भारतीय संगीत की दुनिया में कुछ कलाकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने खुद तो संगीत में अपना नाम बनाया ही, साथ ही दूसरों की विरासत को भी दिल से संभाल कर रखा। शांति हीरानंद सिर्फ एक गायिका नहीं थीं, वे भारतीय संगीत की एक खास परंपरा को निभाने वाली कलाकार थीं। उन्होंने ठुमरी, ग़ज़ल और दादरा जैसे मीठे और भाव से भरे गीतों को नई पहचान दी। वे मशहूर गायिका बेग़म अख़्तर की शिष्या थीं और उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अपने गुरु की गायकी और अंदाज को संभालने और आगे बढ़ाने में लगा दी। उनके लिए संगीत कोई पेशा नहीं था, बल्कि वह उसे पूजा या साधना की तरह मानती थी।
शांति हीरानंद ने न सिर्फ अख़्तर के सुरों को अपनाया, बल्कि उनकी ज़िंदगी, सोच और संघर्ष को भी गहराई से समझा और महसूस किया। उनकी गायकी में एक सच्चाई थी, एक भाव था, जो सीधे दिल तक पहुंचता था। मंच पर उनका अंदाज़ सादा लेकिन असरदार होता था ठहराव, गहराई और भाव की झलक साफ दिखाई देती है। शांति ने यह साबित किया कि किसी कलाकार की असली पहचान उसकी विनम्रता और सच्चाई में होती है, ना कि केवल प्रसिद्धि या मशहूर होने में। उनकी कला, समर्पण और जीवन, उस विरासत की मिसाल हैं जिसे शब्दों में नहीं, सुरों की गहराई में जिया जाता है।
वे भारतीय संगीत की एक खास परंपरा को निभाने वाली कलाकार थीं। उन्होंने ठुमरी, ग़ज़ल और दादरा जैसे मीठे और भाव से भरे गीतों को नई पहचान दी।
शुरुआती जीवन और संगीत की ओर झुकाव

शांति हीरानंद एक भारतीय गायिका, शास्त्रीय संगीत से जुड़ी कलाकार और लेखिका थीं, जिन्हें ग़ज़ल गाने में उनकी ख़ास कला और हुनर के लिए जाना जाता है। शांति हीरानंद का जन्म 1933 में लखनऊ के एक सिंधी व्यापारी परिवार में हुआ था। जहां शुरू से ही उन्हें संगीतमय और सांस्कृतिक माहौल मिला। शांति को बचपन से ही संगीत में दिलचस्पी थी। उन्होंने भातखंडे संगीत संस्थान में संगीत की पढ़ाई की। उन्हें अपने पिता के काम के कारण साल 1940 के दशक की शुरुआत में लाहौर जाना पड़ा था ।
वहां उन्होंने साल 1947 में पहली बार रेडियो लाहौर स्टेशन पर गाना गाया। देश के बंटवारे के बाद उनका परिवार वापस लखनऊ आ गया। उसके बाद उन्होंने रामपुर के उस्ताद ऐजाज हुसैन खान से संगीत की शिक्षा लेना शुरू किया। साथ ही उन्होंने रेडियो में अपना गायन जारी रखा उनके गायन को देखकर साल 1952 में, रेडियो स्टेशन के एक अधिकारी ने उन्हें बेगम अख्तर से प्रशिक्षण लेने का सुझाव दिया। इससे शांति के जीवन में एक परिवर्तनकारी मोड़ आया ।
शांति हीरानंद एक भारतीय गायिका, शास्त्रीय संगीत से जुड़ी कलाकार और लेखिका थीं, जिन्हें ग़ज़ल गाने में उनकी ख़ास कला और हुनर के लिए जाना जाता है।
गुरु बेगम अख्तर और गायकी की विरासत

साल 1957 में वह बेगम अख्तर की शिष्या बनकर उनसे संगीत की शिक्षा लेने लगी। शांति को अपने गुरु की गायकी को बहुत अच्छे से अपनाने के लिए जाना जाता है। उन्होंने पहले संगीत की बुनियादी बातें सीखीं और फिर मेहनत और अनुशासन से अपने अंदाज़ को निखारा। सबसे खास बात यह थी कि उन्होंने बेग़म अख़्तर की हू-ब-हू नकल नहीं की, बल्कि उनकी सीख को अपनाकर अपना अलग और खास अंदाज़ बनाया। उनकी गायकी में उनका अपना व्यक्तित्व, कल्पना और भावनाएं साफ़ झलकती थीं, जिससे हर प्रस्तुति में कुछ नया सुनने को मिलता था। शांति अपनी गुरु से इतनी प्रभावित थीं कि वे बेगम अख्तर को अपनी अम्मी कहती थीं।
दो दशकों से ज़्यादा समय तक बेगम अख्तर की शिष्या रहीं, उन्होंने अपना जीवन अपनी अम्मी गायन श्रृंखला को समर्पित कर दिया, जिसमें ठुमरी, भजन और दादरा के साथ-साथ ग़ज़ल भी शामिल थी। साल 1974 में अख्तर की मृत्यु के बाद उन्होंने अपनी गुरु की यादों और संगीत को सहेजने के लिए ‘बेगम अख्तर, द स्टोरी ऑफ माइ अम्मी’ नाम से एक किताब भी लिखी जो कि 2005 में छपी थी। इसमें उन्होंने अपने गुरु के साथ बिताए पलों, सीखों और रिश्तों को गहराई से साझा किया। इस किताब के जरिए वे उन लोगों तक भी बेगम अख़्तर की दुनिया को पहुंचा पाईं, जो उन्हें कभी सुन नहीं पाए थे ।
साल 1957 में वह बेगम अख्तर की शिष्या बनकर उनसे संगीत की शिक्षा लेने लगी। शांति को अपने गुरु की गायकी को बहुत अच्छे से अपनाने के लिए जाना जाता है। उन्होंने पहले संगीत की बुनियादी बातें सीखीं और फिर मेहनत और अनुशासन से अपने अंदाज़ को निखारा।
सार्वजनिक पहचान, लेखन और पुरस्कार

शांति को उनके संगीत के योगदान के लिए कई मंचों पर सराहा गया। साल 1972 में उन्होंने इंडो-अमेरिकन, को-प्रोडक्शन में फिल्म सिद्धार्थ के लिए एक गाना रिकॉर्ड किया, जिसका निर्देशन कॉनराड रुकस ने किया था। गाने के अलावा, शांति ने फिल्म सिद्धार्थ में कपूर की मां की भूमिका निभाई थी। साल 1997 में उन्होंने राजन खोसा की स्वरा मंडल या फिल्म डांस ऑफ द विंड के लिए भी गाना गाया। साल 2007 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया। यह पुरस्कार उनके लंबे संगीत सफर, ग़ज़ल और शास्त्रीय गायन में योगदान और बेगम अख्तर की विरासत को संभालने के लिए दिया गया था। साल 2010 में, उनका पहला एल्बम, ‘जो आज तक न कह सकी’, रिलीज़ हुआ जिसमें ग़ज़लें थीं।
एक ग़ज़ल ‘तुम्हारा अक़्स हूं’ अपनी अम्मी के लिए उनकी भावनाओं को बयां करती है। वे संगीत नाटक अकादमी की सदस्य भी रहीं और कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। उन्होंने नई पीढ़ी के गायकों को भी सिखाया और संगीत को सहेजने का प्रयास किया। शांति सिर्फ़ एक समर्पित कलाकार ही नहीं थीं, बल्कि उन्होंने युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए भी उतना ही समय विताया और अपनी अनमोल विरासत को छात्रों तक पहुंचाने में अपना योगदान दिया। अपने जीवन के अंतिम दिनों तक भी दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम में संगीत पढ़ाया करती थीं। शांति की 10 अप्रैल 2020 को मृत्यु हो गई। लेकिन उनकी गायकी, उनका लेखन और बेग़म अख़्तर की विरासत को सहेजने का प्रयास, उन्हें हमेशा जीवित रखेगा।
शांति हीरानंद सिर्फ एक गायिका नहीं थीं, वे अपने गुरु बेग़म अख़्तर की कला और यादों को आगे बढ़ाने वाली शिष्या थीं। उन्होंने संगीत को दिल से जिया और हमेशा सादगी और भाव से गाया। उनकी गायकी में सच्चाई और गहराई थी, जो आज भी लोगों के दिलों को छूती है। शांति ने जो विरासत छोड़ी है, वह आने वाली पीढ़ियों को संगीत से जुड़ने और उसे समझने की प्रेरणा देती रहेगी। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्ची कला केवल सीखी नहीं जाती, उसे महसूस किया जाता है और जिया जाता है।

