फर्टिलिटी सिर्फ शरीर से जुड़ी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह महिलाओं की आज़ादी, उनके एजेंसी और सम्मान से भी जुड़ी हुई बात है। हमारे समाज में इसे अक्सर सिर्फ महिलाओं की उम्र से जोड़ा जाता है। पितृसत्तात्मक सोच के कारण माना जाता है कि अगर कोई महिला देर से या ज्यादा उम्र में शादी करती है, तो उसे गर्भधारण में दिक्कत होगी। लेकिन यह सोच एकतरफा और अधूरी है। फर्टिलिटी पर केवल उम्र नहीं, बल्कि कोई स्वास्थ्य समस्या, सामाजिक दबाव, आर्थिक परिस्थितियां, करियर दबाव और बच्चे की देखभाल को लेकर असुरक्षा जैसे कई कारण भी असर डालते हैं। जब भी फर्टिलिटी की बात होती है, तो सबसे पहले महिलाओं का ही ज़िक्र होता है। इसकी वजह समाज में फैली रूढ़िवादी सोच है, जो मानती है कि प्रजनन की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की होती है।
इनफर्टिलिटी के लिए महिला और पुरुष दोनों जिम्मेदार हो सकते हैं। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार दुनिया भर में लगभग 15 फीसदी दंपति इनफर्टिलिटी से प्रभावित हैं। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में हर छह में एक व्यक्ति इनफर्टिलिटी की समस्या का सामना करता है। भारत में इनफर्टिलिटी दर 3.9 से लेकर 16.8 फीसद तक है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन पर छपी जानकारी के अनुसार भारतीय राज्यों में इनफर्टिलिटी अलग-अलग स्तर पर है जैसे उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में 3.7 फीसद है, जबकि आंध्रप्रदेश में ये 5 फीसद है और कश्मीर में 15 फीसदी है।
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में हर छह में एक व्यक्ति इनफर्टिलिटी की समस्या का सामना करता है। भारत में इनफर्टिलिटी दर 3.9 से लेकर 16.8फीसद तक है।
क्या है फर्टिलिटी और इनफर्टिलिटी?

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच ) के अनुसार, फर्टिलिटी का सरल शब्दों में मतलब किसी व्यक्ति, खासकर महिला का प्राकृतिक रूप से गर्भधारण करने की क्षमता का होना है। इसके विपरीत इनफर्टिलिटी यानी गर्भधारण करने में समस्या का होना, यह समस्या महिला और पुरुष दोनों को हो सकती है इससे गर्भधारण और बच्चे पैदा करने में दिक्कत का सामना करना पड़ता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार इनफर्टिलिटी तब होती है। जब एक महिला या पुरुष 12 महीने या उससे अधिक समय तक नियमित रूप से असुरक्षित यौन संबंध बनाने के बावजूद गर्भधारण नहीं कर पाते हैं ।
इनफर्टिलिटी एक ऐसी समस्या है, जो महिलाओं और पुरुषों दोनों को हो सकती है। लेकिन समाज इसका दोष ज़्यादातर महिलाओं पर ही डालता है। यह सोच महिलाओं के लिए बहुत तकलीफदेह बन जाती है। उन्हें शर्म और अकेलेपन का एहसास होता है। गर्भधारण का लगातार दबाव और लोगों की निगाहें उनके आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती हैं। महिलाएं खुद को दोषी मानने लगती हैं, निराश हो जाती हैं और कई बार उन्हें आत्महत्या जैसे खतरनाक विचार भी आ सकते हैं। इनफर्टिलिटी को लेकर समाज में शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण कई भ्रांतियां और मिथक फैले हुए हैं।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के अनुसार, फर्टिलिटी का सरल शब्दों में मतलब किसी व्यक्ति, खासकर महिला का प्राकृतिक रूप से गर्भधारण करने की क्षमता का होना है। इसके विपरीत इनफर्टिलिटी यानी गर्भधारण करने में समस्या का होना है।
क्या इनफर्टिलिटी सिर्फ महिलाओं की समस्या है

आजकल सोशल मीडिया, रिश्तेदारों और विज्ञापनों के माध्यम से महिलाओं पर जल्दी मां बनने का दबाव डाला जाता है। शादी के एक-दो साल के अंदर अच्छी बहू और अच्छी मां बनने की सामाजिक उम्मीदें, उनकी मानसिक सेहत और फर्टिलिटी से जुड़े निर्णयों को प्रभावित करती हैं। कई बार महिलाएं यह भी तय नहीं कर पातीं कि वे मां बनना चाहती हैं भी या नहीं, क्योंकि समाज पहले ही उनके लिए यह निर्णय ले चुका होता है। पुरुष प्रधान सोच और जागरूकता की कमी के कारण इनफर्टिलिटी की जिम्मेदारी अक्सर सिर्फ महिलाओं पर डाल दी जाती है। जबकि यह एक गलतफहमी और लैंगिक भेदभाव की सोच का नतीजा है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन और बीबीसी की साल 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ महिलाएं ही नहीं, बल्कि पुरुष भी इनफर्टिलिटी के लिए उतने ही जिम्मेदार होते हैं। 40 से 45 साल की उम्र के बाद पुरुषों के स्पर्म काउंट पर असर पड़ने लग जाता है।
पुरुषों में इनफर्टिलिटी के लिए कारण है स्पर्म काउंट या शुक्राणु की संख्या में कमी का होना, स्पर्म मोरफ़ोलोजी या स्पर्म के आकृति में बदलाव आ जाता जाता है, स्पर्म मोटिलिटी या शुक्राणु के चलने की क्षमता में कमी और स्पर्म का खत्म होना आदि मुख्य कारण जिम्मेदार हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार महिलाओं में इनफर्टिलिटी के पीछे अक्सर ओवुलेशन से जुड़ी समस्याएं होती हैं। महिलाओं में ओवुलेशन न होने के कुछ लक्षणों में पीरियड्स का नियमित रूप नहीं होना है। इसके अलावा, फैलोपियन ट्यूब में रुकावट होना जिससे अंडाणु और शुक्राणु का मिलना मुश्किल हो जाता है, एंडोमेट्रियोसिस और गर्भाशय से जुड़ी समस्याएं भी गर्भधारण में बाधा बन सकती हैं। इसलिए ज़रूरी है कि समाज अपनी सोच बदले और इनफर्टिलिटी को बार-बार महिलाओं की गलती मानने के बजाय एक स्वास्थ्य संबंधी समस्या के रूप में स्वीकार करे, ना कि सामाजिक शर्म के रूप में।
महिलाओं में ओवुलेशन न होने के कुछ लक्षणों में पीरियड्स का नियमित रूप नहीं होना है। इसके अलावा, फैलोपियन ट्यूब में रुकावट होना जिससे अंडाणु और शुक्राणु का मिलना मुश्किल हो जाता है, एंडोमेट्रियोसिस और गर्भाशय से जुड़ी समस्याएं भी गर्भधारण में बाधा बन सकती हैं।
कंट्रासेप्शन और बर्थ कंट्रोल पिल्स का इस्तेमाल और फर्टिलिटी

रिप्रोडक्टिव साइंस सेंटर ऑफ न्यू जर्सी के रिसर्च के मुताबिक यह एक आम भ्रांति या धारणा है कि हार्मोनल गर्भनिरोधक गोलियां फर्टिलिटी को नुकसान पहुंचाती हैं। हालांकि सच्चाई यह है कि जैसे ही महिलाएं यह लेना बंद कर देती हैं, अगले ही महीने से महिलाओं में नॉर्मल ओवुलेशन (एग रिलीज होना) शुरू हो जाता है। रिसर्च के अनुसार गर्भनिरोधक गोलियां कभी भी फर्टिलिटी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती हैं। इनका काम केवल अनचाही प्रेग्नेंसी को रोकना और पीरियड्स साइकिल को नियमित करना होता है। यह पिल्स महिलाओं को आजादी देती हैं कि वे अपने शरीर, करियर और मातृत्व से जुड़े फैसले समाज के दबाव के बिना, खुद ले सकें।
इस तरह की भ्रांतियां अक्सर समाज में सेक्स एजुकेशन, खासकर कॉम्प्रिहेंसिव सेक्स एजुकेशन की कमी के कारण फैली होती हैं। वास्तविकता यह है कि महिलाओं में गर्भधारण करने की क्षमता 30 या 35 साल की उम्र में कम होने लगती है। इसका बिल्कुल भी मतलब नहीं है कि वह बच्चे पैदा नहीं कर सकती हैं। विभिन्न शोध मुताबिक 30 साल की उम्र में महिलाओं में हर महीने गर्भ धारण करने के 20-25 फीसद मौका होता है और 40 साल की उम्र में यह लगभग 5 फीसद कम हो जाता है। पुरुषों की फर्टिलिटी भी उम्र के साथ कम होती है, हालांकि यह कमी महिलाओं की तुलना में धीमी होती है। पुरुषों में फर्टिलिटी का कारण स्पर्म क्वालिटी का उम्र के साथ कम होना है।
विभिन्न शोध मुताबिक 30 साल की उम्र में महिलाओं में हर महीने गर्भ धारण करने के 20-25 फीसद मौका होता है और 40 साल की उम्र में यह लगभग 5 फीसद कम हो जाता है।
असुरक्षित यौन संबंध से फर्टिलिटी पर असर

यह धारणा पूरी तरह से एक मिथक है। भारत में आज भी सेक्स एजुकेशन को शर्म और संकोच से जोड़ा जाता है। यहां तक कि घरों और स्कूलों में भी इस विषय पर खुलकर बात नहीं होती, जिसकी वजह से युवाओं को सुरक्षित यौन संबंधों और यौन स्वास्थ्य की पूरी तरह से जानकारी नहीं मिल पाती है । ऐसे में युवा असुरक्षित यौन संबंध बना लेते हैं जिससे कई बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, 15 से 24 साल के युवाओं में यौन संचारित रोग सबसे ज़्यादा पाए जाते हैं। एचआईवी के मामलों में भी लगभग आधे लोग इसी उम्र के होते हैं। क्लैमाइडिया और गोनोरिया सबसे आम यौन संचारित रोग हैं, और खासकर महिलाओं में इनके लक्षण अक्सर दिखाई नहीं देते। अगर समय पर इलाज न हो, तो वे महिला की फैलोपियन ट्यूब को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जिससे भविष्य में गर्भधारण में दिक्कत हो सकती है। समस्या शादी से पहले सेक्स नहीं है, बल्कि बिना जानकारी और सुरक्षा के शारीरिक यौन संबंध बनाने से है। इसका समाधान सेक्स पर पाबंदी नहीं, बल्कि कॉम्प्रिहेंसिव सेक्स एजुकेशन है जहां युवाओं को यह बताया जाए कि सुरक्षा के कौन-कौन से तरीके हैं।
समाधान के लिए क्या किया जा सकता है
समाज को यह समझना होगा कि इनफर्टिलिटी महिला या पुरुष किसी की भी समस्या हो सकती है। स्कूलों में भी सेक्स एजुकेशन दी जानी चाहिए ताकि लोगों को जानकारी मिल सके। गांव और छोटे शहरों में स्थानीय भाषा में जागरूकता अभियान चलाने चाहिए ताकि लोग इनफर्टिलिटी से जुड़ी गलतफहमियों को समझ सकें। सरकारी अस्पतालों और क्लीनिकों में ऐसी सुविधाएं होनी चाहिए जहां महिलाएं, पुरुष या किसी भी लैंगिक पहचान वाला व्यक्ति बिना डर और शर्म के अपनी बात कह सके। इनफर्टिलिटी को लेकर समाज में फैली गलत धारणाएं न सिर्फ सच्चाई को छिपाती हैं, बल्कि महिलाओं को बेवजह दोषी ठहराती हैं, जो ठीक नहीं है।
गर्भधारण की क्षमता महिलाओं और पुरुषों दोनों से जुड़ी होती है और उम्र, स्वास्थ्य, सामाजिक दबाव, करियर की चिंता जैसे कई कारण इस पर प्रभाव डालते हैं। कांट्रासेप्टिव पिल्स और शादी से पहले सेक्स जैसे मुद्दों पर गलतफहमियां केवल सेक्स एजुकेशन की कमी का नतीजा है। समाज में यह ज़रूरी है कि फर्टिलिटी और इनफर्टिलिटी को शर्म या दोष की बजाय एक सामान्य स्वास्थ्य विषय के रूप में देखा जाए। स्कूलों में समावेशी यौन शिक्षा, हेल्थकेयर तक समान पहुंच, और स्थानीय भाषाओं में जन जागरूकता अभियान ही ऐसे मिथकों को तोड़ने का रास्ता हैं। जब तक इनफर्टिलिटी को लेकर लैंगिक पूर्वग्रह और सामाजिक चुप्पी बनी रहेगी, तब तक महिलाएं सबसे ज़्यादा प्रभावित होती रहेंगी। इसलिए यह वक्त है कि समाज विज्ञान, समझदारी और संवेदनशीलता के साथ इस विषय पर आगे बढ़ा जाए।

