इंटरसेक्शनलजेंडर पुरुष कैसे ले सकते हैं लैंगिक समानता की जिम्मेदारी?

पुरुष कैसे ले सकते हैं लैंगिक समानता की जिम्मेदारी?

आम तौर पर लैंगिक भेदभाव की शुरुआत हमारे घर-परिवार से हो जाती है। ये लैंगिक भेदभाव की समस्या किसी एक वर्ग या समुदाय का नहीं बल्कि एक वैश्विक समस्या है।

हम जिस समाज में रहते हैं, वह सदियों से पितृसत्ता की मजबूत दीवारों पर खड़ा रहा है। ऐसी दीवारें, जो पुरुषों को विशेषाधिकार देती है और महिलाओं और क्वीयर समुदाय को सीमाओं में बांध देती है। लैंगिक भेदभाव कोई एक दिन की समस्या नहीं, बल्कि हमारी रोज़मर्रा की सोच, व्यवहार और परवरिश में गहराई से बसी हुई एक संरचनात्मक सच्चाई है। अक्सर इसे सिर्फ महिलाओं की समस्या समझा जाता है, लेकिन असल में यह पूरे समाज की जिम्मेदारी है। खासकर पुरुषों की, जिनके पास बदलाव लाने की ताकत और संसाधन दोनों हैं। हमारे पुरुष प्रधान समाज में जब कोई बच्चा पैदा होता है तब से ही उसके लिए महिला और पुरुष से जुड़े अलग-अलग नियम बनने शुरू हो जाते हैं। जैसे कोई महिला है तो वो घर का काम करेगी और समाज के बनाए हुए नियमों के अनुसार चलेगी तब ही उसे एक अच्छी बहु और बेटी माना जाएगा। इसी तरह अगर कोई पुरुष घर के कामों में हाथ बंटाता है तब उसका बहुत मज़ाक उड़ाया जाता है या फिर मर्द होने का हवाला देकर यह भी कहा जाता है कि तुम लड़कियों वाले काम क्यों कर रहे हो। 

उदाहरण के लिए कुछ समय पहले मैं अपने मामा के घर पर रोटियां बना रहा था। उनके पड़ोस में रहने वाला 5-6 साल का लड़का रसोई घर में आकर बड़ी मासूमियत से बोलता है, “आप लड़की हो क्या, रोटी तो लड़कियां बनाती हैं?” मुझे ये सुनकर ज़्यादा आश्चर्य नहीं हुआ पर थोड़ा अफसोस जरूर हुआ। मुझे ये भी पूछने की जरूरत नहीं थी कि उसने ये बात कहां से सीखी। आम तौर पर लैंगिक भेदभाव की शुरुआत हमारे घर-परिवार से हो जाती है। ये लैंगिक भेदभाव की समस्या किसी एक वर्ग या समुदाय का नहीं बल्कि एक वैश्विक समस्या है। घर पर बच्चे के जन्म लेते ही हम उसके लैंगिक भूमिका तय करने लगते हैं और एक निश्चित व्यवस्था थोपने लगते हैं। यह सोच, जो हमें स्वाभाविक लगती है, दरअसल रूढ़िवादी समाज की रची गई एक संरचना है जो हमें बांधती और सीमित करती है।  

आम तौर पर लैंगिक भेदभाव की शुरुआत हमारे घर-परिवार से हो जाती है। ये लैंगिक भेदभाव की समस्या किसी एक वर्ग या समुदाय का नहीं बल्कि एक वैश्विक समस्या है।

घर और स्कूल से हो समानता की शुरुआत

अगर हम लोगों को सही जानकारी दें और जागरूक बनाने की कोशिश करें, तो सोचने का नजरिया बदला जा सकता है। खासकर माता-पिता को समझाना बहुत जरूरी है, क्योंकि बच्चों की सोच सबसे पहले घर से ही बनती है। माता-पिता की काउंसलिंग करके उन्हें बताया जाना चाहिए कि लड़के और लड़कियों में फर्क करना सही नहीं है। इसके साथ-साथ स्कूलों में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन को भी अनिवार्य किया जाना चाहिए। जब बच्चों को शुरू से ही जेन्डर, सेक्स या यौनिकता जैसे विभिन्न मुद्दों से जुड़ी सही जानकारी मिलेगी, तो उनके मन में गलतफहमियां नहीं बनेंगी। इससे वे इन बातों को शर्म या टैबू की तरह नहीं देखेंगे, बल्कि खुलकर बात कर पाएंगे और सभी जेंडर और यौनिकता के लोगों का सम्मान करना भी सीखेंगे।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

महिलाओं और क्वीयर समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा के लिए विशेष सेल (जैसे महिला सेल और एंटी सेक्शुअल हर्रासमेंट सेल) बनाए गए हैं। इनका उद्देश्य है कि कार्यस्थल, स्कूल, कॉलेज और अन्य सार्वजनिक जगहों पर लैंगिक भेदभाव और उत्पीड़न को रोका जाए। लेकिन कई बार इन शिकायतों पर सही तरीके से सुनवाई नहीं होती। इसका कारण संस्थाओं की छवि बचाने की कोशिश या पितृसत्तात्मक सोच हो सकती है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी संस्थान महिलाओं, क्वीयर और हाशिये के समुदाय के लिए एक सुरक्षित जगह बनें। इसके लिए सभी शैक्षिक संस्थानों, सरकारी कार्यालयों और निजी कंपनियों में लैंगिक भेदभाव और यौन हिंसा को रोकने के लिए सख्त नियम बनाए जाने बहुत जरूरी हैं। अगर कोई शिकायत आती है, तो उसे गंभीरता से लिया जाए और निष्पक्ष जांच हो।

माता-पिता की काउंसलिंग करके उन्हें बताया जाना चाहिए कि लड़के और लड़कियों में फर्क करना सही नहीं है। इसके साथ-साथ स्कूलों में काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन को भी अनिवार्य किया जाना चाहिए। जब बच्चों को शुरू से ही जेन्डर, सेक्स या यौनिकता जैसे विभिन्न मुद्दों से जुड़ी सही जानकारी मिलेगी, तो उनके मन में गलतफहमियां नहीं बनेंगी।

महिलाओं के अधिकारों को ‘विशेषाधिकार’ कहना बंद करें

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

हमारे पुरुषप्रधान समाज के लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि समाज में महिलाओं को कुछ विशेष अधिकार या सुविधाएं क्यों दी जाती हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट में मुफ्त यात्रा, आरक्षित सीटें या वित्तीय सहायता के लिए विशेषाधिकार शब्द का इस्तेमाल सही नहीं है। जब महिलाएं समानता की बात करती हैं, तो कुछ लोग सोचते हैं कि इन्हें विशेषाधिकार क्यों मिलते हैं। यह सोच इस बात को नजरअंदाज करती है कि महिलाएं पीढ़ियों से पितृसत्ता और भेदभाव का सामना करती आई हैं। समानता हासिल करने के लिए जरूरी है कि महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबरी का अधिकार और समान प्रतिनिधित्व मिले। आज भी ज्यादातर नीति निर्माण करने वाले पदों पर पुरुष हैं।

यूएन वुमन के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में 113 देशों में कभी भी कोई महिला राज्य या सरकार के प्रमुख के रूप में काम नहीं कर पाई है और आज भी केवल 26 देशों का नेतृत्व कोई महिला कर रही है। 1 जनवरी 2024 तक, केवल 23 प्रतिशत मंत्री पद महिलाओं के पास थे और 141 देशों में महिलाएं कैबिनेट मंत्रियों के एक तिहाई से भी कम हैं। सात देशों में तो कैबिनेट में कोई भी महिला प्रतिनिधित्व नहीं करती है। ऐसे में महिलाओं को हर नेतृत्व पदों और सुविधाओं तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए ये अधिकार देना जरूरी है। जब महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा, तो उनका सशक्तिकरण होगा और धीरे-धीरे समाज में भेदभाव भी कम होगा। इससे एक ऐसा समाज बनने की उम्मीद है जहां हर व्यक्ति को बराबरी और सम्मान के साथ जीने का अवसर मिलेगा।

यूएन वुमन के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में 113 देशों में कभी भी कोई महिला राज्य या सरकार के प्रमुख के रूप में काम नहीं कर पाई है और आज भी केवल 26 देशों का नेतृत्व कोई महिला कर रही है।

आखिर सबका प्रतिनिधित्व क्यों नहीं

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

एक प्रगतिशील समाज बनाने के लिए हर किसी का योगदान जरूरी है। अगर हम किसी बड़ी संख्या को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित रखते हैं, तो समाज कभी विकसित नहीं हो सकता। आज भी कई महिलाएं और क्वीयर समुदाय के लोग आम तौर पर अपनी अपनी पसंद से पढ़ने, काम करने, कपड़े पहनने, और अपनी बात कहने की आज़ादी से वंचित हैं। महिलाओं और क्वीयर समुदाय को खुद अपने अधिकार तय करने का पूरा हक होना चाहिए। यह आज़ादी सिर्फ घरों और परिवारों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि सार्वजनिक जगहों और कार्यस्थलों में भी मिलनी चाहिए। इसकी शुरुआत हम तभी कर सकते हैं, जब लैंगिक भेदभाव के खिलाफ़ आवाज़ उठाएं और समानता की दिशा में कदम बढ़ाएं। भारत में लैंगिक असमानता दुनिया के कई देशों की तुलना में ज्यादा है। विश्व आर्थिक मंच की वैश्विक लैंगिक रिपोर्ट के अनुसार 2023 में भारत 146 देशों की संख्या में 127वें स्थान पर है। भारत के कामकाजी क्षेत्रों और नेतृत्व पदों पर लैंगिक असमानता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि संसद में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 14.72 फीसद है।

हालांकि स्थानीय जगहों में यह भागीदारी 44.4 फीसद है। आक्सफैम ने टाइम टू केयर नामक रिपोर्ट में भारत की आर्थिक असमानता को लेकर चिंता व्यक्त की है। आर्थिक असमानता का सबसे अधिक सामना महिलाएं कर रही हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कम  वेतन वाले रोजगार मिलते हैं। देश के अरबपतियों की सूची में मात्र नौ महिलाएं शामिल हैं। अगर विकास कार्यक्रमों से जुड़े कामों की बात करें, तो इसमें महिलाओं की भागीदारी 72 फीसद है। समाज में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए यह जरूरी है कि हम महिलाओं और सभी जेंडर के लोगों की समस्याओं और चुनौतियों को जानें और समझें। बुनियादी सुविधाएं जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों और संस्थानों में उपयुक्त शौचालयों की व्यवस्था करें, अवसरों तक सभी का पहुंच सुनिश्चित करें। महिलाओं के मातृत्व, पीरियड संबंधी जटिलताओं या क्वीयर समुदाय के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य और अन्य समस्याओं के प्रति संवेदनशील हों।

सोशल मीडिया पर मौजूद पितृसत्ता

आज के डिजिटल दौर में अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर मज़ाक में महिलाओं को कमजोर दिखाया जाना, स्त्रीद्वेष और होमोफोबिक बातों का खूब प्रचलन है। कुछ समय पहले तक ये टेलिविज़न और सिनेमा तक ही सीमित था। अब ऐसे संगीत, वीडियोज़, रील्स और स्टैन्ड अप कॉमेडी आदि के जरिए इंटरनेट पर परोसे जा रहे हैं। इनसे आज के युवा महिलाओं और  क्वीयर समुदाय के प्रति अपमानजनक भाषा, रेप जोक्स और धमकियों को आम बात समझने लगे हैं। इसका उदाहरण कुछ समय पहले उदयपुर में देखने को मिला जब एक रूसी महिला के साथ एक युवक सेक्शुअल कमेन्ट करता पाया गया।सार्वजनिक स्थानों मे ऐसे दुर्व्यवहार रोज ही देखने को मिल जाता है। हमें ऐसे कंटेन्ट बनाने वाले इंस्टाग्रामर्स, यूट्यूबर्स और कलाकारों से युवाओं को सावधान करने की जरूरत है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

पोपुलर कल्चर का समाज को दिशा देने में हमेशा ही योगदान रहा है। इसलिए, ये ध्यान रखना जरूरी है कि हम किसे इस कल्चर का हिस्सा बना रहे हैं। लैंगिक असमानता को बढ़ावा देने में पुरुषवादी समाज के मेल गेज की भी भूमिका रही है। इस दृष्टिकोण से पुरुषों को सशक्त और आत्मनिर्भर दिखाया गया और महिलाओं को कमजोर, कमतर, नाजुक और कामुक बताया गया। इससे महिला का खुदपर आधिपत्य घटकर पितृसत्ता पर निर्भर दिखाया गया और पुरुष वर्ग ने उसके शरीर को उपभोग की वस्तु की तरह सीमित कर दिया। लैंगिक असमानता से लड़ने के लिए इस दृष्टिकोण के बजाए नारीवादी नजरिए से दुनिया को देखने की जरूरत है। 

आज के डिजिटल दौर में अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर मज़ाक में महिलाओं को कमजोर दिखाया जाना, स्त्रीद्वेष और होमोफोबिक बातों का खूब प्रचलन है।

कैसे पुरुष निभा सकते हैं अपनी भूमिका


पुरुषों का महिलाओं और क्वीयर अधिकारों से जुड़े आंदोलनों में भागीदारी और समर्थन देने की जरूरत है। लैंगिक भेदभाव और उत्पीड़न को लेकर समय-समय पर कई आंदोलन होते रहे हैं। हाल ही में हमें मीटू मूवमेंट, हेमा कमेटी रिपोर्ट, रेस्लर्स प्रोटेस्ट, शाहीन बाग जैसे आंदोलन देखने को मिले हैं जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं आगे आयीं। लेकिन, इन आंदोलनों का पुरुषवादी लोगों ने पुरजोर विरोध किया और आंदोलनकारियों ने मनोबल तोड़ने का प्रयास भी किया। लैंगिक भेदभाव से लड़ने के लिए जरूरी है कि हम ऐसे आंदोलनों का समर्थन करें, जहां लोग लैंगिक हिंसा, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं। लैंगिक समानता लाने के लिए ये जरूरी है कि पुरुष अपने विशेषाधिकार को पहचानें और उसे संबोधित करें। एक पितृसत्तात्मक परिवार में एक पुरुष के रूप में जन्म से ही, कई चीजें तुलनात्मक तौर पर सुविधाजनक बन जाती हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इसलिए, जरूरी है कि हम अपने पुरुषत्व को दरकिनार कर महिलाओं को आगे आने का मौका दें। जरूरी है कि महिला को देवत्व के समरूप नहीं बल्कि इंसान समझें। समाज ने महिलाओं को देवी का रूप बनाकर उनकी मानवीय व्यावहारिकता का हनन किया है। महिलाओं को मूलभूत अधिकार और समानता देने की जरूरत है। हम महिलाओं से पुरुषवादी समाज के थोपे गए उम्मीदों के अनुरूप जीवन जीने की आशा करते हैं और जो इनसे अलग होकर अपनी शर्तों पर आगे बढ़ने वाली महिलाओं को अस्वीकार कर देते हैं।  लैंगिक भेदभाव कोई व्यक्तिगत मतभेद नहीं, बल्कि एक गहरी संरचनात्मक समस्या है जो घर से शुरू होकर समाज और संस्थानों में फैलती है।

इसे खत्म करने के लिए बच्चों को बचपन से ही समावेशी सोच सिखाना जरूरी है। स्कूलों में सेक्स और जेंडर पर आधारित शिक्षा अनिवार्य की जाए, शिकायत तंत्र मजबूत हो और पॉप कल्चर में फैले लैंगिक द्वेष के खिलाफ लगातार जागरूकता फैलाई जाए। पुरुषों को अपने विशेषाधिकार पहचानकर बराबरी के आंदोलन में भागीदारी निभानी होगी। जब संविधान, कानून और सामाजिक प्रयासों से महिलाओं और क्वीयर समुदाय को सम्मान और समान अधिकार मिलेंगे, तभी एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज संभव होगा।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content