समाजकैंपस बंद होते सरकारी स्कूल और हाशिये के बच्चों से छिनता शिक्षा का अधिकार

बंद होते सरकारी स्कूल और हाशिये के बच्चों से छिनता शिक्षा का अधिकार

स्कूलों के विलय को लेकर गरीब, मजदूर और किसान समुदाय में गहरी नाराज़गी है, जबकि विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग इसे बच्चों की कम संख्या के नाम पर जायज़ ठहराते हैं। लेकिन सवाल यह है कि बच्चों की संख्या कम क्यों है और इसकी ज़िम्मेदारी व्यवस्था पर क्यों नहीं डाली जाती?

शिक्षा हर मनुष्य का मौलिक अधिकार है। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर का कथन है कि शिक्षा वो शेरनी का दूध है, जो इसे पिएगा वो दहाड़ेगा जिसका मतलब है कि पढ़-लिख कर  ही मनुष्य अपने हक अधिकार के प्रति जागरूक होता है। वह अपने और दूसरों के साथ हो रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाता है। शिक्षा ही समाज में मौजूद अंधविशवासों और रूढ़ियों को तोड़कर मनुष्य में वैज्ञानिक चेतना को विकसित करती है। हाशिये के समुदाय के शिक्षा की बात करें तो सरकारी स्कूलों की बहुत अहमियत है।

लेकिन हाल ही में उत्तरप्रदेश में 5000 से अधिक सरकारी स्कूलों को बंद करने के फरमान से बहुत से हाशिये के समुदाय के बच्चों का भविष्य खतरे में दिख रहा है। शिक्षक संगठनों से लेकर हाशिये के आम नागरिकों में इस बदलाव को लेकर भारी रोष दिख रहा है। बताया जा रहा है कि ऐसे स्कूल जहां बच्चों की संख्या 50 से कम होंगी उन्हें बंद करके जो नजदीकी स्कूल होंगे वहां मर्ज कर दिया जाएगा। स्कूलों को बन्द करके मर्ज किए जाने के आदेश को लेकर फेमिनिज्म इन  इंडिया की तरफ से ग्रामीण इलाकों में कुछ लोगों से बातचीत की कोशिश की गई।

हाशिये के समुदाय के शिक्षा की बात करें तो सरकारी स्कूलों की बहुत अहमियत है। लेकिन हाल ही में उत्तरप्रदेश में 5000 से अधिक सरकारी स्कूलों को बंद करने के फरमान से बहुत से हाशिये के समुदाय के बच्चों का भविष्य खतरे में दिख रहा है।

इन इलाकों में लोग स्कूलों के बंद होने से नाराज़ दिखे। उनका कहना है कि सरकार स्कूलों को सुधारने की जगह उनको बंद करना चाहती है। आम लोगों में ये भी आशंका है कि मौजूदा सरकार इसी तरह एकदिन शिक्षा का निजीकरण कर देगी। गरीब और किसान मजदूर अपने बच्चों के भविष्य को लेकर इस फैसले से बहुत  निराश दिखे। उत्तरप्रदेश के कौशाम्बी जिले के रहने वाले अरविंद सब्जी उगाते और बेचते हैं। उनके तीन बच्चे हैं। उन्होंने अपने बच्चों का एडमिशन निजी स्कूलों में नहीं कराया था।

तस्वीर साभार: Canva

वह कहते हैं, “मेरे आस-पास के कुछ लोगों ने अपने बच्चों का एडमिशन निजी स्कूल में कराया है। कुछ लोगों ने नहीं कराया क्योंकि हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि निजी स्कूलों के खर्च की भरपाई हम कर सकें। बच्चे गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे और दोपहर का भोजन भी मिल जाता था। हमारे कुछ कहने से क्या होगा हम गरीब आदमी है। सरकारी स्कूलों की अहमियत वो गरीब बच्चे समझते हैं जिन्हें  भरपेट खाना भी नहीं मिलता। प्राइवेट स्कूलों की फीस और खर्चे वो कहां से उठा पाएंगे। सरकारी स्कूलों के बंद होने से अनपढ़ रह जाएंगे ऐसे बच्चे अक्षर भी नहीं सीख पाएंगे।”

ग्रामीण इलाकों में बच्चों का भविष्य

ग्रामीण इलाकों में पहले से ही काम पाने के मौके बहुत कम होते हैं। ऐसे में अगर गांव के सरकारी स्कूल बंद हो जाएंगे, तो वहां के बच्चों का भविष्य और भी मुश्किल हो जाएगा। पहले ही बेरोजगारी और महंगाई बढ़ रही है, अगर बच्चों को पढ़ने का मौका नहीं मिलेगा, तो गरीबी और अज्ञानता और बढ़ेगी। शिक्षा हर बच्चे का अधिकार होता है। अगर स्कूल में शिक्षण या शिक्षकों की कमियां हैं तो उसका सीधा दोष व्यवस्था को जाता है जो उसमें सुधार न करके इस तरह स्कूलों की संख्या घटाकर शिक्षा को निजीकरण की तरफ धकेल रही है।

हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि निजी स्कूलों के खर्च की भरपाई हम कर सकें। बच्चे गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे और दोपहर का भोजन भी मिल जाता था। हमारे कुछ कहने से क्या होगा हम गरीब आदमी है। सरकारी स्कूलों की अहमियत वो गरीब बच्चे समझते हैं जिन्हें  भरपेट खाना भी नहीं मिलता। प्राइवेट स्कूलों की फीस और खर्चे वो कहां से उठा पाएंगे।

इस विषय पर उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले के सुजानगंज के किसान तूफानी राम बताते हैं, “सुजानगंज ब्लॉक से ही कुल 31 स्कूलों को बंद करके मर्ज करने का आदेश आ गया है। गांव के इन सरकारी स्कूलों में गरीब घरों के बच्चे ही पढ़ते थे। ये बच्चे अपने ही गांव के स्कूल पर निर्भर थे। उन्हें दोपहर का भोजन भी मिल जाता था लेकिन अब सब खत्म हो रहा है।” तूफानी राम का मानना है कि बच्चों का अपना गांव उन्हें अपना लगता है। उन्हें जो सहजता अपनापन अपने गांव में मिलता है वो दूसरे गांव चलकर जाने में नहीं मिलता। छोटे बच्चों के लिए अपने गांव का स्कूल घर जैसा लगता है।

क्या कह रहे हैं विद्यार्थी  

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स्कूलों के विलय को लेकर फेमिनिज़म इन इंडिया ने कुछ छात्रों से भी बातचीत की। बच्चे गांव के स्कूलों के बंद होने की बात से उदास और परेशान दिखे। इस विषय पर पढ़ाई कर रही शिवानी कहती हैं, “हर बच्चे तक शिक्षा पहुंचे इसके लिए सरकार को स्कूलों को अधिक  सहज और उपयोगी बनाना था लेकिन सरकार स्कूलों को बच्चों से दूर कर रही है।” शिवानी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ती हैं और शहर के  आस-पास के स्लम के बच्चों को पढ़ाती हैं। स्कूलों के मर्ज होने की बात पर चिंता करते हुए वह कहती हैं, “शहर में स्कूल मर्ज करने का मतलब है उन गरीब बच्चों को शिक्षा से एकदम वंचित कर देना क्योंकि शहर में वैसे भी सरकारी स्कूल कम हैं। उस लिहाज से बच्चों की  जनसंख्या अधिक है। यहां वैसे भी सरकारी  स्कूल दूर ही है और बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जाते अगर स्कूलों को मर्ज किया जाता है तो और अधिक बच्चे निरक्षर रह जाएगें।”

शहर में स्कूल मर्ज करने का मतलब है उन गरीब बच्चों को शिक्षा से एकदम वंचित कर देना क्योंकि शहर में वैसे भी सरकारी स्कूल कम हैं। उस लिहाज से बच्चों की  जनसंख्या अधिक है। यहां वैसे भी सरकारी  स्कूल दूर ही है और बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जाते अगर स्कूलों को मर्ज किया जाता है तो और अधिक बच्चे निरक्षर रह जाएगें।

ग्राम प्रधान क्या कर रहे हैं पहल

गोरखपुर जिले के एक ग्राम प्रधान अमरीका यादव ने प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि उनके गांव के स्कूल को बंद न किया जाए। देखा जाए तो स्कूलों के विलय से सरकार के साथ-साथ सत्ताधारी लोगों के निजी शिक्षण संस्थानों को भी लाभ होगा क्योंकि स्कूल दूर हो जाने के कारण गरीब आदमी भी अपने बच्चों को किसी न किसी प्राइवेट स्कूल में डाल ही देगा। बेरोजगारी से जूझते समाज पर सरकार का यह फैसला किसी गाज से कम नहीं होगा। सरकार की अनदेखी की वजह से पहले से ही सरकारी स्कूल बदहाल स्थिति में थे, वहां पढ़ाई-लिखाई सही तरीके से नहीं हो पाता था। अब स्कूलों का अचानक बंद हो जाना गरीब बच्चों की शिक्षा पर सरकार का एक और प्रहार है।

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कोमल भारती उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले की रहने वाली हैं। कोमल एक निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ाती हैं, लेकिन वे स्कूलों के विलय के फैसले को सही नहीं मानतीं। वह कहती हैं, “बहुत खराब फैसला है। सरकार शिक्षा को सुधारने के बजाय उसे तहस-नहस करने पर तुली है। गांवों के स्कूलों में पहले ही शिक्षक नहीं हैं। ज़्यादातर स्कूलों में सिर्फ़ एक ही शिक्षक है, फिर भी सालों से कोई शिक्षक भर्ती नहीं की गई है। पहले यही लोग किसी सेवा को बर्बाद करते हैं और फिर उसे निजी हाथों में सौंप देते हैं, जहां जनता का शोषण होता है। माना कि कुछ शिक्षक लापरवाही करते हैं, लेकिन यह सब सरकार की नीयत का नतीजा है। अगर सरकार वाकई सुधार चाहती, तो एक दिन में व्यवस्था सुधार सकती थी। लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार को शिक्षा भी बेचना है, इसलिए वह इसे ठीक करने के बजाय इसे खत्म करने की दिशा में बढ़ रही है।”

बहुत खराब फैसला है। सरकार शिक्षा को सुधारने के बजाय उसे तहस-नहस करने पर तुली है। गांवों के स्कूलों में पहले ही शिक्षक नहीं हैं। ज़्यादातर स्कूलों में सिर्फ़ एक ही शिक्षक है, फिर भी सालों से कोई शिक्षक भर्ती नहीं की गई है।

स्कूलों के विलय को लेकर गरीब, मजदूर और किसान समुदाय में गहरी नाराज़गी है, जबकि विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग इसे बच्चों की कम संख्या के नाम पर जायज़ ठहराते हैं। लेकिन सवाल यह है कि बच्चों की संख्या कम क्यों है और इसकी ज़िम्मेदारी व्यवस्था पर क्यों नहीं डाली जाती? सत्ता में भागीदारी करने वाले लोग गरीब बच्चों की शिक्षा के प्रति उदासीन हैं। अगर उनके खुद के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ें, तो स्कूलों की हालत जल्द सुधर सकती है। सरकार चाहे तो शिक्षा व्यवस्था में सुधार मुमकिन है, लेकिन उसकी मंशा निजीकरण की ओर ज़्यादा दिखती है। क्या कम संख्या वाले बच्चों के पास शिक्षा का अधिकार नहीं है? शिक्षक संगठन विरोध तो कर रहे हैं लेकिन वे  इतने प्रभावी नहीं हैं और ज्यादातर संगठन  सरकार के साये में होते हैं।

अगर किसी स्कूल में 50 से कम बच्चे हैं, तो यह बच्चों की नहीं, व्यवस्था की विफलता है। सरकार उन स्कूलों को बंद कर रही है जिन्हें ठीक करने की ज़िम्मेदारी उसी की है। यह कदम शिक्षा के निजीकरण की ओर बढ़ता इशारा है, जिससे गरीब बच्चों की पहुंच शिक्षा से और दूर हो जाएगी। देश में पहले से ही शिक्षा और जागरूकता की कमी है, ऐसे में स्कूलों को मर्ज करना बेहद निराशाजनक है। सरकार का वादा था कि हर एक-डेढ़ किलोमीटर पर स्कूल खोले जाएंगे, लेकिन अब वे स्कूल बंद किए जा रहे हैं। मर्ज किए गए स्कूलों तक दूर-दराज के बच्चों का पहुँचना कठिन होगा। यह निर्णय विकसित भारत के सपने पर आघात है। कल्पना कीजिए, जब एक जुलाई को बच्चे स्कूल पहुंचे और वहां ताले लटके हों — यह किसी के भी दिल को दुखी कर सकता है।

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