भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास में कुछ महिलाएं हैं, जिन्होंने रूढ़ियों को तोड़ते हुए न सिर्फ अपनी पहचान बनाई, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ते भी खोले। बैंगलोर नागरथनम्मा ऐसी ही एक साहसी और प्रेरणादायक शख्सियत थीं। वह एक गायिका, सामाजिक कार्यकर्ता और देवदासी थीं। देवदासी परंपरा से जुड़ी होने के बावजूद, नागराथनम्मा ने इस पहचान को सिर्फ धार्मिक भूमिका तक सीमित नहीं रहने दिया, बल्कि उसे ज्ञान, संगीत और आत्मसम्मान के प्रतीक में बदल दिया। उन्होंने कड़ी मेहनत और लगन से कर्नाटकीय संगीत में अपनी जगह हासिल की और समाज में देवदासियों को मिलने वाली हीन भावना को चुनौती दी। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक महिला, चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियों में क्यों न हो, अगर उसके भीतर आत्मबल, शिक्षा और चेतना हो तो वह सामाजिक बदलाव की एक मिसाल बन सकती है।
उनका शुरुआती जीवन
नागराथनम्मा का जन्म 1878 में नंजनगुड के एक देवदासी परिवार में हुआ था। उनकी माँ का नाम पुट्टू लक्ष्मी और पिता का नाम सुब्बा राव था। उस समय देवदासी प्रथा दक्षिण भारत के कई हिस्सों में प्रचलित थी, जिसमें महिलाओं को कम उम्र में ही किसी मंदिर या देवता को समर्पित कर दिया जाता था। इस प्रथा के तहत देवदासियां मंदिरों में नृत्य और संगीत करती थीं, लेकिन समय के साथ यह परंपरा सामाजिक और नैतिक रूप से कमजोर पड़ने लगी और देवदासी महिलाएं यौन हिंसा, सामाजिक बहिष्कार और आर्थिक असुरक्षा का शिकार होने लगीं।
नागराथनम्मा एक गायिका, सामाजिक कार्यकर्ता और देवदासी थीं। देवदासी परंपरा से जुड़ी होने के बावजूद, नागराथनम्मा ने इस पहचान को केवल धार्मिक भूमिका तक सीमित नहीं रहने दिया, बल्कि उसे ज्ञान, संगीत और आत्मसम्मान के प्रतीक में बदल दिया।
नागराथनम्मा ने इस पारंपरिक और शोषणकारी ढांचे में रहते हुए भी अपनी पहचान को सिर्फ एक सर्वाइबर के रूप में स्वीकार नहीं किया, बल्कि उन्होंने इसे सांस्कृतिक शक्ति के रूप में रूपांतरित किया। उन्होंने कम उम्र में कर्नाटिकीय संगीत और संस्कृत की शिक्षा लेनी शुरू की और जल्द ही एक गायिका के रूप में पहचान बनानी शुरू कर दी। नागराथनम्मा मैसूर छोड़कर अपने चाचा वेंकटस्वामी अप्पा के पास चली गईं। उनके चाचा वायलिन वादक थे। उनके संरक्षण में नागराथनम्मा ने फिर से पढ़ाई शुरू की और उन्होंने कन्नड़, तेलुगु और अंग्रेजी भाषाएं सीखीं। साथ ही, उन्होंने संगीत और नृत्य में भी निपुणता हासिल की।
संगीत के मंच से इतिहास रचने तक का सफर

जब वह 15 साल की थीं, तब उन्होंने पहली बार मंच पर एक वायलिन वादक और नर्तकी के रूप में प्रस्तुति दी, जिसे विद्वानों और दर्शकों ने बहुत पसंद किया। नागराथनम्मा ने अपने हुनर, साहस और ज्ञान के बल पर वह स्थान प्राप्त किया जहां आमतौर पर केवल पुरुषों का बोलबाला होता था। थोड़े समय में, उन्होंने दक्षिण भारत के 146 शहरों और कस्बों का दौरा किया और लगभग 1,200 संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किए। इसके बाद वह कर्नाटक संगीत के मक्का मद्रास चली गईं। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में ग्रामोफोन के उदय ने गायकों के लिए अपने संगीत को भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखने की नई संभावनाओं को खोल दिया।
नागराथनम्मा ने फिर से पढ़ाई शुरू की और उन्होंने कन्नड़, तेलुगु और अंग्रेजी भाषाएं सीखीं। साथ ही, उन्होंने संगीत और नृत्य में भी निपुणता हासिल की।जब वह 15 साल की थीं, तब उन्होंने पहली बार मंच पर एक वायलिन वादक और नर्तकी के रूप में प्रस्तुति दी, जिसे विद्वानों और दर्शकों ने बहुत पसंद किया।
यहीं पर ग्रामोफोन कंपनी ने साल 1904-1905 में अपने पहले दक्षिण भारत अभियान के दौरान उन्हें रिकॉर्ड करने का फैसला किया। वह विलियम सिंकलर डार्बी के साथ ग्रामोफोन कंपनी के साथ काम करने वाली शुरुआती रिकॉर्डिंग कलाकारों में से एक थीं। नागरथनम्मा ने लगातार संगीत कार्यक्रमों ने इतनी संपत्ति जमा कर ली थी जिस कारण उन्हें आयकर चुकाना पड़ता था। उनके कार्यक्रमों ने उन्हें आर्थिक आजादी और सुरक्षा प्रदान की। 1900 के दशक की शुरुआत में देवदासी प्रथा के खिलाफ़ नच-विरोधी आंदोलन ने जोर पकड़ा, जिससे उनके पेशे के खत्म होने की संभावना और बढ़ गई। रोज़गार के दूसरे साधन खोजने की सोची-समझी कोशिश में, नागराथनम्मा ने निजी श्रोताओं के लिए उपन्यासम (धार्मिक प्रवचन) करना शुरू कर दिया। संस्कृत के उनके व्यापक ज्ञान ने एक पेशेवर वक्ता के रूप में उनके प्रयासों में मदद की।
नागराथनम्मा का सांस्कृतिक प्रतिरोध

नागराथनम्मा को ‘राधिका संतवानामु’ नाम की एक खास किताब मिली, जो लगभग खो चुकी थी। यह किताब एक देवदासी मुद्दुपलानी ने 1757 और 1763 के बीच तेलुगु में लिखी थी। इसमें कृष्ण और राधा के बीच के प्रेम और भक्ति को उस समय दिखाया गया है जब कृष्ण इला से शादी कर रहे थे। यह पूरी कहानी एक महिला की नजर से लिखी गई है और बताती है कि समाज में कैसे महिलाओं की इच्छाओं और जरूरतों को अक्सर पुरुषों से कम समझा जाता है। कई सालों की कोशिशों के बाद आखिरकार उन्हें यह पूरी पांडुलिपि मिल गई। फिर उन्होंने इसे दोबारा छपवाया और इसका अनुवाद भी करवाया ताकि ज्यादा लोग इसे पढ़ सकें। 1910 में उन्होंने इसे प्रकाशित करवा दिया। लेकिन, इसके प्रकाशित होने के तुरंत बाद, काफी विवाद खड़ा हुआ।
22 मई 1911 को राधिका संतवनम किताब की 388 प्रतियां ज़ब्त कर लीं। सरकार ने एक अनुवादक से यह साबित करवाया कि किताब की भाषा बहुत अश्लील है और इसे बैन कर देना चाहिए।
अख़बारों में संपादकीय छपने लगे जिनमें लिखा गया कि यह एक सेक्स वर्कर का अश्लील और अपवित्र काम है, जिसे अब दूसरी सेक्स वर्कर आगे बढ़ा रही है। उनका कहना था कि यह समाज की नैतिकता पर बुरा असर डालेगा। नागरथन्नम्मा ने इस विरोध को हल्के में नहीं लिया। उन्होंने अखबारों और पत्रिकाओं में तीखे शब्दों में जवाब दिए और उन लोगों का मज़ाक उड़ाया जो खुद को शुद्धता और संस्कृति का रक्षक मानते थे। उन्होंने उनके दोहरे मापदंड और इस रवैये को खुलकर चुनौती दी। इस विवाद ने मद्रास में कानून-व्यवस्था की स्थिति को और बिगाड़ दिया। पुलिस ने किताब के प्रकाशक के दफ्तर और गोदामों पर छापे मारे और 22 मई 1911 को राधिका संतवनम की 388 प्रतियां ज़ब्त कर लीं। सरकार ने एक अनुवादक से यह साबित करवाया कि किताब की भाषा बहुत अश्लील है और इसे बैन कर देना चाहिए।
यह कहा गया कि यह किताब लोगों की नैतिकता को खराब कर सकती है, इसलिए इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। जब किताब छापना अपराध माना गया, तो नागराथनम्मा ने अदालत में इसके खिलाफ मुकदमा दायर किया। लेकिन इस बीच, प्रकाशक ने सरकार के जवाब का इंतज़ार किए बिना तक इसकी प्रतियां बांटना जारी रखा। आखिरकार 1927 में इस पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई। करीब 20 साल बाद, जब भारत आजाद हुआ, तभी यह किताब फिर से सबके सामने आ सकी। यह घटना उस दौर की सामाजिक सोच को दिखाती है। उस समय, समाज में कई तरह की बंदिशें और विरोध थे, खासकर देवदासियों जैसे कलाकारों को लेकर जिन्हें गलत से देखा जाता था और नैतिकता के नाम पर विरोध किया जाता था। साल 1927 में, नागराथनम्मा और अन्य देवदासियों ने मद्रास प्रेसीडेंसी की देवदासियों की एसोसिएशन की स्थापना की वह इसकी पहली अध्यक्ष चुनी गईं।
साल 1927 में, नागराथनम्मा और अन्य देवदासियों ने मद्रास प्रेसीडेंसी की देवदासियों की एसोसिएशन की स्थापना की वह इसकी पहली अध्यक्ष चुनी गईं।
धार्मिक आयोजनों में लैंगिक समानता की पहल

नागराथनम्मा ने 18वीं सदी के तिरुवय्यारु के कर्नाटक संत त्यागराज को अपना पसंदीदा संगीतकार माना। अपने संगीत समारोहों में, वह नियमित रूप से उनके गीत गाती थीं और अक्सर जहां भी जाती थीं, अपने साथ उनका चित्र लेकर जाती थीं। संत-संगीतकार त्यागराज के सम्मान में एक स्मारक बनाना नागराथनम्मा का भी सपना था। उन्होंने इसे पूरा करने के लिए अपनी सारी संपत्ति बेच दी और अपनी सारी कमाई दान कर दी। इसे दोवारा बनाने के बाद और स्मारक में बदलने के बाद, उन्होंने 1921 में त्यागराज की एक मूर्ति स्थापित की।आखिरकार, वहां संगीत समारोह होने लगे, लेकिन इसमे पुरुषों का वर्चस्व था जिसमें महिलाओं को हमेशा पूजा या धार्मिक जगहों से दूर रखने की कोशिश की जाती रही है।
उन्हें भी इस रूढ़िवादी सोच का सामना करना पड़ा जब उनसे कहा कि समाधि में महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं है। समारोह में भाग लेने के अधिकार से वंचित किए जाने पर अपने गुस्से से भरकर, नागराथनम्मा ने घोषणा की कि वह केवल महिलाओं के लिए आराधना आयोजित करेंगी। नारीवादी होने के नाते, नागराथनम्मा ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और मंदिर के पीछे एक समानांतर संगीत समारोह का आयोजन करना शुरू कर दिया। 1941 में उनकी मेहनत आखिरकार सफल हुई, जब यह एक एकल इकाई बन गई जिससे पुरुषों और महिलाओं दोनों को उत्सव में गाने की अनुमति मिल गई। वह अपनी मृत्यु 1952 तक आराधना के संचालन में सक्रिय भूमिका निभाती रहीं।
नागराथनम्मा का जीवन इस बात का प्रमाण है कि साहस, शिक्षा और आत्मबल के सहारे कोई भी महिला न सिर्फ अपनी पहचान बना सकती है, बल्कि पूरे समाज की सोच को चुनौती देकर बदलाव की मिसाल भी बन सकती है। उन्होंने देवदासी परंपरा जैसी शोषणकारी व्यवस्था को सिर्फ सहा नहीं, बल्कि उसे कला, ज्ञान और सामाजिक चेतना के ज़रिए एक नई गरिमा दी। वह एक गायिका, विदुषी, प्रकाशक और नारीवादी महिला थीं, जिन्होंने न सिर्फ संगीत के मंच पर जगह बनाई बल्कि सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए महिलाओं की भागीदारी के लिए भी काम किया। आज जब हम लैंगिक समानता, अभिव्यक्ति की आजादी और सांस्कृतिक न्याय की बात करते हैं, तब नागराथनम्मा की विरासत और संघर्ष हमें याद दिलाते हैं कि हाशिए पर डाली गई आवाज़ें भी इतिहास को बदल सकती हैं।