानजनक है। श्याम लाल राठौर कहते हैं, “सरकार ने खुले में शौच खत्म करने के लिए ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत की थी, लेकिन नगर निगम ने इन बस्तियों को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। दिल्ली के सरस्वती विहार में स्थित ऐसी ही एक बस्ती में करीब बीस झुग्गियां हैं।”

सरकार ने खुले में शौच खत्म करने के लिए ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत की थी, लेकिन नगर निगम ने इन बस्तियों को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। दिल्ली के सरस्वती विहार में स्थित ऐसी ही एक बस्ती में करीब बीस झुग्गियां हैं।

वे आगे बताते हैं, “यहां पानी की स्थिति थोड़ी बेहतर है, लेकिन शौचालयों की हालत बेहद खराब है। संजय लोहार बताते हैं कि विधायक निधि से दो शौचालय तो बनाए गए हैं, लेकिन उनमें दरवाजे और बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं, जिससे महिलाएं वहां जाने से हिचकती हैं।” पालम, पश्चिम विहार और आज़ादपुर जैसे इलाकों में भी गड़िया लोहार समुदाय की बस्तियों में सफाई और शौचालय की स्थिति दयनीय है। कुछ जगहों पर मोबाइल शौचालय लगाए गए हैं, लेकिन उनकी देखभाल नहीं होती और उनकी संख्या भी आबादी के हिसाब से बहुत कम है। आधी से ज़्यादा बस्तियों में कचरा फेंकने की भी कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है। इस बदहाल स्थिति का सबसे बड़ा असर महिलाओं, बच्चों और बुज़ुर्गों पर पड़ता है, जो रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित बस्तियां

तस्वीर साभार: अमरेन्द्र किशोर


दिल्ली की गड़िया लोहार बस्तियों में इलाज की कोई पक्की व्यवस्था नहीं है। यहां रहने वाले लोग या तो सरकारी अस्पतालों के चक्कर काटते हैं या मजबूरी में महंगे निजी अस्पतालों में इलाज करवाते हैं। 70 साल की रानी बताती हैं कि उनकी बेटियों और बहुओं की डिलीवरी निजी अस्पताल में हुई क्योंकि उन्हें सरकारी अस्पतालों पर भरोसा नहीं है। यहां के ज़्यादातर लोगों को ‘एकीकृत बाल विकास सेवाएं (ICDS)’ के बारे में जानकारी नहीं है। बस्तियों में आंगनवाड़ी केंद्र भी नहीं हैं। गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के पोषण और स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाएं यहां नहीं पहुंचतीं।

कमला राठौर, प्रतिज्ञा सिंह और आशा लोहार जैसे कई महिलाएं लोहे के औजार बनाती हैं और पीरियड्स के दौरान अधिक रक्तस्राव जैसी समस्याएं झेलती हैं। झुग्गियों के टूटने और पानी की कमी के कारण शोभा और कमला जैसी महिलाओं को माहवारी के समय सफाई रखना मुश्किल हो गया था। सरकारी प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं आज भी इन बस्तियों तक नहीं पहुंच पाई हैं। 32 साल के कपिल की पत्नी पूजा गुर्दे की पथरी की जांच के लिए सरकारी अस्पताल के चक्कर काट रही हैं, लेकिन जांच की सुविधा नहीं मिल रही है। आयुष्मान भारत योजना का भी उन्हें कोई लाभ नहीं मिला। वहीं, जरूरी टीकों के लिए अभिभावकों को खुद व्यवस्था करनी पड़ती है। यह स्थिति समुदाय के स्वास्थ्य अधिकारों पर गंभीर सवाल उठाती है।

70 साल की रानी बताती हैं कि उनकी बेटियों और बहुओं की डिलीवरी निजी अस्पताल में हुई क्योंकि उन्हें सरकारी अस्पतालों पर भरोसा नहीं है। यहां के ज़्यादातर लोगों को ‘एकीकृत बाल विकास सेवाएं (ICDS)’ के बारे में जानकारी नहीं है। बस्तियों में आंगनवाड़ी केंद्र भी नहीं हैं। गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के पोषण और स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाएं यहां नहीं पहुंचतीं।

सरकार के प्रावधानों से दूर गाड़िया लोहार और बदलता समाज

तस्वीर साभार: अमरेन्द्र किशोर

यहां के निवासी देवदास के अनुसार, दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में गाड़िया लोहारों की लगभग 58 बस्तियां हैं, जिनमें सबसे बड़ी बस्ती पालम की आदर्श गली में स्थित है। इसके अलावा, रोहिणी (सेक्टर 24) और कीर्ति नगर (लकड़ मंडी) जैसी छोटी बस्तियां भी हैं, जिनमें केवल 5-7 घर हैं। गाड़िया लोहारों के सरकारी पहचान पत्रों में उनका सही पता दर्ज नहीं होता क्योंकि उन्हें बार-बार अपना ठिकाना बदलना पड़ता है। इसके कारण, ये समुदाय सरकारी योजनाओं और उनके अधिकारों से वंचित रहता है। सराय रोहिल्ला में रहने वाले रमेश कहते हैं, “पारंपरिक हुनर ही हमारे रोज़ी-रोटी का साधन था, लेकिन मॉल संस्कृति और ऑनलाइन शॉपिंग के बढ़ते दौर में उनके बनाए सामान की अब बाजार में उतनी मांग नहीं रही। हमारा सदियों पुराना पेशा अब दो वक्त की रोटी कमाने लायक भी नहीं रह गया है। ऐसे हालात में, नई पीढ़ी लोहे की कारीगरी छोड़कर ई-रिक्शा चलाने लगे हैं।” समुदाय की महिलाएं पारंपरिक कारीगरी में नहीं जुट सकतीं, लेकिन आर्थिक तंगी में अब वे प्राइवेट कंपनियों में नौकरी करने लगी हैं। नेताजी सुभाष प्लेस की एक प्राइवेट फर्म में 30 वर्षीय सुमन राठौर का काम करना अपनेआप में एक बड़ा बदलाव है।  

गर्व भरा इतिहास और स्वाभिमान की ज़िंदगी

आज़ादी के गड़िया समुदाय के लोगों को जन-वितरण प्रणाली के तहत राहत मिली, जिससे वे राजस्थान से दिल्ली आकर बस गए। उनके पूर्वज महाराणा प्रताप की सेना में थे। मेवाड़ की हार के बाद उन्होंने घर न लौटने का संकल्प लिया और तब से वे संघर्षशील जीवन जीते आए। श्यामलाल राठौर कहते हैं कि उनके समुदाय का दिल्ली पुलिस रिकॉर्ड साफ है — वे न किसी की संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं, न ही कानून तोड़ते हैं। हौजरानी की शकुंतला सिंह बताती हैं कि गड़िया लोहार समाज की महिलाएं शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण, स्वच्छ ईंधन, पानी और स्वास्थ्य सेवाओं की भारी कमी से जूझ रही हैं। केवल 2 फीसद लोगों को ही जाति प्रमाण पत्र मिला है, जिससे आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रकाश गौतम का कहना है कि सरकार को शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और आर्थिक आत्मनिर्भरता से जुड़ी योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू करना चाहिए। विशेषकर कौशल विकास प्रशिक्षण की जरूरत है ताकि समुदाय सशक्त हो सके।

तस्वीर साभार: अमरेन्द्र किशोर

रामपुरा के धीरज बताते हैं कि जब तक पुनर्वास नहीं होता, तब तक बस्तियों पर बुलडोज़र चलाना अन्याय है। साल 1991 से 2018 के बीच इनकी बस्तियों को 53 बार तोड़ा गया, जिससे महिलाओं और बच्चों को खासतौर पर भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। गड़िया लोहार समुदाय का इतिहास संघर्ष और स्वाभिमान से भरा हुआ है, लेकिन आज भी वे सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। सरकारी योजनाओं का इन तक पहुंचना मुश्किल है, जिससे उनके जीवन स्तर में कोई विशेष सुधार नहीं हो पाया है। शिक्षा, कौशल विकास, स्वास्थ्य सेवाओं और आवास की उचित व्यवस्था की कमी उन्हें सामाजिक न्याय से वंचित रख रही है। हालांकि, कुछ सरकारी प्रयासों और नीतिगत समर्थन से उनकी समस्याओं का समाधान संभव है। यदि इनकी जरूरतों को सही तरीके से पहचाना जाए और उपयुक्त योजना लागू की जाए, तो गड़िया लोहार समाज की महिलाएं और पुरुष एक बेहतर और स्थिर जीवन की ओर बढ़ सकते हैं।

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