नारीवादी आनंद का मतलब केवल हंसी-मज़ाक या सुख के पलों से नहीं है, बल्कि यह उस गहरे संतोष, आत्म-स्वीकृति और सामूहिक शक्ति की अनुभूति है, जो एक औरत अपने अस्तित्व, संघर्षों और आत्मनिर्भरता के बीच महसूस करती है। यह आनंद उस क्षण में बसता है जब कोई महिला पितृसत्ता से बाहर जाकर अपनी आवाज़, इच्छाओं और एजेंसी को पहचानती है। नारीवादी आनंद तब भी उपजता है जब औरतें एक-दूसरे का साथ देती हैं, जब वे अपने जख्मों पर मरहम खुद लगाती हैं, या जब वे प्रेम, क्रांति और आत्म-अनुशासन के रास्ते अपनी दुनिया को फिर से रचती हैं।
यह खुशी विद्रोह से भी आता है, चुप्पी तोड़ने से, पुराने ढाँचों को चुनौती देने से, और अपनी शर्तों पर जीवन जीने से भी। आज नारीवादी आंदोलनों के बीच हमें ‘नारीवादी आनंद’ पर बात करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि अक्सर महिलाओं की कहानियां केवल दुख, हिंसा और हाशिये पर रहने तक सीमित कर दी जाती है। लेकिन, अगर हम केवल पीड़ा की राजनीति पर टिके रहेंगे, तो महिलाओं की एजेंसी और उनकी आत्मिक क्षमताओं को नज़रअंदाज़ करना होगा। आनंद की बात करना एक राजनीतिक क़दम है। यह दुनिया को बताता है कि औरतें केवल उत्पीड़ित या शोषित नहीं हैं, वे जी भी रही हैं, हंस भी रही हैं, और बदलाव की कल्पना कर रही हैं।
नारीवाद को अक्सर प्रतिरोध से जोड़ा जाता है। व्यवस्था के ख़िलाफ़ बोलना, पितृसत्ता से टकराना, चुप्पियों को तोड़ना। लेकिन, मेरे लिए नारीवाद उतना ही आंतरिक है जितना कि बाहरी।
हिंदी में इस पर बात करना और भी ज़रूरी है क्योंकि करोड़ों महिलाएं हैं, जिनके जीवन में यह आनंद छिपा है। लेकिन जिनकी आवाजों को अकसर वह भाषा नहीं मिलती जिसमें वे उसे बयान कर सकें। कभी-कभी जीवन एक तूफान की तरह हो जाता है। भीतर से बाहर तक सब कुछ हिल जाता है। शरीर थकता नहीं, पर मन बैठ जाता है। मैं भी कई बार ऐसे पलों से गुज़री हूं जब गुस्सा, दुख और असहायता का तूफान मेरे भीतर उमड़ा है। पर आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं, तो समझती हूं कि उन्हीं पलों ने मुझे मेरे भीतर के नियंत्रण से जोड़ा और यही नियंत्रण, यही लौटना, मेरे लिए नारीवादी आनंद है।
नारीवाद और आत्मनियंत्रण का रिश्ता
नारीवाद को अक्सर प्रतिरोध से जोड़ा जाता है। व्यवस्था के ख़िलाफ़ बोलना, पितृसत्ता से टकराना, चुप्पियों को तोड़ना। लेकिन, मेरे लिए नारीवाद उतना ही आंतरिक है जितना कि बाहरी। जब मैं गुस्से में होती हूं, और उस गुस्से से बाहर निकलकर अपने मन और शरीर को संभालती हूं तब वह पल मेरे लिए क्रांतिकारी होता है। यह आत्मनियंत्रण कोई हिंसात्मक दबाव नहीं है, यह एक चुनी हुई प्रक्रिया है, जहां मैं अपने शरीर और मन को सुनती हूं। उन्हें स्पेस देती हूं और धीरे-धीरे उनसे संवाद करती हूं। इस संवाद की यात्रा में मेरी सबसे गहरी साथी बनी हैं- योग, विपस्सना, किताबें और मेरी मौन अवस्था।
अपनेआप को और शरीर को जानना

मैंने योग को सबसे पहले एक ‘फिटनेस एक्टिविटी’ के तौर पर अपनाया था पर जैसे-जैसे मैंने रोज़ योग करना शुरू किया, मैंने अपने शरीर को एक नए रूप में महसूस करना शुरू किया है। हर आसन में एक सच्चाई छिपी थी, त्रिकोणासन का संतुलन, वृक्षासन की जड़ें, शवासन की शांति। मेरे शरीर ने बोलना शुरू किया, और मैंने पहली बार उसे सुना। एक महिला के रूप में हम अक्सर अपने शरीर से अलग-थलग कर दिए जाते हैं। अपने शरीर पर बात करना या तो वह शर्म का विषय होता है, या नियंत्रण का। लेकिन योग ने मुझे सिखाया कि मैं अपने शरीर की मालिक हूं। वह मेरा सहयोगी है, शत्रु नहीं। यही अनुभव मेरे नारीवादी आनंद का पहला स्तंभ है।
विपस्सना: चुप्पी में क्रांति की भावना
विपस्सना—एक बौद्ध ध्यान पद्धति, जिसने मेरे सोचने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया। दस दिन का मौन, बिना फोन, किताब, बातचीत या बाहरी संपर्क के। शुरुआत में यह बहुत कठिन था, लेकिन धीरे-धीरे मैंने देखा कि मेरे भीतर चल रही हलचलें शांत होने लगीं। विपस्सना ने मुझे सिखाया कि गुस्सा और विचार आते हैं और चले भी जाते हैं। इस सबको केवल देखना, स्वीकार करना ही एक क्रांति है—खासकर तब, जब समाज महिलाओं से हमेशा प्रतिक्रिया देने की अपेक्षा करता है। यह ‘बस होना’ मेरे लिए नारीवादी ताक़त का प्रतीक बन गया।
मेरे नारीवादी चेतना के निर्माण में साहित्य की भूमिका भी रही है। खासकर प्रेमचंद की कहानियां। सेवासदन की सुमन और सद्गति की झुरिया। ये पात्र सिर्फ किरदार नहीं, मेरे आस-पास की सच्चाइयों की परछाइयां थीं। प्रेमचंद की स्त्रियां लगातार मर्यादा, समाज और नैतिकता के दायरे में कैद होती हैं, पर उनकी पीड़ा एक चेतना को जन्म देती है।
संवाद की एक नई भाषा
विपस्सना ने मौन को मेरी ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया। अब मुझे चुप रहना अच्छा लगने लगा है। यह चुप्पी डर से उपजी नहीं होती, यह मेरी चुनी हुई भाषा है। जब मैं चुप होती हूं तो अपने भीतर की आवाज़ सुन सकती हूं। समाज, रिश्ते, करियर, इन सबकी आवाज़ें थोड़ी धीमी हो जाती हैं और मेरी अपनी आवाज़ थोड़ी तेज़। इस मौन में मैं सिर्फ सुकून नहीं पाती, मैं निर्माण करती हूं अपने विचारों, अपनी भावनाओं और अपने रास्तों को। कोलाहल भरे जीवन में जब हर तरफ सिर्फ भागदौड़ है, ऐसे में मौन अंतर्मन में शांति पैदा कर कुछ ठोस करने के निर्णय के लिए भी सहायता देता है।
मेरी किताबों से मिलता साहस

मेरे नारीवादी चेतना के निर्माण में साहित्य की भूमिका भी रही है। खासकर प्रेमचंद की कहानियां। सेवासदन की सुमन और सद्गति की झुरिया। ये पात्र सिर्फ किरदार नहीं, मेरे आस-पास की सच्चाइयों की परछाइयां थीं। प्रेमचंद की स्त्रियां लगातार मर्यादा, समाज और नैतिकता के दायरे में कैद होती हैं, पर उनकी पीड़ा एक चेतना को जन्म देती है। उस चेतना ने मुझे अपने अनुभवों को समझने की भाषा दी है। इसके अलावा जब मैंने निर्मला पुतुल, महाश्वेता देवी, या हिंदी की दलित महिला लेखिकाओं को पढ़ा जैसे आत्मकथात्मक रचनाएं तो मेरा नारीवादी दृष्टिकोण और गहरा हुआ। यह यात्रा अब मुझे विदेशी लेखिकाओं जैसे सिल्विया प्लाथ, वूलस्टोनक्राफ्ट तक ले आई है।
बहुत समय तक मैंने सोचा कि नारीवाद सिर्फ टकराव है लेकिन अब मैं समझती हूं कि ये खुश होना भी है। नारीवाद की बदौलत ही अब मैं यह जानती हूं कि टकराव के बाद निर्माण भी होता है।
अकेले घूमना: जगहों में खुद को खोजना
मैंने जीवन में कुछ यात्राएं अकेले की हैं। पहाड़, गांव, नदियां — इन सबने मुझे एक नई स्त्री बनाया है। अकेले घूमना एक स्त्री के लिए हमेशा असुविधाजनक माना जाता है और समाज की नज़रें, चिंता, डर की वजह से ऐसा महसूस होना भी जायज़ है। लेकिन, जब मैं गंगा किनारे बनारस में बैठी, या हिमालय के किसी गांव में पैदल चल रही थी, तब मैंने पहली बार खुद को किसी और की निगाह से नहीं, अपनी ही नजरों से देखा। ये यात्राएं सिर्फ भौगोलिक नहीं थीं। ये आत्मिक थीं। हर जगह ने मुझे कुछ नया सिखाया— धैर्य, स्वीकृति, अकेलेपन की मिठास और प्रकृति के नजदीक होने का एहसास दिलाया। इनसे मैं अब जीवन में सस्टेनेबिलिटी को तरजीह ज्यादा देती हूं।
नारीवादी खुशी: प्रतिरोध के पार एक शांति

बहुत समय तक मैंने सोचा कि नारीवाद सिर्फ टकराव है लेकिन अब मैं समझती हूं कि ये खुश होना भी है। नारीवाद की बदौलत ही अब मैं यह जानती हूं कि टकराव के बाद निर्माण भी होता है। वह निर्माण जो अपने शरीर से सुलह करने से शुरू होता है, अपनी भावनाओं को स्पेस देने से, अपने लिए मौन चुनने से। मेरे लिए नारीवादी आनंद वही है, जब मैं सुबह योग से दिन शुरू करती हूं। जब मैं प्रेमचंद की किसी कहानी में डूब जाती हूं, जब मैं ध्यान में साँसों की आवा-जाही महसूस करती हूं, या जब मैं बिना कुछ कहे किसी पहाड़ी रास्ते पर चलती हूं। ये क्षण मेरे प्रतिरोध नहीं, मेरी स्वीकृति के क्षण हैं और यही स्वीकृति, यही आत्मनियंत्रण, मेरे नारीवाद की सबसे गहरी अभिव्यक्ति है क्योंकि आखिर में, मेरे लिए बतौर महिला सबसे बड़ा प्रतिरोध यही है। आज भी जब दुनिया मुझसे त्याग की अपेक्षा करती है, तब मैं अपने लिए शांति और आनंद के रास्ते को चुनती हूं। यही मेरे लिए मेरा फेमिनिस्ट जॉय है।