आज के आधुनिक युग में एक ओर जहां हम चाँद पर कदम रख रहें वही दूसरी ओर भारतीय समाज में स्थापित जातीय संस्कार और पितृसत्ता अभी भी धड़ तक हमें जमीं में गाड़े हुई हैं। समाज का कोई भी भाग इससे अछूता नहीं है। यहां तक के साहित्य भी नहीं। भारतीय साहित्य के क्षेत्र में भी हमेशा से तथाकथित सवर्णों का वर्चस्व रहा है। दलित-पिछड़े वर्गों को कभी पढ़ने-लिखने के लिए, अपनी आवाज़ दुनिया तक पहुँचाने के लिए वो अवसर ही नहीं मिला जो तथाकथिक ऊंची जातियों को पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता आया। इसलिए जब हम भारत के साहित्य की बात करते हैं तो ऐसा कम ही होता है कि दिमाग़ में किसी दलित लेखक, ख़ासतौर पर लेखिका का नाम आए।
इसके पीछे एक कारण ये भी रहा कि साहित्य में दलित स्त्रियों की चर्चा तो थी पर साहित्य तक उनकी पहुंच नहीं थी। भारतीय पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवादी समाज में दलित स्त्री को शिक्षा के लिए तमाम तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। उसी समाज में रह कर साहित्य जैसे क्षेत्र, जिसमें वर्षों तक पुरुषों का एकाधिकार रहा हो उसमें अपना स्थान बनाना ही कितना संघर्षों भरा हो सकता है इसकी कल्पना तक कर पाना कठिन है।
आज दलित स्त्री लेखिकाएं समाज और साहित्य में अपना स्थान निर्धारित करने के लिए आंदोलन कर रही हैं तथा अपनी लेखनी के माध्यम से अपने मुद्दों को साहित्य के केन्द्र में ला रही हैं। परंतु अभी भी उन्हें जातिवाद तथा पितृसत्ता की राजनीति का सामना करके अपना स्थान बनाने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। हिंदी साहित्य के इसी जातिवाद तथा हाशिए पर खड़ी दलित लेखिकाओं के मुश्किल अनुभवों, संघर्षों तथा उनका मार्ग बाधित करने वाले अवयवों और उसके निदान पर चर्चा करने तथा इस मुद्दे पर बेहतर समझ विकसित करने के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया ने जानी-मानी दलित लेखिका डॉक्टर रजनी दिसोदिया और डॉक्टर पूनम तुषामड़ से बात की। पेश है उनसे बातचीत के कुछ अंश।
दलित स्त्रियों ने अभी नया-नया शिक्षा में कदम रखा है। साहित्य भी उनके लिए नई जगह है और उनके पास धन, अन्य संसाधन तथा टेक्निकल जानकारी की कमी है। उन्हें अभी खुद को रिप्रेजेंट करने में भी दिक्कतें आती हैं।
फेमिनिज़म इन इंडिया : समकालीन साहित्य में दलित स्त्री लेखिकाओं की कमी के क्या कारण है? उन्हें इस क्षेत्र में अपना स्थान बना पाने में किस प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है?
पूनम तुषामड़ : दलित स्त्रियों ने अभी नया-नया शिक्षा में कदम रखा है। साहित्य भी उनके लिए नई जगह है और उनके पास धन, अन्य संसाधन तथा तकनीकी जानकारी की कमी है। उन्हें अभी खुद को रिप्रेजेंट करने में भी दिक्कतें आती हैं। हालांकि ऐसी कितनी ही दलित लेखिकाएं हैं जिनके पास पद है, ज्ञान है पर उनको मुख्य धारा में शामिल ही नहीं किया जाता है। उन्हें सीमित कर दिया गया है, कैटेगरी बना दी गई है। उन्हें तभी ध्यान किया जायेगा जब दलित साहित्य से संबंधित कोई विशेष चर्चा हो। दलित स्त्री लेखिकाओं के साथ उनको मान्यता मिलने की भी दिक्कतें रही हैं। आप हिंदी स्त्री लेखिकाओं की सूची निकालेंगे तो उसमें दलित स्त्री लेखिका का नाम नहीं दिखेगा क्योंकि उनको वो मान्यता कभी नहीं मिली जो एक सवर्ण रचनाकारों को मिलती हैं।
फेमिनिज़म इन इंडिया : क्या दलित साहित्य के प्रकाशन में भी दिक्कतें आती हैं?
पूनम तुषामड़ : दलितों ने अपने पब्लिकेशन हाउस खोले क्योंकि यह एक बहुत बड़ी ज़रूरत थी। ‘सम्यक’, ‘कदम प्रकाशन’ या और भी बहुत के खुलने की ज़रूरत ही इसीलिए महसूस हुई क्योंकि यह जो सामूहिक (सवर्ण) प्रकाशन हैं इनके कैटलॉग उठाकर देख लीजिए मुश्किल है किसी दलित स्त्री लेखिका का नाम दिखे।
फेमिनिज़म इन इंडिया : क्या साहित्य में भी पुरस्कारों की राजनीति चलती है? अगर हाँ तो यह दलित लेखिकाओं को कैसे प्रभावित करता है?
पूनम तुषामड़ : आप हिंदी साहित्य के तमाम बड़े से बड़े राष्ट्रीय पुरस्कार का हाल देख लीजिए। उनकी लिस्ट निकालिए और देखिए उनको प्राप्त करने वाली कितनी स्त्री लेखिकाएं हैं और जो हैं भी तो उनमें से कितनी दलित स्त्री लेखिकाएं हैं? एक दो भी मिल जाए तो बड़ी बात है। क्या इतने सालों से उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जिसके लिए उन्हें पुरस्कृत किया जाए? कहीं न कहीं ऐसा है कि अगर इस तरह की कोई बड़ी उपलब्धि किसी दलित स्त्री लेखिका को मिलती है तो बंधन टूटेंगे और पाठक वर्ग प्रभावित होगा। क्योंकि फिर सब पढ़ना चाहेंगे, सब जानना चाहेंगे कि ऐसा क्या लिखा गया है और वहीं मौके यह लोग देना नहीं चाहते और यह जानबूझकर, रणनीति बनाकर उन्हें पीछे रखने के लिए किया जाता है।
फेमिनिज़म इन इंडिया : वर्तमान समय में दलित साहित्य की चुनौतियों को आप किस प्रकार से देखती है?
रजनी दिसोदिया : एक तो ये कि बड़े लेखकों की रचनाएं तो लोग उनकी मृत्यु के बाद भी छापते हैं और आगे बढ़ाते हैं लेकिन अधिकांशतः दलित लेखकों की मृत्यु के बाद उनकी रचनाएं भी मर जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनको एक बड़ी पहचान उतनी आसानी से नहीं मिल पाती, उनका इतना नाम नहीं हो पाता, उनकी पाठ्यक्रम तक पहुंच नहीं है और उनके परिवार वाले भी भुला चुके हैं। ऐसे में उनका साहित्य ज्यादा समय तक कायम नहीं रह पाता तो उस साहित्य को कैसे बचाएं यह दिक्कत आती है। दूसरी यह कि साहित्य के दो पक्ष हैं एक क्रिएटिव राइटिंग दूसरा क्रिएटिव एनालिसिस यानी विश्लेषण। प्रायः दलित स्त्री लेखन का जो क्रिएटिव एनालिसिस वाला पक्ष है उसको छापने वाली पत्रिकाएं नहीं मिलती। एक आलोचक के तौर पर आप क्या सोचते हैं, आप कैसे चीजों का विश्लेषण करते हैं इसके लिए जगह ही नहीं है। दलित समाज की अपनी साहित्य पर केंद्रित पत्रिकाएं कम है। किताबें आती हैं और चली जाती हैं पर पत्रिकाएं न सिर्फ साहित्य को प्रवाह में रखने का काम करती है बल्कि नए लेखकों को भी खोज-खोज कर लाती हैं। तो दलित साहित्य की अपनी अच्छी साहित्य पत्रिकाएं होनी चाहिए ताकि हमारे विचार जनता तक पहुंचे।
फेमिनिज़म इन इंडिया : अभी कुछ ही रोज पहले “वर्तमान साहित्य” नामक एक पत्रिका ने “समकालीन महिला लेखन महाविशेषांक” निकाला था। उसमें एक भी दलित स्त्री लेखिका का नाम नहीं था। ऐसी और भी कई पत्रिकाएं हैं तो क्या यह साहित्य के भेदभाव को इंगित करता एक उदाहरण हैं?
पूनम तुषामड़ : बिल्कुल! सामान्य हिंदी की पत्रिकाओं में दलित साहित्य को तब जगह दी जाती हैं जब उस पर कोई विशेषांक निकाला जा रहा हो। बाकी पितृसत्ता अपनी जगह बना ही लेती है। ऐसी पत्रिकाओं के प्रकाशक ये तो दिखाना चाहते हैं कि हम महिलाओं पर बात कर रहे हैं पर वो किन महिलाओं की बात कर रहे हैं यह देखने लायक है।
फेमिनिज़म इन इंडिया : बदले हुए जातिवाद के स्वरूप का दलित लेखन पर क्या असर पड़ रहा है?
रजनी दिसोदिया : पहले जो घृणा थी अब वह ईर्ष्या में बदल गई है। जो भेदभाव और हिंसा स्थूल रूप से सामने होती थी अब वह सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष हो गई हैं। नई पीढ़ी के लेखक का अनुभव अपने समुदाय से अलग कर दिए जाने का भी है। उन्हें शहरों में गुजर बसर करने के लिए अपनी जाति पहचान छुपाकर रहना पड़ता हैं और यह एक नए तरह का तनाव उत्पन्न कर रहा है।
सामान्य हिंदी की पत्रिकाओं में दलित साहित्य को तब जगह दी जाती हैं जब उस पर कोई विशेषांक निकाला जा रहा हो। बाकी पितृसत्ता अपनी जगह बना ही लेती है। ऐसी पत्रिकाओं के प्रकाशक ये तो दिखाना चाहते हैं कि हम महिलाओं पर बात कर रहे हैं पर वो किन महिलाओं की बात कर रहे हैं यह देखने लायक है।
फेमिनिज़म इन इंडिया : समकालीन साहित्य समाज कितना समावेशी है?
रजनी दिसोदिया : जब आप ऐसे किसी प्लेटफार्म में होते हैं तो ऐसी चीजें होती हैं कि एक गुट या समूह बन जाता है और दूसरा उसमें बाहरी बनकर रह जाता है। यह जानबूझकर नहीं होता है पर होता है। दलित और सवर्ण रचनाकारों के बीच एक दूरी है और जब तक यह दूरी है तब तक एक-दूसरे को अप्रिशिएट करना और एक-दूसरे को साथ-साथ लेकर चलने में दिक्कत रहेगी। पर कहीं न कहीं अब यह बंधन टूट भी रहे हैं कितने ऐसे लेखक और लेखिकाएं है जो समाज के भेदभाव के विरुद्ध हमारे साथ खड़े रहते हैं, हौसला देते हैं, यह बदलाव देखना सुखद है।
फेमिनिज़म इन इंडिया : युवाओं को किस तरह दलित साहित्य पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया जाए? जिससे वह दलित साहित्य का चुनाव करें?
रजनी दिसोदिया : अगर दलित साहित्य की भी अपनी पत्रिकाएं, साहित्यिक मंच हो, लेखिकाओं को समान अवसर, मान्यता मिले, उनकी पुरस्कारों तक पहुंच हो तो उन पर भी चर्चा होगी और फिर सब पढ़ना चाहेंगे कि क्या लिखा गया है। जब सब पढ़ेंगे तो लेखन की भी प्रेरणा मिल जायेगी। तो पहले तो सभी के लिए लोकतांत्रिक माहौल बनाने की ज़रूरत है।