समाजकैंपस दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपनी पढ़ाई और सपनों के लिए संघर्ष करती लड़कियां

दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपनी पढ़ाई और सपनों के लिए संघर्ष करती लड़कियां

मुखर्जी नगर, जहां देशभर से हज़ारों लड़कियां अपने भविष्य को संवारने के सपने लेकर आती हैं, वहां की ज़िंदगी संघर्षों से भरी होती है। पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें रोज़मर्रा की कई समस्याओं से जूझना पड़ता है। अधिकतर छात्राएं पीजी या हॉस्टल में रहती हैं, जहां न तो पर्याप्त सुरक्षा होती है, न ही सम्मानजनक सुविधाएं।

दिल्ली हज़ारों-लाखों युवाओं के लिए उम्मीदों और संभावनाओं का शहर है, विशेषकर उन छात्र-छात्राओं के लिए जो यूपीएससी, नीट, जेईई या अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए इस महानगर का रुख करते हैं। इनमें से अधिकांश छात्र मध्यमवर्गीय या निम्नवर्गीय परिवारों से आते हैं, जो छोटे शहरों, कस्बों या गांवों से निकलकर दिल्ली जैसी तेज़ रफ्तार जिंदगी में अपने लिए एक जगह बनाने का सपना लेकर आते हैं। लेकिन, यह राह हर किसी के लिए एक जैसी नहीं होती, खासतौर पर लड़कियों के लिए। जहां एक ओर सुरक्षा की चिंता होती है, वहीं दूसरी ओर उनपर घर परिवार से शादी या पढ़ाई छोड़ने का भी दबाव होता है। जब कोई लड़की पढ़ाई के लिए अपने घर से किसी बड़े शहर जाती है, तो वह सिर्फ एक ‘विद्यार्थी’ नहीं होती। वह अपने साथ समाज की तमाम उम्मीदें, बंदिशें और पारिवारिक चिंताएं भी लेकर चलती है।

जहां एक लड़के को घर से बाहर निकलते ही एक तरह की स्वतंत्रता का अनुभव होता है, वहीं एक लड़की की ‘आज़ादी’ शर्तों और नियंत्रणों से भरी होती है। घर से निकलने से पहले उससे कई सवाल किए जाते हैं कि ‘क्या ज़रूरी है बाहर जाना’, ‘यहां रहकर भी तो पढ़ाई हो सकती है’, ‘साथ कौन रहेगा।’ इन सवालों के जवाब ही तय करते हैं कि लड़की को बाहर पढ़ने दिया जाएगा या नहीं। अगर पढ़ाई की अनुमति मिल भी जाती है, तो भी असल में स्वतंत्रता मिलना मुश्किल होता है। अक्सर उसे हर पल फोन करके पूछा जाता है कि ‘कहाँ हो’, ‘किसके साथ हो’, ‘कब लौटोगी।’ ऐसी निगरानी लड़कों की तुलना में उनपर कहीं ज़्यादा होती है। माता-पिता को अक्सर यह डर सताता है कि कहीं ‘शहर की आदत’ बेटी को बदल न दे, कहीं वह ‘बहुत ज़्यादा आज़ाद’ न हो जाए। उनके लिए बेटी की ‘शादी’ और ‘इज़्ज़त’ उसकी पढ़ाई से अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह सामाजिक दबाव लड़कियों के आत्मविश्वास और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालता है।

दिल्ली आए मुझे अब लगभग एक साल हो गया है। यहां तक पहुंचना आसान नहीं था। परिवार से कई बार बहसें हुईं, तब जाकर आने की इजाज़त मिली। अब जब यहां रह रही हूं, तो रोज़ाना कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

लड़कियों पर दोहरा दबाव और सुरक्षा का डर

उन्हें दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है। एक तरफ जहां उनपर प्रतियोगी परीक्षा को जल्द से जल्द क्रैक करने का दबाव होता है, वहीं दूसरी ओर समाज और परिवार की सोच से उन्हें लड़ना पड़ता है। उन्हें खुदको और अपने हर फैसले को बार-बार सिद्ध करना पड़ता है। आम तौर पर उन्हें न सिर्फ परिवार से बल्कि जहां वे रहती हैं उन पीजी या हॉस्टल से भी देर रात लाइब्रेरी या कोचिंग जाने के लिए रोका जाता है। हॉस्टल की जगह पीजी में रहने की भी सलाह दी जाती है, ताकि उनपर ‘नज़र’ रखी जा सके। दिल्ली की गलियों में सुरक्षित चलने से लेकर किराए का कमरा खोजने और कोचिंग सेंटर में खुद को स्थापित करने तक, हर मोड़ पर लड़कियों को यह एहसास कराया जाता है कि वे केवल विद्यार्थी नहीं, बल्कि लड़कियां हैं जिन्हें हर कदम संभलकर रखना है।

तस्वीर साभार: The Indian Express

इस विषय पर राजस्थान की रहने वाली दिव्या जो दिल्ली के मुखर्जीनगर में रहकर जुडिशरी में जाने की तैयारी कर रही हैं, कहती हैं, “दिल्ली आए मुझे अब लगभग एक साल हो गया है। यहां तक पहुंचना आसान नहीं था। परिवार से कई बार बहसें हुईं, तब जाकर आने की इजाज़त मिली। अब जब यहां रह रही हूं, तो रोज़ाना कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। मुखर्जी नगर में कोचिंग की सुविधाएं अच्छी हैं, लेकिन यहां की गलियों में स्ट्रीट लाइट की कमी और नशे में धुत लोगों की मौजूदगी डर का माहौल बना देती है। रात के समय ब्रोकरों का व्यवहार भी असहज कर देता है। लड़कियों को लड़कों के मुकाबले अधिक सतर्क रहना पड़ता है। दिन में माहौल थोड़ा सुरक्षित लगता है। लेकिन शाम के बाद अकेले बाहर निकलने में डर लगता है। इसी वजह से मैंने लाइब्रेरी के पास ही पीजी लिया है, ताकि रात में लौटते समय ज़्यादा सुरक्षित महसूस कर हो।”

किताबों, कोचिंग फीस और टेस्ट सीरीज़ की पहले से ही भारी लागत है, ऊपर से पीजी का किराया मानसिक दबाव बढ़ाता है। मैं तेरह हज़ार रुपये में दो और लड़कियों के साथ एक कमरे में रहती हूं, जिससे पढ़ाई का माहौल प्रभावित होता है।

दिल्ली रहने, पढ़ाई का खर्च और चुनौतियां

दिल्ली के मुखर्जी नगर में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाली छात्राएं सिर्फ पढ़ाई की चिंता नहीं करतीं, बल्कि सुरक्षा और पीजी की बढ़ती महंगाई से भी परेशान हैं। ज़्यादातर लड़कियां बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों से आती हैं और मध्यम या निम्न-मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखती हैं। इसपर आगे दिव्या कहती हैं, “किताबों, कोचिंग फीस और टेस्ट सीरीज़ की पहले से ही भारी लागत है, ऊपर से पीजी का किराया मानसिक दबाव बढ़ाता है। मैं तेरह हज़ार रुपये में दो और लड़कियों के साथ एक कमरे में रहती हूं, जिससे पढ़ाई का माहौल प्रभावित होता है। पिछले कोचिंग हादसे के बाद संस्थान दूर शिफ्ट हो गए हैं, जिससे अब आने-जाने में समय और पैसे दोनों ज्यादा लगते हैं।”

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

दिल्ली में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाली लड़कियों को कई तरह की आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। विशेषकर लगातार बढ़ती महंगाई के कारण उनका दिल्ली जैसे शहर में रहना मुश्किल हो जाता है। अधिकतर छात्राएं छोटे शहरों या ग्रामीण इलाकों से आती हैं, जहां परिवार की आय सीमित होती है। ऐसे में उन्हें अपने खर्चों को बहुत सोच-समझकर और संयमपूर्वक संभालना पड़ता है। पढ़ाई से जुड़े खर्चों को कम करने के लिए छात्राएं सीनियर छात्रों से पुराने नोट्स, किताबें और अध्ययन सामग्री इकट्ठा करती हैं। वे ऑनलाइन मुफ्त लेक्चर, यूट्यूब चैनल्स और टेलीग्राम ग्रुप्स का सहारा लेकर महंगी कोचिंग के विकल्प तलाशती हैं। कुछ छात्राएं ट्यूशन पढ़ाकर, ऑनलाइन पार्ट-टाइम  जॉब या फ्रीलांसिंग के जरिए अतिरिक्त आय अर्जित करने की भी कोशिश करती हैं।

अधिकांश परिवारों का मानना है कि लड़कियों को थोड़ी पढ़ाई के बाद शादी कर देनी चाहिए, क्योंकि उन्हें लड़कियों की उच्च शिक्षा से कोई तात्कालिक लाभ नज़र नहीं आता। लेकिन इन तानों और सामाजिक दबावों के बावजूद लड़कियां अपने सपनों पर स्थिर रहती हैं।

सीमित संसाधनों और पारिवारिक दबावों के बीच पढ़ाई

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

मुखर्जी नगर इलाका न केवल आईएएस-आईपीएस बनने का सपना देखने वालों के लिए, बल्कि एसएससी और न्यायपालिका की परीक्षाओं के ज़रिए दूसरी सरकारी नौकरियों की तलाश करने वालों के लिए भी एक केंद्र है। द इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट अनुसार उद्योग विशेषज्ञों का अनुमान है कि पिछले दो दशकों में, दिल्ली के इन केंद्रों में लगभग 1,000 कोचिंग सेंटर खुल गए हैं, जिनमें से लगभग 200 अकेले ओल्ड राजिंदर नगर में स्थित हैं। पिछले कुछ दशकों में मुखर्जी नगर तेज़ी से एक प्रमुख कोचिंग केंद्र बन गया, जिसका एक मुख्य कारण दिल्ली विश्वविद्यालय से इसकी निकटता है। राजस्थान की मनीषा जो दिल्ली में सिविल सेवा की तैयारी कर रही हैं, कहती हैं, “मैं पिछले ढाई साल से मुखर्जी नगर में सिविल सेवा की तैयारी कर रही हूं। बचपन से ही इसका सपना था और दिल्ली आने में मेरे परिवार ने पूरा सहयोग दिया। हालांकि आज भी कई ग्रामीण परिवार अपनी बेटियों को अकेले शहर भेजने से डरते हैं। उन्हें सुरक्षा, पढ़ाई में ध्यान भटकने और जल्दी शादी जैसी चिंताएं परेशान करती हैं। ऐसी सामाजिक मानसिकता के दबाव में कई लड़कियां संघर्ष कर रही हैं।”

महंगे कोचिंग, रहने की जगह की समस्या और चुनौतियां

मुखर्जी नगर की कई छात्राएं सीमित संसाधनों और पारिवारिक दबावों के बीच पढ़ाई कर रही हैं। उन पर परीक्षा के साथ-साथ तानों और सवालों का मानसिक बोझ भी होता है जैसे ‘कब तक पढ़ेगी’ या ‘शहर जाकर बिगड़ न जाए।’ बावजूद इसके, वे हार नहीं मानतीं और अपने लक्ष्य की ओर डटी रहती हैं। इसपर मनीषा कहती हैं, “अधिकांश परिवारों का मानना है कि लड़कियों को थोड़ी पढ़ाई के बाद शादी कर देनी चाहिए, क्योंकि उन्हें लड़कियों की उच्च शिक्षा से कोई तात्कालिक लाभ नज़र नहीं आता। लेकिन इन तानों और सामाजिक दबावों के बावजूद लड़कियाँ अपने सपनों पर स्थिर रहती हैं। वे कोशिश करती हैं कि पढ़ाई का खर्च खुद उठाएं, ताकि परिवार पर बोझ न पड़े।”

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

वह आगे बताती हैं, “मुखर्जी नगर में रहकर तैयारी करना आसान नहीं है। यहां लाइब्रेरी की फीस प्रति माह 2400 रुपये तक है, फिर भी न तो पर्याप्त किताबें मिलती हैं, न ही अच्छी सुविधाएं या सुरक्षा का कोई भरोसा है। कोचिंग संस्थानों में हाल की घटनाओं के बाद कुछ हद तक सुरक्षा बढ़ाई गई है, लेकिन लाइब्रेरी जैसी जगहों को अब भी नजरअंदाज किया जाता है। मनीषा पीजी की स्थितियों पर भी सवाल उठाती हैं, “हर महीने 13 से 15 हजार रुपये देने के बावजूद खराब खाना, कीड़े-मकोड़े मिलना और साफ-सफाई की कमी जैसी समस्याएं आम हैं। शिकायतें करने पर भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती।”

हर महीने 13 से 15 हजार रुपये देने के बावजूद खराब खाना, कीड़े-मकोड़े मिलना और साफ-सफाई की कमी जैसी समस्याएं आम हैं। शिकायतें करने पर भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती।

मुखर्जी नगर, जहां देशभर से हज़ारों लड़कियां अपने भविष्य को संवारने के सपने लेकर आती हैं, वहां की ज़िंदगी संघर्षों से भरी होती है। पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें रोज़मर्रा की कई समस्याओं से जूझना पड़ता है। अधिकतर छात्राएं पीजी या हॉस्टल में रहती हैं, जहां न तो पर्याप्त सुरक्षा होती है, न ही सम्मानजनक सुविधाएं। जगह की कमी, गंदगी, खराब टॉयलेट, बिजली-पानी की समस्याएं और खराब भोजन उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इस विषय पर उत्तर प्रदेश की रहने वाली अस्मिता जो दिल्ली में रहकर सिविल सेवा की तैयारी कर रही हैं, बताती हैं, “मुझे दिल्ली आए दो साल हो चुके हैं।”

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

वह आगे बताती हैं, “मैं करोलबाग में रहकर सिविल सेवा की तैयारी कर रही हूं। सौभाग्य है कि परिवार का पूरा सहयोग मिलता है और वे कभी कोई कमी महसूस नहीं होने देते। लेकिन करोलबाग जैसे महंगे इलाके में रहना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। हर चीज़ की लागत इतनी ज़्यादा है कि हर ज़रूरत के लिए बार-बार घर से पैसे लेना ठीक नहीं लगता। इसलिए खुद को संभालना और खर्चों को मैनेज करना सीखना पड़ता है। तैयारी के साथ-साथ आर्थिक बोझ को थोड़ा कम करने के लिए मैं एक पेड इंटर्नशिप भी करती हूँ, जिससे पढ़ाई के साथ-साथ थोड़ी आमदनी हो जाती है। यह सब आसान नहीं होता। पढ़ाई और काम, दोनों करना समय और ऊर्जा की मांग करता है, लेकिन इसे करना पड़ता है।”

दिल्ली जैसे महंगे शहर में रहकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करना आसान नहीं है। किराया, खाना, यात्रा और पढ़ाई से जुड़े खर्च मध्यम और निम्न वर्ग के छात्रों पर भारी पड़ते हैं। कई बार पढ़ाई के साथ काम करना मजबूरी बन जाता है, जिससे शारीरिक और मानसिक थकान बढ़ती है। अस्मिता बताती हैं, “दिल्ली में रहना बहुत महंगा है। अगर रहने और पढ़ाई की सुविधाएं सस्ती हों, तो हम जैसे छात्रों पर बोझ कम हो सकता है।” सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह किफायती हॉस्टल, मुफ्त या कम शुल्क वाली लाइब्रेरी और सुरक्षित अध्ययन केंद्र उपलब्ध कराए। इससे अधिक विद्यार्थी शिक्षा में आगे बढ़ सकेंगे। यह शिक्षा के अवसरों को समान बनाने की दिशा में एक अहम कदम होगा।

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