शिरीष खरे की नई किताब ‘नदी सिंदूरी’ पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे पाठक खुद किसी गांव की गलियों में चल रहा हो। हर मोड़, हर चबूतरे पर एक कहानी पाठक का इंतज़ार कर रही हो। यह सिर्फ ग्रामीण जीवन का चित्रण नहीं, बल्कि उसकी आत्मा को छू लेने वाली कहानियों का संग्रह है। पहली कहानी ‘हम अवधेश का शुक्रिया अदा करते हैं’ में पात्र भूरा के संवाद बताते हैं कि गांव में प्रेम करना कितना कठिन है। समाज, जाति और परंपराएं इसके विरुद्ध खड़ी होती हैं, लेकिन प्रेम में बदलाव की ताकत भी होती है। लेखक ने इन कहानियों को कोरोना लॉकडाउन के दौरान लिखा, जब वह अपने बचपन, गांव और जड़ों की ओर लौटे। ये कहानियां 90 के दशक की हैं, जब गांव पलायन, आर्थिक बदलाव और हाशिए पर जाने जैसे दौर से गुजर रहे थे। ‘नदी सिंदूरी’ सिर्फ किस्सों का संग्रह नहीं, बल्कि एक पूरे समय और समाज की स्मृति है।
गांव की आत्मा और यादों का संगम
‘नदी सिंदूरी’ स्मृतियों पर आधारित 13 कहानियों का संग्रह है, जो मध्यप्रदेश के मदनपुर गांव और उसके लोगों की ज़िंदगी को उकेरता है। यह किताब सिर्फ एक गांव की नहीं, बल्कि हर भारतीय गांव की सामूहिक स्मृति है। लेखक ने गांव की संस्कृति, भाषा, रिश्तों और दिनचर्या को बड़े भावनात्मक और संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया है। कोरोना काल में जब लोग गांव की ओर लौटे, तब उन्हें गांव की अहमियत और जड़ों से जुड़ाव का एहसास हुआ। यही भावनाएं इस किताब में गहराई से दिखती हैं। छोटे मंदिर, चबूतरा, गलियां, स्कूल, दुकानें – गांव की दुनिया शहरों से अलग है। यहां लोग एक-दूसरे पर निर्भर हैं, इसलिए प्यार भी गहरा है।

मदनपुर और सिंदूरी नदी इस किताब के मुख्य दृश्य हैं। किताब के पात्र जैसे ढोलक बाज अवधेश या धन्ना महाराज अपने किस्सों के साथ जीवंत हो उठते हैं। जातीय भेदभाव और अंधविश्वास के बीच भी इंसानी रिश्तों की गर्माहट, बच्चों का गांव के प्रति प्यार और जड़ों से जुड़ाव भावनात्मक रूप से छू जाता है। यह संग्रह गांव के जीवन का मानवीय रंगमंच है, जो पाठक को उसकी अपनी मिट्टी की याद दिलाता है।
गांव की संवेदनाओं को छूती कहानियां
‘नदी सिंदूरी’ किताब में लेखक ने गांव की कहानियों को बेहद संवेदनशील और सादगीभरे अंदाज़ में पेश किया है। यह किताब गांव से जुड़े लोगों के लिए एक दर्पण की तरह है, जो मां की याद, गांव की बोली, रिश्तों की गर्माहट और टूटते-बिखरते सामाजिक ताने-बाने को संजोए हुए है। कहानी ‘कल्लो तुम बिक गईं’ में गाय के ज़रिए इंसान और जानवरों के रिश्ते को भावुकता से उकेरा गया है। कल्लो का बिछड़ना जैसे मन के भीतर कहीं गूंजता रह जाता है। वहीं, ‘रामदई, हमने टीवी नई देखी’ कहानी में मुग्घा नामक दलित बच्चे की जातिगत संघर्ष और शिक्षा की जिद को दिखाया गया है। लेखक की भाषा सरल, संवादपूर्ण और लोकबोलियों से समृद्ध है। किताब न सिर्फ गांव की संवेदनाओं को जगाती है, बल्कि पर्यावरणीय न्याय और सामाजिक चेतना को भी बढ़ावा देती है।
यह रचना नब्बे के दशक के गांवों की आत्मा को सहेजती है। किताब में अधिकतर शीर्षक कहानियों के पात्रों के संवादों से लिए गए हैं। जैसे ‘सात खून माफ है’ उस हिस्से का शीर्षक है, जहां सत्या पंडित को ‘बाल-बुद्धि’ कहा जाता है। लेकिन उनकी सीधी और सच्ची बातें गहरी समझ दिखाती हैं। सत्या पंडित असल में एक प्रगतिशील सोच वाला व्यक्ति है। जब गांव की औरतों का अपमान होता है, तो वो चुप नहीं रहते। ठाकुर के ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होकर, नाई का उस्तरा उठाकर उसकी गर्दन काट देते हैं।
नदी की धारा में बहती महिलाओं की स्वतंत्रता
इस किताब की कहानियां आपको महिलाओं के स्वतंत्र भाव से भी रूबरू कराती हैं। ‘धन्ना तो बा की राधा संग गोल हो गओ‘ और ‘तुम तो मेरी चौथी बेटी हो’ दोनों ही कहानियों के किरदार ‘धन्ना महाराज’ और ‘रामकली’ को अपनी आजादी से जीने का रास्ता दिखाती हैं। चोर से जोगी बना धन्ना एक जगह कहता है कि राधा क्यों किसी के कहने पर मंदिर में रहे, वह तो गांव की लड़की है, यहीं नदी के पास रहेगी। धन्ना महाराज के व्यक्तित्व का वर्णन कर उसका महिलाओं के प्रति क्या दृष्टिकोण है, यह बताता है। वहीं, दूसरी ओर रामकली नाम की बस मालकिन है जो दलित समुदाय से हैं पर एक दबंग महिला है। वह चरणलाल की मजबूरी को देखते हुए उसकी बिटिया को अपनी चौथी बेटी मान उसकी शादी टूटने नहीं देती। माँ की ममता और रामकली जैसी कई महिलाओं का संघर्ष गांव के स्वभाव में आज भी नजर आता है।

इसके अलावा कृपाल सिंह, मीराबाई, वीरेन चाचा, बस चालक व परिचालक, बसंत, यादव मास्साब और अन्य सभी सच्चे पात्रों के साथ ‘सिंदूरी’ ने इसे जीवंत बना दिया है। ‘उपसंहार’ के ‘वे दो पत्थर’ में एक तरुण के अटूट प्रेम का चित्रण उच्च स्तर पर दिखाई देता है। इसी में से यह वाक्य ही लीजिए जो सिंदूरी के भीतर गहरी यादों में धंसकर उसके एहसास को सहेजे हुए हैं- पानी बहता है और फेंके गए भारी पत्थर वहीं ठहर जाते हैं। पत्थर का गुण होता है पानी के गहरे तल तक में जाना। तब से अब तक इन दो दशकों तक नदी लगातार बिना रुके बहती जा रही है। सिंदूरी की धार ज्यों की त्यों बनी हुई है और वे दो पत्थर भी वहीं रह गए हैं। नदी की तलहटी में। लेखक ने इस किताब का जिक्र अपनी दूसरी किताब ‘एक देश बारह दुनिया’ में भी किया था, जिसमें वह सिंदूरी नदी को कुछ इस तरह एक प्रभावशाली रूप देते हैं-
सिंदूरी तू एक नदी की सरसराहट भर नहीं है
ग्राम मदनपूर के सैकड़ों लोगों की
सहज सुंदर अभिव्यक्ति हाँ तुझ में शामिल हैं
कोई पठार अब तक तुझे
विचलित कर नहीं सका अपनी राह से
भला एक छोटा बाँध रोक सकेगा
नर्मदा मिलन की चाह से।
‘नदी सिंदूरी’ सिर्फ एक किताब नहीं, बल्कि एक जीवित दस्तावेज़ है जो हमें यह एहसास कराती है कि गांव भावनाओं, स्मृतियों और संबंधों का गहरा संसार होता है। लेखक ने इन कहानियों के माध्यम से गांव की उस अनकही और अनसुनी दुनिया को दिखाया है, जिसे हम आधुनिकता की दौड़ में अक्सर पीछे छोड़ देते हैं। यह किताब हमें बताती है कि गांव में प्रेम करना, जाति की दीवारें पार करना, महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए खड़ा होना या किसी दलित बालक का स्कूल जाना ये सब एक बड़े सामाजिक संघर्ष का हिस्सा हैं। यह कहानियां पाठक को उसके अपने अतीत, अपने लोगों और अपनी जड़ों से जोड़ती हैं। यह किताब न केवल गांव को समझने की दृष्टि देती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि कैसे हम छोटे-छोटे अनुभवों में बड़े जीवन-संदेश खोज सकते हैं। सिंदूरी नदी की तरह बहती ये कहानियां समय के पत्थरों के बीच से रास्ता बनाती हुई, पाठकों के हृदय में स्थायी जगह बना जाती है।