अरुणा रॉय की किताब ‘द पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ सिर्फ उनकी ज़िंदगी की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी किताब है जो हमें बताती है कि हमारे अपने निजी अनुभव भी राजनीति से जुड़े हो सकते हैं। इस किताब में अरुणा बताती हैं कि कैसे उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर गांवों में लोगों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया। उन्होंने यह सीखा कि असली समझ सिर्फ किताबों से नहीं, बल्कि आम लोगों के साथ जीकर आती है। किताब की शुरुआत से ही रॉय की आवाज़ सोचने-समझने वाली लगती है। उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस ) जैसी बड़ी नौकरी छोड़ दी और राजस्थान के गांवों की ओर चली गईं। उन्होंने तिलोनिया के बेरफुट कॉलेज में काम किया, जहां उन्होंने उन लोगों के बीच असली ज्ञान को महसूस किया जो पढ़ – लिख नहीं पाए थे।
राजस्थान के देवडूंगरी गांव में रहते हुए उन्होंने जो अनुभव महसूस किये, वही बाद में मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस ) की शुरुआत की वजह बने। इस किताब में सत्ता, विशेषाधिकार, पहचान और जन-भागीदारी को लेकर एक गहरी समझ झलकती है। रॉय अपने विशेषाधिकारों जैसे शिक्षा, भाषा, लेखन और अपनी बात को खुल कर कह पाने की क्षमता को स्वीकार करती हैं, लेकिन वे कभी भी अपनी योग्यता को किसी पर भी हावी नहीं होने देती है। इसके बजाय, वे लोगों की बातें सुनती हैं, उनसे सीखती हैं और खुद को बेहतर बनाती रहती हैं। यह किताब बताती है कि राजनीति की समझ अकेले नहीं आती, बल्कि लोगों के साथ मिलकर संघर्ष करने और जिंदगी के अनुभवों से पैदा होती है।
अरुणा रॉय की किताब ‘द पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ सिर्फ उनकी ज़िंदगी की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी किताब है जो हमें बताती है कि हमारे अपने निजी अनुभव भी राजनीति से जुड़े हो सकते हैं।
ग्रामीण महिलाओं से मिली नारीवाद की नई समझ

रॉय अपनी किताब में कहती हैं कि नरौती, बिल्लन, मंगी और हसीना जैसी गांव की महिलाएं उन्हें यह समझने में मदद करने वाली थीं कि महिलाओं के हक की बात सिर्फ किताबों की नहीं, बल्कि रोजमर्रा की ज़िंदगी से जुड़ी होती है। ये महिलाएं भले ही औपचारिक रूप से स्कूल या कॉलेज न गई हों, लेकिन उनके पास जीवन का ऐसा अनुभव था जो किसी भी पढ़ाई से कम नहीं था। उन्होंने रॉय को यह सिखाया कि नारीवाद को समझने के लिए जाति, वर्ग और धर्म की चुनौतियों को समझना बहुत जरूरी है।
उन्होंने जाति, लिंग और आर्थिक शोषण की गुत्थियों को रॉय के सामने इस तरह खोला कि रॉय की नज़र पहली बार उन ढांचों पर पड़ी जिन्हें समाज ने सामान्य मान लिया था। इन महिलाओं ने न सिर्फ अपने दर्द और अनुभव साझा किए, बल्कि अपने जीवन से यह दिखाया कि नेतृत्व केवल बोलने में नहीं, बल्कि जीने में होता है। वे महिलाएं केवल सह-यात्री नहीं थीं वे आंदोलन की सह निर्माता, नेता और मार्गदर्शक थीं। उन्होंने धरनों में आगे बैठकर नारे लगाए, सवाल उठाए, और दूसरी महिलाओं को भी जुड़ने का हौसला दिया। उन्होंने यह साबित किया कि गांव की महिलाएं सिर्फ बदलाव का हिस्सा नहीं होतीं, बल्कि खुद बदलाव की शुरुआत होती हैं।
उन्होंने धरनों में आगे बैठकर नारे लगाए, सवाल उठाए और दूसरी महिलाओं को भी जुड़ने का हौसला दिया। उन्होंने यह साबित किया कि गांव की महिलाएं सिर्फ बदलाव का हिस्सा नहीं होतीं, बल्कि खुद बदलाव की शुरुआत होती हैं।
कहानियों का प्रतिरोध में योगदान

किताब में इस विचार पर भी जोर दिया गया है कि कहानियां और बोलकर सुनाई जाने वाली परंपराएं विरोध जताने का एक मजबूत तरीका हैं। रॉय बताती हैं कि कैसे राजस्थान के चारण और भट्ट जैसे लोक इतिहासकारों ने गीतों और कविताओं के माध्यम से आम लोगों का इतिहास जिंदा रखा है। ये वही इतिहास है जिसे सरकारी दस्तावेज अक्सर अनदेखा कर देते हैं हाशिए में रह रहे लोगों का संघर्ष, सपने और असहमति अक्सर नजरअंदाज कर दी जाती हैं। रॉय इस बात की चिंता जताती हैं कि आजकल संघर्षों की कहानियों को भी बाजार और प्रचार का साधन बना दिया गया है।
वह कहती हैं कि आजकल झूठा प्रचार भी इतिहास की तरह दिखाया जा रहा है, और यह बहुत ही डराने वाली बात है। लेकिन उन्हें लोगों द्वारा गाए गए जनगीतों और लोककलाओं से उम्मीद मिलती है, क्योंकि ये आम लोगों के विरोध को सच्चे और लोकतांत्रिक तरीके से सामने लाते हैं। वह लिखती हैं जैसा कि जर्मन कवि बर्टोल्ट ब्रेख्त ने लिखा है कि “अंधेरे समय में क्या गाना भी होगा? हां, अंधेरे समय के बारे में भी गाना होगा।”उनका मतलब यह है कि मुश्किल समय में भी जो चीज़ हमें आगे बढ़ने की ताकत देती है, वो है उम्मीद इंसानियत और दूसरों के लिए दया का भाव। जो हमें सबसे कठिन समय में भी जिंदा रखती है।
रॉय बताती हैं कि कैसे राजस्थान के चारण और भट्ट जैसे लोक इतिहासकारों ने गीतों और कविताओं के माध्यम से आम लोगों का इतिहास जिंदा रखा है। ये वही इतिहास है जिसे सरकारी दस्तावेज अक्सर अनदेखा कर देते हैं।
रॉय का इंटरसेक्शनल नारीवाद

रॉय का नारीवाद इंटरसेक्शनल है यानी वह जेंडर को वर्ग, जाति या धर्म से अलग करके नहीं देखतीं। उनकी बातों से पता चलता है कि कैसे राज्य निजी जीवन पर भी नियंत्रण चाहता है, खासकर महिलाओं के शरीर और निर्णयों पर भी। साहित्यकार वर्जीनिया वुल्फ, लेखिका मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट और पत्रकार ग्लोरिया स्टाइनम जैसी वैश्विक नारीवादी विचारकों का भी वह उल्लेख करती हैं, लेकिन उनका नारीवाद हमेशा भारतीय महिलाओं के अनुभवों पर टिका रहता है। उनकी किताब में भंवरी देवी का मामला जैसे उदाहरण दिखाते हैं कि कैसे महिलाओं ने हमेशा राजनीति और निजी पीड़ा की सीमाओं को लांघा है और जीत हासिल की है।
वह लिखती हैं, जब हम पारंपरिक भूमिकाओं, शिष्टाचार और परंपराओं की चौखट से बाहर आते हैं, तभी हम अपनी नैतिक समझ का निर्माण कर सकते हैं। वह लिखती हैं कि, एक महिला के रूप में हमारा शरीर ही हमारी पहचान बनता है। समाज ने हमारे शरीर को संघर्ष का मैदान बना दिया है। लेकिन नारीवाद ने इन विरोधाभासों को तोड़ने में हमारी मदद की है। महिलाओं की बात अक्सर उनके निजी अनुभव से शुरू होती है लेकिन वहीं से राजनीतिक जागरूकता की राह भी निकलती है।
रॉय का नारीवाद इंटरसेक्शनल है यानि वह लिंग को वर्ग, जाति या धर्म से अलग करके नहीं देखतीं। उनकी बातों से पता चलता है कि कैसे राज्य निजी जीवन पर भी नियंत्रण चाहता है, खासकर महिलाओं के शरीर और निर्णयों पर भी।
स्वास्थ्य और अदृश्य श्रम की राजनीति

रॉय का लेखन ग्रामीण महिलाओं के उस अनदेखे काम को उजागर करता है, जिसे समाज अक्सर काम की श्रेणी में नहीं रखता है। जब कोई महिला कहती है मैं कुछ नहीं करती, बस मिट्टी फेंकती हूं, तो यह वाक्य सिर्फ एक वाक्य नहीं रहता है। यह उस पूरी सोच पर सवाल खड़ा करता है जो घर, खेत और निर्माण स्थलों पर काम करने वाली महिलाओं के काम को अदृश्य बना देती है। उनके काम को अक्सर सहायता समझा जाता है, काम नहीं। महिलाओं का काम चाहे वह पानी लाना हो, खेत में काम करना हो या बच्चों की देखभाल करना हो उन्हें यह काम करना ही पड़ता है।
वो भी बिना किसी वेतन के क्योंकि हमारा पुरुष प्रधान समाज और परिवार महिलाओं को यही सिखाता आया है कि यह तो तुम्हारा अपना ही काम है। वह बताती हैं कि कैसे सिलिकोसिस जैसी जानलेवा बीमारी राजस्थान के मज़दूरों को प्रभावित कर रही है। ये वही पत्थर हैं जो हम अपने घरों, रसोइयों में सुंदरता के नाम पर लगाते हैं। लेकिन उस सुंदरता के पीछे मज़दूरों का टूटा हुआ शरीर और इलाज न मिलने की बेबसी छिपी होती है। इसमे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि विकास के नाम पर किस तरह से हाशिये पर रह रहे व्यक्ति प्रभावित होते हैं।
जब कोई महिला कहती है कि मैं कुछ नहीं करती, बस मिट्टी फेंकती हूं, तो यह वाक्य सिर्फ एक वाक्य नहीं रहता है। यह उस पूरी सोच पर सवाल खड़ा करता है जो घर, खेत और निर्माण स्थलों पर काम करने वाली महिलाओं के काम को अदृश्य बना देती है।
आरटीआई से संविधान तक महिलाओं की भागीदारी

सूचना का अधिकार (आरटीआई ) और मनरेगा जैसे जन-अधिकारों का ज़िक्र रॉय खास रूप से करती हैं। वह बताती हैं कि कैसे ग्रामीण महिलाओं ने इन आंदोलनों का नेतृत्व किया और अपने निजी संघर्षों को सामूहिक मांगों में बदल दिया। उनके लिए आरटीआई एक नारीवादी विचार है। रॉय बढ़ते हुए बहुसंख्यकवाद यानि धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल और संविधान के मूल्यों को लेकर चिंता जताती हैं। रॉय का स्वर पूरी किताब में साफ तौर पर दिखाई देता है। वह कहती हैं कि संघर्ष कभी समाप्त नहीं होता। रॉय महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर, रवींद्रनाथ ठाकुर और महान दार्शनिक लाओत्से की विचारधारा को नेतृत्व की भी मिसाल देती हैं। लाओत्से के शब्दों में अच्छे नेता की परिभाषा क्या है? लोगों के पास जाओ, उनके साथ रहो, उनसे सीखो, उन्हें प्यार करो और वहीं से शुरू करो जहां वे हैं।
वही उपयोग करो जो उनके पास है। लेकिन जब काम पूरा हो जाए, तो लोग यही कहेंगे यह हमने खुद किया है। रॉय का यह लेखन हमें सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व वहीं जन्म लेता है जहां लोग अपने हक के लिए मिलकर खड़े होते हैं बिना शोर, लेकिन पूरे विश्वास के साथ। ‘द पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ एक ऐसी किताब है जो हमें सिखाती है कि हमारे निजी अनुभव भी समाज और राजनीति से जुड़े हो सकते हैं। अरुणा रॉय की ज़िंदगी बताती है कि बदलाव लाने के लिए बड़ी जगहों पर होना ज़रूरी नहीं, गांवों और आम लोगों के साथ मिलकर भी बड़ा काम किया जा सकता है। यह किताब हमें सोचने पर मजबूर करती है कि सवाल पूछना, अन्याय के खिलाफ खड़े होना और मिलकर चलना ही असली राजनीति है। आज के दौर में जब लोकतंत्र और अधिकारों पर खतरे हैं, ये किताब हमें उम्मीद और हिम्मत देती है।

