भारत एक पुरुष प्रधान देश है यहां जब कोई महिला चुप रहती है,तो समाज की नज़रों में वह अच्छी बहु और बेटी बनी रहती है और जैसे ही वह अन्याय के खिलाफ बोलती है, उस पर सवाल खड़े कर दिए जाते हैं। ओडिशा के बालासोर की छात्रा ने अपने प्रोफेसर के कथित यौन हिंसा के विरोध के खिलाफ बोलने की हिम्मत की, उसने कॉलेज की आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) में अपनी शिकायत दर्ज की, लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई । एक शिक्षण संस्था जो लड़कियों के सपनों को उड़ान देने की जगह होनी चाहिए।
वह उनके लिए डर, हिंसा और अकेलेपन का स्थान बन गई। छात्रा ने संस्थान की अनदेखी के कारण कॉलेज कैंपस में ही आत्मदाह कर लिया, जिससे उसकी मौत हो गई। यह घटना केवल आत्मदाह से मौत की नहीं है। यह उस संस्थागत पितृसत्ता से जुडी हुई घटना है जिसमें सर्वाइवर को ही संदेह की नज़रों से देखा जाता है और आरोपी को सत्ता का संरक्षण मिल जाता है। यह घटना यह भी दिखाती है कि भारत की ज्यादातर महिलाएं आज भी न्याय की उम्मीद में अकेली हैं और कई बार उन्हें यह यकीन हो जाता है कि इस सिस्टम में उन्हें कुछ नहीं मिलेगा, सिवाय चुप्पी और शर्म के।
यह घटना केवल आत्मदाह से मौत की नहीं है। यह उस संस्थागत पितृसत्ता से जुडी हुई घटना है जिसमें सर्वाइवर को ही संदेह की नज़रों से देखा जाता है। यह घटना यह भी दिखाती है कि भारत की ज्यादातर महिलाएं आज भी न्याय की उम्मीद में अकेली हैं।
क्या है पूरा मामला

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक बीते दिनों ओडिशा के बालासोर के एक प्रमुख सरकारी कॉलेज की छात्रा ने अपने प्रोफेसर के कथित यौन हिंसा के विरोध में आत्मदाह कर ली, जिसके बाद सोमवार देर रात उनकी मौत हो गई। छात्रा ने अपने कॉलेज के प्रोफेसर के कथित यौन हिंसा करने के कारण कुछ दिन पहले संस्थान के अधिकारियों से शिकायत की थी कि वह मानसिक तनाव में है। छात्रा ने 1 जुलाई को अपनी शिकायत में आरोप लगाया कि आरोपी ने उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित किया और उसे कुछ विषयों में फेल करने और एक साल दोबारा परीक्षा देने की धमकी भी दी। छात्रा ने आरोप लगाया था कि जब से उसने यौन संबंध बनाने की उसकी मांग ठुकरा दी है, तब से आरोपी उन्हें परेशान कर रहा है। छात्रा को आश्वासन दिया गया था कि सात दिन में कार्रवाई की जाएगी, लेकिन कुछ नहीं हुआ।
एनडीटीवी के मुताबिक़, शिकायत की सुनवाई न होने के कारण शनिवार को छात्रा और कई अन्य छात्रों ने मिलकर कॉलेज के गेट के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। उसके साथी छात्रों ने बताया कि उसने प्रिंसिपल के कार्यालय के पास आत्मदाह कर लिया। सीसीटीवी फुटेज के अनुसार, छात्रों के एक समूह ने उसे बचाने की कोशिश की थी । छात्रा को पहले बालासोर जिला मुख्यालय अस्पताल ले जाया गया और बाद में शनिवार को 90 फीसदी से अधिक जलने की स्थिति में एम्स, भुवनेश्वर रेफर कर दिया गया था। विशेषज्ञों की एक टीम एम्स भुवनेश्वर की बर्न यूनिट में उनका इलाज कर रही थी।
ओडिशा के बालासोर के एक प्रमुख सरकारी कॉलेज की छात्रा ने अपने प्रोफेसर के कथित यौन हिंसा के विरोध में आत्मदाह कर ली, जिसके बाद सोमवार देर रात उनकी मौत हो गई।
शिकायत की अनदेखी और सत्ता का दुरुपयोग

भारतीय राष्ट्रीय बार एसोसिएशन के साल 2017 में 6,000 से ज़्यादा कर्मचारियों पर किए गए एक सर्वेक्षण जो भारत में अब तक का सबसे बड़ा सर्वेक्षण था उसमे पाया गया कि कथित यौन हिंसा विभिन्न नौकरी क्षेत्रों में व्याप्त है, जिसमें अश्लील टिप्पणियों से लेकर यौन संबंधों की सीधी मांग तक शामिल है। इसमें पाया गया कि ज़्यादातर महिलाओं ने बदले की कार्रवाई के डर, शर्मिंदगी, रिपोर्टिंग नीतियों के बारे में जागरूकता की कमी, या शिकायत प्रणाली में विश्वास की कमी के कारण प्रबंधन को यौन हिंसा की रिपोर्ट नहीं करने का विकल्प चुना। जब कोई लड़की कथित यौन हिंसा के खिलाफ शिकायत करती है, तो वह पहले ही बहुत डर और दबाव से गुजर चुकी होती है।
लेकिन जब उसकी शिकायत को नजरअंदाज किया जाता है, और आरोपी को बचाने की कोशिश होती है, तो यह सिर्फ लापरवाही नहीं, सत्ता और ताकत का दुरुपयोग है। ओडिशा की छात्रा के साथ भी यही हुआ। उसने अपने प्रोफेसर के खिलाफ शिकायत दर्ज की, लेकिन सात दिन बीतने के बाद भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। कॉलेज प्रशासन ने इस घटना के पहले आरोपी को न तो निलंबित किया, न ही छात्रा की मानसिक स्थिति की चिंता की। उल्टा, प्रिंसिपल ने उसे यह चेतावनी दी कि उसका आरोप सच नहीं निकला तो उसके खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है। जब कोई अधिकारी, शिक्षक या संस्थान अपने पद और अधिकार का इस्तेमाल सच्चाई को दबाने और सर्वाइवर को डराने के लिए करता है, तो वह सत्ता का दुरुपयोग कर रहा होता है। यह दुरुपयोग यह महसूस कराता है कि आरोपी की कुर्सी उसकी इंसानियत और सुरक्षा से बड़ी है।
जब कोई संस्थान कार्रवाई से कतराता है, तो वह भी उतना ही दोषी होता है जितना अपराध करने वाला व्यक्ति। ओडिशा की यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि जब तक हमारी संस्थाएं ताकतवरों के साथ खड़ी रहेंगी, तब तक शिकायतें इसी तरह कागज़ पर ही दम तोड़ती रहेंगी। यौन हिंसा की शिकायत करना ही काफी नहीं है असली मुश्किल तो उसके बाद शुरू होती है, जब संस्थान कोई कार्रवाई नहीं करते। कई बार जिन लोगों पर आरोप होते हैं, वे बड़े पदों पर होते हैं। ऐसे में सिस्टम सर्वाइवर की मदद करने के बजाय उसे ही चुप करा देता है। यह ताकत का गलत इस्तेमाल है जो शिकायतकर्ता को समाज से अलग कर देता है और कभी-कभी कानून भी उसकी मदद नहीं कर पाता है । ओडिशा की छात्रा का मामला इसी तरह की सिस्टम की नाकामी और सत्ता के दुरुपयोग का एक दुखद उदाहरण है।
उसने अपने प्रोफेसर के खिलाफ शिकायत दर्ज की, लेकिन सात दिन बीतने के बाद भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। कॉलेज प्रशासन ने इस घटना के पहले आरोपी को न तो निलंबित किया, न ही छात्रा की मानसिक स्थिति की चिंता की।
भारत में महिलाओं की स्थिति और कानूनी व्यवस्था तक पहुंच

भारत में महिलाओं की स्थिति आज भी असमानता और लैंगिक भेदभाव से भरी हुई है। चाहे वह घर हो, स्कूल हो या कार्यस्थल महिलाओं को भेदभाव का समना करना पड़ता है। कानून भले ही कहता हो कि सबको बराबर न्याय मिलेगा, लेकिन हकीकत ये है कि ज्यादातर महिलाएं कानूनी प्रक्रिया तक पहुंच ही नहीं पातीं हैं। इसका कारण सिर्फ जानकारी की कमी ही नहीं है, बल्कि सामाजिक डर, शर्मिंदगी, परिवार का दबाव, आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर होना और पुरुष-प्रधान संस्थाओं की अनदेखी का होना है। खासकर जब यौन हिंसा की बात होती है, तो महिलाएं सोचती हैं कि क्या उसे कोई सुनेगा भी?अगर शिकायत की तो उसे पढ़ाई या नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में छपी राष्ट्रीय महिला आयोग के एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक 46.58फीसद महिलाओं ने बताया कि उन्होंने कार्यस्थल पर कथित यौन हिंसा का सामना किया है।
लेकिन इनमें से सिर्फ 3.54फीसदी महिलाओं ने इसे अपने सीनियर या अधिकारियों को बताया, और केवल 1.4फीसदी ने पुलिस में शिकायत की। एक सर्वेक्षण में पाया गया कि लगभग 80 फीसदी महिलाएं यौन हिंसा के खिलाफ नीतियों के बारे में जानती हैं। हालांकि, लगभग 30 फीसदी महिलाएं अभी भी ऐसी घटनाओं के बारे में आईसीसी में शिकायत करने में झिझकती हैं। साल 2013 के पॉश अधिनियम (कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन हिंसा की रोकथाम, निषेध और निवारण अधिनियम)तक और अन्य महिला सुरक्षा कानूनों के बावजूद बहुत सी महिलाएं आज भी न्याय तक नहीं पहुंच पातीं। कथित यौन हिंसा के मामलों की जांच के लिए आंतरिक शिकायत समिति बनाना ज़रूरी है। लेकिन कई जगह ये समितियां या तो बनी ही नहीं होतीं या सिर्फ नाम के लिए होती हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक 46.58फीसद महिलाओं ने बताया कि उन्होंने कार्यस्थल पर कथित यौन हिंसा का सामना किया है। लेकिन इनमें से सिर्फ 3.54फीसदी महिलाओं ने इसे अपने सीनियर या अधिकारियों को बताया, और केवल 1.4फीसदी ने पुलिस में शिकायत की।
कई मामलों में, महिलाओं के पास हिंसा के कोई ठोस सबूत नहीं होते हैं, जिससे शिकायत दर्ज करना मुश्किल हो जाता है,और अगर कोई महिला शिकायत करती भी है, तो प्रक्रिया इतनी लंबी और मुश्किल होती है कि अदालतों में मामलों की सुनवाई सालों चलती है और पुलिस या संस्था की अनदेखी उस इंसान को और कमजोर बना देता है। यौन हिंसा का असर केवल शारीरिक नहीं होता यह एक मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव छोड़ता है। जब सर्वाइवर को बार-बार यह साबित करना पड़ता है कि उसके साथ सच में कुछ हुआ है, तो यह उसे बार-बार ट्रॉमा से गुजरने पर मजबूर करता है। भारत में मानसिक स्वास्थ्य को अभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाता, और कॉलेज जैसे संस्थानों में काउंसलिंग या मदद की व्यवस्था न होना, इस स्थिति को और भी खराब बनाता है।
संस्थागत सुधार की मांग

कॉलेजों और स्कूलों में आंतरिक शिकायत समितियों को केवल कागज़ी तौर पर न बनाकर संवेदनशील और आज़ाद रूप से बनाया जाना चाहिए ताकि किसी इंसान को शिकायत करने से पहले उसके परिणामों की चिंता न हो। संस्थानों में जेंडर सेंसिटाइजेशन ट्रेनिंग करवाई जानी चाहिए ताकि जागरूकता बढ़ सके। यौन हिंसा के मामलों की जांच की प्रक्रिया और परिणामों को (सर्वाइवर की पहचान छुपाकर) सार्वजनिक किया जाना चाहिए ताकि पारदर्शिता बनी रहे और संस्थाओं को जवाबदेह ठहराया जा सके। हर संस्थान में महिलाओं के लिए अलग से परामर्श और मानसिक स्वास्थ्य सहायता की व्यवस्था हो, जो किसी घटना के बाद तुरंत मदद कर सके।
ओडिशा की छात्रा की आत्मदाह से मौत हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमारे स्कूल-कॉलेज कितने असुरक्षित हो सकते हैं, खासकर तब जब कोई लड़की अपनी परेशानी बताने की कोशिश करती है। यह सिर्फ एक लड़की की मौत नहीं है, यह सिस्टम की नाकामी है एक ऐसा सिस्टम जो सर्वाइवर की मदद करने के बजाय उसे चुप करा देता है।अगर छात्रा की शिकायत को गंभीरता से लिया जाता, अगर उस पर भरोसा किया जाता, तो शायद वह आज ज़िंदा होती। लेकिन जब संस्थान आंखें मूंद लेते हैं और आरोपी को बचाते हैं, तो इसका परिणाम बहुत खतरनाक होता है। अब जरूरी है कि हम सिर्फ दुख जताकर चुप न रहें, बल्कि अपने स्कूलों, कॉलेजों और समाज को ऐसा बनाने की कोशिश करें जहां कोई भी लड़की बिना डरे अपनी बात कह सके और उसे इंसाफ मिल सके। हमें मिलकर ऐसा माहौल बनाना होगा, जहां डर नहीं, भरोसा और न्याय हो।

