इतिहास यशोदा देवी: भारत की पहली महिला आयुर्वेदिक चिकित्सक| #IndianWomenInHistory

यशोदा देवी: भारत की पहली महिला आयुर्वेदिक चिकित्सक| #IndianWomenInHistory

यशोदा देवी एक लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और प्रसिद्ध महिला आयुर्वेदिक चिकित्सकों में से एक थीं। जिन्होंने समाज की रूढ़िवादी सोच तो तोड़कर अपनी एक अलग पहचान बनाई ।

यशोदा देवी एक लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और प्रसिद्ध महिला आयुर्वेदिक चिकित्सकों में से एक थीं, जिन्होंने समाज की रूढ़िवादी सोच तो तोड़कर अपनी एक अलग पहचान बनाई। भारत में एक समय ऐसा था जब लड़कियों को स्कूल भेजना भी बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। उस दौर में किसी लड़की का डॉक्टर बनना तो लगभग नामुमकिन ही समझा जाता था। समाज की रूढ़िवादी सोच के हिसाब से महिलाओं का काम सिर्फ घर संभालना है खाना बनाना, बच्चों की देखभाल करना और चुपचाप रहना है । लेकिन कुछ महिलाएं थीं, जिन्होंने इन पुरानी सोचों को चुनौती दी और नया रास्ता बनाया। उन्हीं में से एक थीं यशोदा देवी। इन्होंने उस समय आयुर्वेद की पढ़ाई की जब महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाज़े ही बंद थे।

वह न केवल आयुर्वेद की डॉक्टर बनीं, बल्कि महिलाओं और गरीब लोगों के इलाज के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने दिखाया कि आयुर्वेद सिर्फ दवाइयों का ज्ञान नहीं, बल्कि सेवा, समझ और संवेदना का रास्ता भी है। उन्होंने महिलाओं को खुद से जुड़ी बातों पर खुलकर बोलना सिखाया जैसे मासिक धर्म, गर्भावस्था, और पोषण। उन्होंने महिलाओं को बताया कि वे भी समाज को बदल सकती हैं। यशोदा देवी की कहानी सिर्फ एक डॉक्टर की नहीं है, बल्कि एक साहसी महिला की है जिसने शिक्षा, चिकित्सा और समाज सेवा के ज़रिए कई जिंदगियों को रोशनी दी।

यशोदा देवी एक लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और प्रसिद्ध महिला आयुर्वेदिक चिकित्सकों में से एक थीं। जिन्होंने समाज की रूढ़िवादी सोच तो तोड़कर अपनी एक अलग पहचान बनाई।

शुरुआती जीवन 

यशोदा देवी का जन्म 20वीं सदी के प्रारंभ में भारत के एक पारंपरिक और ग्रामीण इलाके में हुआ था। उनके पिता का नाम डालचंद मिश्रा था । यशोदा देवी ने आयुर्वेद की शुरुआती शिक्षा अपने पिता से ली थी। उनके पिता खुद आयुर्वेद के जानकार थे। इससे यह समझ में आता है कि उनके परिवार ने भी उनके ज्ञान और सीखने में अहम भूमिका निभाई। साल 1906 में यशोदा की शादी श्री राम शर्मा से हुई। शादी के दो साल बाद, 1908 में वह इलाहाबाद चली गईं। सिर्फ 16 साल की उम्र में ही यशोदा ने मरीजों का इलाज करना शुरू कर दिया था। जल्दी ही वो आयुर्वेदिक डॉक्टर बन गईं। सन् 1908 के आस-पास यशोदा देवी ने इलाहाबाद में महिलाओं के लिए एक अपना औषधालय शुरू किया। साथ ही, उन्होंने एक महिला आयुर्वेदिक फार्मेसी भी खोली, जहां खास तौर पर महिलाओं की बीमारियों की दवाइयां तैयार होती थीं।

 उनका काम इतना अच्छा और ज़रूरतमंदों के लिए उपयोगी था कि बाद में बिहार और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में उनके औषधालय खुलने लगे। पटना, आगरा और बनारस जैसे बड़े शहरों में भी उनके केंद्र शुरू हुए। इन्होंने अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधाने में भी अहम भूमिका निभाई । देशभर की बहुत सारी महिलाएं, जो अपनी निजी या शरीर से जुड़ी परेशानियां  किसी से कह नहीं पाती थीं, वे यशोदा देवी के पास इलाज के लिए आती थीं। भारत के हर कोने से उन्हें हज़ारों पत्र भेजे जाते थे।वो इतनी लोकप्रिय और सम्मानित थीं कि अगर कोई चिट्ठी सिर्फ देवी इलाहाबाद लिखकर भेजता, तो वह भी उनके पास पहुंच जाती थी।

सिर्फ 16 साल की उम्र में ही यशोदा ने मरीजों का इलाज करना शुरू कर दिया था। जल्दी ही वो आयुर्वेदिक डॉक्टर बन गईं। सन् 1908 के आस-पास यशोदा देवी ने इलाहाबाद में महिलाओं के लिए एक अपना औषधालय शुरू किया। साथ ही, उन्होंने एक महिला आयुर्वेदिक फार्मेसी भी खोली, जहां खास तौर पर महिलाओं की बीमारियों की दवाइयां तैयार होती थीं।

लेखन से उपचार तक का अनोखा सफर

तस्वीर साभार : The Wire

यशोदा एक लेखिका भी थी उन्होंने अपने जीवन में 100 से भी ज़्यादा किताबें लिखीं। यह किताबें 20 पन्नों से लेकर 1000 पन्नों तक की थीं। ज़्यादातर किताबें महिलाओं के लिए लिखी गई थीं, लेकिन वे सिर्फ महिलाओं तक सीमित नहीं थीं। उन्होंने कई तरह के विषयों पर लिखा, जैसे शादी और पति-पत्नी के रिश्ते, सेक्स और यौन शिक्षा,महिलाओं के शरीर और स्वास्थ्य से जुड़ी बातें,घरेलू आयुर्वेदिक नुस्खे,खाने-पीने की हेल्दी रेसिपी इत्यादि । उनकी लिखी किताबों का इस्तेमाल घरेलू सलाह देने वाली पुस्तिकाओं, इलाज की किताबों, खानपान से जुड़ी गाइड, और समाज को दिशा देने वाले लेखों के रूप में किया जाता था। इन किताबों में उन्होंने अपने द्वारा बनाए गए दवाओं और औषधियों के विज्ञापन, मरीजों की सच्ची कहानियां, और लोगों से मिले धन्यवाद पत्र भी शामिल किए। यशोदा देवी की किताबें सिर्फ़ इलाज के लिए नहीं थीं, बल्कि वे महिलाओं को आत्मनिर्भर और जागरूक बनाने का ज़रिया भी थीं।

उन्होंने अपना एक प्रकाशन गृह देवी पुस्तकालय के नाम से खोला, जिसमें महिलाओं के यौन स्वास्थ्य के मुद्दों पर पचास से अधिक पुस्तकें छापी गईं। महिला रोगों के लिए विशेष रूप से आयुर्वेदिक उपचार प्रदान करने के अलावा, देवी की सबसे सफल पत्रिका स्त्री चिकित्सा थी, जिसके  प्रसार की संख्या लगभग 5000 प्रति माह थी । यह विशेष रूप से महिला रोगों के आयुर्वेदिक उपचार के बारे में जानकारी देती थी। देवी ने आयुर्वेदिक उपचार के ज्ञान को फैलाने के लिए व्यावसायिक प्रकाशन में उछाल का कुशलतापूर्वक उपयोग किया था। 1900 से 1940 के बीच जब उत्तर प्रदेश में हिंदी किताबें छप रही थीं, तब का रिकॉर्ड देखने से पता चलता है कि उस समय कोई भी लेखक यशोदा देवी जितना ज़्यादा और विस्तार से नहीं लिख रहा था खासकर महिलाओं, आयुर्वेद और सेक्स से जुड़े विषयों पर। उन्होंने शायद उस दौर की किसी भी दूसरी महिला लेखिका से ज़्यादा किताबें लिखीं और बेचीं। यह भी माना जाता है कि वे अपने समय की सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली महिला लेखिकाओं में से एक थीं।

उन्होंने अपना एक प्रकाशन गृह देवी पुस्तकालय के नाम से खोला, जिसमें महिलाओं के यौन स्वास्थ्य के मुद्दों पर पचास से अधिक पुस्तकें छापी गईं। महिला रोगों के लिए विशेष रूप से आयुर्वेदिक उपचार प्रदान करने के अलावा, देवी की सबसे सफल पत्रिका स्त्री चिकित्सा थी, जिसके  प्रसार की संख्या लगभग 5000 प्रति माह थी ।

पितृसत्तातमक समाज में महिला वैद्य का अनुभव

तस्वीर साभार : Feminism In India

आयुर्वेद पर किए गए ज्यादातर शोधों से पता चलता है कि यह पूरी तरह से पुरुषों का क्षेत्र माना जाता था। उस समय महिलाओं को आयुर्वेदिक पढ़ाई करने की इजाज़त नहीं थी, क्योंकि यह शिक्षा संस्कृत में होती थी और तकनीकी रूप से महिलाओं के लिए बंद थी। यशोदा इस नियम से बाहर थीं। उन्होंने न सिर्फ आयुर्वेद का अभ्यास किया, बल्कि सेक्स जैसे संवेदनशील विषयों पर भी लिखा और वह व्यावसायिक रूप से भी सफल थीं। फिर भी, उन्हें कभी वैद्यों के पुरुष-प्रधान पेशेवर समाज में मान्यता नहीं मिली। उस समय के बड़े आयुर्वेदिक संस्थान और विद्वान उनके प्रति या तो उदासीन थे या खुलकर विरोध करते थे। साल 1941 तक आयुर्वेदिक महामंडल नाम की संस्था में सिर्फ पुरुष सदस्य थे। बाद में कुछ पुरुष वैद्यों ने यशोदा देवी के खिलाफ शिकायत दर्ज की और उनके इलाजों को घटिया और झूठा कहकर कई आरोप भी लगाये गए ।

आयुर्वेद पर पुरुषों के नियंत्रण का विरोध करते हुए, महिलाओं के लिए एक ऐसा खास और सुरक्षित जगह बनाई, जहां वे अपनी यौन समस्याओं के बारे में खुलकर बात कर सकें और अपने पतियों के गलत व्यवहार के बारे में बोल सकें। उन्होंने औरतों को इलाज के लिए घर से बाहर आने के लिए हिम्मत दी। महिलाएं उन्हें अपने दुख-दर्द और समस्याओं के बारे में लंबे पत्र लिखती थीं। उन्होंने एक विश्राम गृह (रुकने की जगह) भी बनवाया, जहां  महिलाएं  इलाज के दौरान आराम से रह सकती थीं। इससे उन्हें घर से बाहर भी एक सुरक्षित और सहारा देने वाली जगह मिल गई । इन्होंने महिलाओं की सहमति के बिना बनाए गए शारीरिक संबंधों का साफ-साफ विरोध किया और इसे एक बड़ा अपराध बताया। उन्होंने पुरुषों द्वारा किए गए धोखा और घरेलू हिंसा पर भी कड़ी नाराज़गी जताई और कहा कि इसके बहुत बुरे नतीजे हो सकते हैं। यशोदा देवी को देश की नैतिकता और अच्छे व्यवहार को बचाए रखने की भी गहरी चिंता थी।

आयुर्वेद पर पुरुषों के नियंत्रण का विरोध करते हुए, महिलाओं के लिए एक ऐसा खास और सुरक्षित जगह बनाई, जहां वे अपनी यौन समस्याओं के बारे में खुलकर बात कर सकें और अपने पतियों के गलत व्यवहार के बारे में बोल सकें। उन्होंने औरतों को इलाज के लिए घर से बाहर आने के लिए हिम्मत दी।

बहीं, साल 2020 में किये गए  एक अध्ययन से पता चलता है कि वह महिला यौन व्यवहार को लेकर अपने मन में पहले से  या पुरानी बनी धारणाओं से प्रभावित थी और समाज में जो आम तौर पर माने जाने वाले विचार हैं, उन्हें ही दोहराती थी। उनकी बातों में यह दिखता है कि वह शारीरिक संबंधों को केवल बच्चे पैदा करने से जोड़कर देखती थी, वह शरीर पर कड़ा नियंत्रण रखने की बात करती थी, हस्तमैथुन के खिलाफ थी और क्वीयर संबंधों  को नकारात्मक नजर से देखती थी। हालांकि, हम इन गलत सोच या भ्रमों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने स्वास्थ्य, शादी और सेक्स जैसे मुद्दों पर महिलाओं के नजरिए से बात करने की कोशिश की थी। इसलिए उसका योगदान पूरी तरह से नकारना भी ठीक नहीं होगा।

यशोदा देवी का जीवन और काम हमें यह दिखाता है कि कैसे एक महिला ने समाज की बंदिशों को तोड़कर न सिर्फ आयुर्वेद में अपना नाम बनाया, बल्कि हजारों महिलाओं की ज़िंदगी बदलने का प्रयास किया। उन्होंने नारी स्वास्थ्य, यौन शिक्षा और आत्मनिर्भरता को लेकर उस समय आवाज़ उठाई जब महिलाओं के लिए बोलना भी गुनाह समझा जाता था। हालांकि उनके कुछ विचार आज के नज़रिए से पुराने लग सकते हैं, फिर भी यह नहीं भुलाया जा सकता कि उन्होंने एक क्रांतिकारी शुरुआत की थी। उनकी विरासत हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि चिकित्सा और ज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कितनी ज़रूरी है  न सिर्फ इलाज देने के लिए, बल्कि एक सहानुभूति भरी, न्यायपूर्ण और समावेशी दुनिया बनाने के लिए भी।

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