नारीवाद मेरा फेमिनिस्ट जॉय: मेरी लेखनी, नारीवादी समझ और जीवन में बदलाव

मेरा फेमिनिस्ट जॉय: मेरी लेखनी, नारीवादी समझ और जीवन में बदलाव

मैं एक ऐसे इलाके से आती हूं जहां लड़कियों को आज़ादी मिलना आसान नहीं है। अगर कभी-कभार यह आज़ादी मिल भी जाए, तो वह पूरी तरह से अपनी नहीं होती। यहां आज़ादी कोई हक़ नहीं, बल्कि एक उधार की चीज़ है, जिसे किसी भी समय वापस लिया जा सकता है।

जब हम ‘आज़ादी’ की बात करते हैं, तो अक्सर यह मान लिया जाता है कि इसका मतलब सभी के लिए समान होता है। लेकिन सच्चाई यह है कि महिलाओं की आज़ादी आज भी एक सीमित, सशर्त और अक्सर उधार की गई चीज़ है — जिसे कभी भी, किसी भी समय छीन लिया जा सकता है। महिला की ‘एजेंसी’ यानी खुद अपने जीवन से जुड़े निर्णय लेने की स्वतंत्रता, अब भी समाज के ढांचे में एक असहज बात मानी जाती है। विशेषकर ग्रामीण या परंपरागत इलाकों में पितृसत्तात्मक सोच इतनी गहराई से जमी होती है कि वहां लड़कियों और महिलाओं की इच्छा, आकांक्षा और अधिकार को नजरअंदाज़ कर दिया जाता है।

मैं एक ऐसे इलाके से आती हूं जहां लड़कियों को आज़ादी मिलना आसान नहीं है। अगर कभी-कभार यह आज़ादी मिल भी जाए, तो वह पूरी तरह से अपनी नहीं होती। यहां आज़ादी कोई हक़ नहीं, बल्कि एक उधार की चीज़ है, जिसे किसी भी समय वापस लिया जा सकता है। बचपन से ही मैंने एक पितृसत्तात्मक घर का माहौल देखा। माँ को हमेशा पिता और घर के अन्य पुरुष सदस्यों के सामने सिर झुकाकर और हाथ जोड़कर बात करनी पड़ती थी। कई बार उन्हें ताने सहने पड़ते, अपमान का सामना करना पड़ता था। लेकिन उन्होंने कभी अपने अधिकारों के लिए आवाज़ नहीं उठाई। एक बच्ची के तौर पर यह सब देखना मेरे लिए बहुत तकलीफ़देह था। मन में कई सवाल उठते थे कि क्या औरत का सम्मान बस चुप रहने में ही है?

क्या उसकी चुप्पी को ही समाज उसकी अच्छाई मानता है? समय के साथ यह भी समझ में आया कि यह सिर्फ मेरे घर की कहानी नहीं है। हमारे समाज में आज भी हज़ारों-लाखों घरों में यही कहानी दोहराई जाती है। एक औरत की भूमिका सेवा, त्याग और समर्पण तक सीमित कर दी जाती है। उसकी भावनाओं, इच्छाओं और फैसलों को अहमियत नहीं दी जाती। यह पितृसत्ता केवल घर की चारदीवारी में नहीं, बल्कि हमारी सोच, संस्कृति और संस्थाओं में गहराई से बसी है। यह हर उस जगह मौजूद है  जहां औरतों से ‘कम बोलने’, ‘समझदारी से व्यवहार करने’ और ‘घर की इज़्ज़त बनाए रखने’ की उम्मीद की जाती है।

नारीवाद का मतलब और मेरी समझ

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

मैंने नारीवाद के बारे में सबसे पहले किताबों और अख़बारों में पढ़ा था। वहां इसे एक आंदोलन और बदलाव की लड़ाई के रूप में दिखाया गया था। पोस्टरों पर ऐसे नारे लिखे होते थे, जो औरतों के अधिकारों की बात करते थे। तब मुझे लगता था कि फेमिनिज़्म का मतलब है अपने हक के लिए लड़ना और शायद लड़कों का विरोध करना। लेकिन, मेरी सोच तब बदली जब मेरे भाई ने एक दिन कहा कि फेमिनिज़्म का मतलब लड़कों से नफ़रत करना नहीं है, बल्कि यह है कि लड़के और लड़कियों दोनों को बराबरी का हक़ मिलना चाहिए। उसकी यह बात मेरे दिल को छू गई। उसी दिन मुझे समझ आया कि असल में नारीवाद समानता की बात करता है। वह एक ऐसा समाज जहां हर लड़की को भी वही अधिकार मिले, जो लड़कों को मिलते हैं, उसे बनाने की बात करता है। अब मैं हर बात को इसी नजरिए से देखने की कोशिश करती हूं। नारीवाद मेरे लिए अब सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि सोचने और जीने का तरीका बन गया है।

मेरी हिंदी की शिक्षिका ने हमेशा मेरा हौंसला बढ़ाया। जब मैं नौवीं कक्षा में थी, तब स्कूल में एक निबंध प्रतियोगिता हुई। मैंने उसमें हिस्सा लिया और पहला स्थान प्राप्त किया। मंच से मेरा नाम पुकारा गया, तो मेरी शिक्षिका ने मुस्कुराकर कहा, “देखा, जब दिल से लिखती हो तो जीत पक्की होती है।”

भेदभाव का सामना और महिलाओं का जीवन

समाज का भेदभाव मेरे साथ बचपन से ही शुरू हो गया था। लोग मेरे रंग, कद-काठी और चलने-फिरने के तरीके पर तंज कसते थे। घर-परिवार और रिश्तेदार अक्सर ताना मारते कि “इतना पढ़-लिखकर क्या करेगी, अंत में तो चूल्हा-चौका ही संभालना है।” ऐसी बातें सुनकर मन टूटता था। लेकिन माँ हमेशा मेरा साथ देती थीं। वो कहतीं कि “तू पढ़ाई कर, ताकि अपने फैसले खुद ले सके। किसी के आगे झुकना न पड़े।” माँ की यही बातें मेरे लिए हौंसला बन गईं। धीरे-धीरे मुझे एहसास हुआ कि यह भेदभाव सिर्फ मेरे साथ नहीं है। हमारे समाज में हर उस लड़की को इन बातों से गुजरना पड़ता है जो सपने देखती है, जो अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती है। यहां लड़की होने का मतलब है कि शुरू से ही त्याग करो, चुप रहो और हर कदम पर हाशिये पर ढकेल दिया जाना।

लिखना मेरी ताकत और बराबरी की सोच मेरी राह

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

मेरी हिंदी की शिक्षिका ने हमेशा मेरा हौंसला बढ़ाया। जब मैं नौवीं कक्षा में थी, तब स्कूल में एक निबंध प्रतियोगिता हुई। मैंने उसमें हिस्सा लिया और पहला स्थान प्राप्त किया। मंच से मेरा नाम पुकारा गया, तो मेरी शिक्षिका ने मुस्कुराकर कहा, “देखा, जब दिल से लिखती हो तो जीत पक्की होती है।” उनकी वह मुस्कान और शब्द मेरे लिए हमेशा की ताकत बन गए। उसके बाद मैंने अपनी डायरी में लिखना शुरू किया। जब भी मैं कोई कविता या कहानी माँ को सुनाती, तो उनके चेहरे पर आई मुस्कान मुझे और लिखने की हिम्मत देती। मुझे धीरे-धीरे महसूस होने लगा कि लिखना मेरी अपनी एक शक्ति है।  एक ऐसी जगह, जहां मैं खुद को पूरी तरह व्यक्त कर सकती हूं।

जब मैं अपने पैसों से अपनी किताबें खरीदती हूं, तो लगता है जैसे मैंने अपने सपनों की ओर एक और कदम बढ़ा लिया है। मैं चाहती हूं कि हर लड़की यह महसूस करे कि वह अपने जीवन में बदलाव ला सकती है।

पहले मुझे लगता था कि नारीवाद सिर्फ बड़े नारों या मंचों तक सीमित है। लेकिन समय के साथ मैंने जाना कि इसकी असली ताकत हमारी रोज़मर्रा की छोटी-छोटी जीतों में होती है। जब मैं अपनी बात बिना डरे रख पाती हूं। किसी प्रतियोगिता में जीत हासिल करती हूं, या किसी की पढ़ाई में मदद करती हूं, तो लगता है कि ये भी नारीवाद है और मेरी ख़ुशी नारीवादी ख़ुशी। बराबरी वहीं से शुरू होती है, जहां हम अपनी पहचान खुद बनाने लगते हैं। अब मुझे लगता है कि नारीवाद सिर्फ लड़कियों के लिए नहीं है, बल्कि हर उस सोच और व्यक्ति के लिए है, जो बराबरी और न्याय में विश्वास करता है। हर वह कदम, जो मुझे थोड़ा और मजबूत बनाता है, वही मेरे लिए नारीवाद है।

मेरा सपना है कि एक दिन मैं ऐसी मिसाल बनूं, जो और लड़कियों को अपने पैरों पर खड़े होने की हिम्मत दे। मेरे लिए नारीवाद तब पूरा होता है, जब कोई लड़की मुझसे कहती है कि “दीदी, अब मुझे भी भरोसा है कि मैं कुछ बन सकती हूं।” जब मैं अपने पैसों से अपनी किताबें खरीदती हूं, तो लगता है जैसे मैंने अपने सपनों की ओर एक और कदम बढ़ा लिया है। मैं चाहती हूं कि हर लड़की यह महसूस करे कि वह अपने जीवन में बदलाव ला सकती है। मेरे लिए नारीवाद का मतलब है कि जब हम बिना डरे, बिना रुके, अपनी राह खुद तय करें और अपनी हर छोटी-सी जीत पर गर्व महसूस करें। अपने आसपास सकारात्मक बदलाव ला पाना और उन लोगों में और घटनाओं में खुशियां ढूंढ लेना यही मेरा सफर है, और यही मेरा नारीवादी ख़ुशी।

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