समाजकानून और नीति गुजरात सरकार का नया श्रम कानून: बढ़े काम के घंटे और महिलाओं को नाइट शिफ्ट की अनुमति समानता या शोषण?

गुजरात सरकार का नया श्रम कानून: बढ़े काम के घंटे और महिलाओं को नाइट शिफ्ट की अनुमति समानता या शोषण?

हाल ही में गुजरात सरकार ने एक फैसला जारी किया है, जिसमें फैक्ट्रियों में काम के घंटे बढ़ाने और महिलाओं को रात की शिफ्ट में काम करने की अनुमति देने का प्रावधान शामिल है।

जब सरकार श्रम सुधारों के नाम पर कानूनों में बदलाव करती हैं, तो अक्सर उस सुधार की असली  कीमत हाशिए पर रह रहे लोगों को चुकानी पड़ती है। हाल ही में गुजरात सरकार ने एक फैसला जारी किया है, जिसमें फैक्ट्रियों में काम के घंटे बढ़ाने और महिलाओं को रात की शिफ्ट में काम करने की अनुमति देने का प्रावधान शामिल है। सरकार का कहना है कि इस से महिलाओं को बराबरी के मौके मिलेंगे और काम के नए रास्ते खुलेंगे लेकिन क्या असल में यह बदलाव महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में है? भारत जैसे देश में जहां पितृसत्तात्मक समाज में जाति, वर्ग और जेंडर की गहरी असमानताएं हैं, वहां महिलाओं के लिए काम की जगह से लेकर सड़क तक सुरक्षित और सम्मानजनक माहौल की कमी है।

 ऐसे में जब सरकार रात की शिफ्ट में महिलाओं को काम करने की इजाज़त देती है, तो कई सवाल उठते हैं। क्या महिलाओं की सुरक्षा के लिए पक्की व्यवस्था की गई है? क्या लंबे काम के घंटे उनके घरेलू और मानसिक बोझ को घटाएंगे या और बढ़ा देंगे? क्या यह सशक्तिकरण का दावा केवल आंकड़ों और उत्पादन बढ़ाने तक सीमित है या फिर असल में यह महिलाओं के जीवन में नया बदलाव लाने का प्रयास है। सरकार का दावा है कि इससे उद्योगों को लचीलापन मिलेगा और मज़दूरों को ओवरटाइम का लाभ भी मिलेगा। लेकिन श्रमिक संगठनों और अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह मज़दूरों के स्वास्थ्य और अधिकारों के खिलाफ है।

हाल ही में गुजरात सरकार ने एक फैसला जारी किया है, जिसमें फैक्ट्रियों में काम के घंटे बढ़ाने और महिलाओं को रात की शिफ्ट में काम करने की अनुमति देने का प्रावधान शामिल है।

क्या है पूरा मामला 

तस्वीर साभार : Benefit News

द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक बीते दिनों गुजरात सरकार ने कारखाना अधिनियम, 1948 में बदलाव करते हुए एक नया कानून लागू किया है, जिसे कारखाना (गुजरात संशोधन) अध्यादेश, 2025 कहा गया है। राज्य सरकार के श्रम, कौशल विकास और रोजगार विभाग ने यह अध्यादेश 1 जुलाई को जारी किया। इसमें कहा गया है कि यह कदम कारखानों की आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने, निवेश आकर्षित करने और रोजगार के नए अवसर पैदा करने के उद्देश्य से जारी किया गया है। इसी के तहत अब अधिकतम काम करने की समय सीमा को 9 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि मजदूरों को हफ्ते में 48 घंटे ही काम करना होगा। ओवरटाइम की लिमिट को बढ़ाकर 75 घंटों से 125 घंटे किया गया है। हालांकि, इसके लिए कर्मचारियों की लिखित इजाजत लेना जरूरी होगा।

 साथ ही गुजरात सरकार ने महिलाओं को शाम 7 बजे से सुबह 6 बजे तक नाइट शिफ्ट करने की अनुमति दी है। लेकिन इसके लिए फैक्ट्रियों या कारखानों में  कुछ अहम शर्तों और सुरक्षा इंतजामों का पालन जरूरी होगा। इनमें यौन हिंसा से बचाव के लिए रोकथाम और आवश्यक उपाय शामिल हैं, कार्यस्थल और उसके आसपास लाइट की व्यवस्था और सीसीटीवी कवरेज, हर शिफ्ट में 10 महिला कर्मचारियों का समूह होना जरुरी है, महिला सुरक्षाकर्मियों की तैनाती और सुरक्षित परिवहन की सुविधा शामिल है। जो महिलाएं नाइट शिफ्ट में काम करने में रुचि रखती हैं, उनसे लिखित सहमति ली जाएगी। सरकार ने सुरक्षा उपायों का ज़िक्र तो किया है, लेकिन क्या इनका ईमानदारी से पालन होगा?

गुजरात सरकार ने महिलाओं को शाम 7 बजे से सुबह 6 बजे तक नाइट शिफ्ट करने की अनुमति दी है। लेकिन इसके लिए फैक्ट्रियों या कारखानों में  कुछ अहम शर्तों और सुरक्षा इंतजामों का पालन जरूरी होगा।

समानता का ढोंग या सशक्तिकरण?

तस्वीर साभार : Sights In Plus

गुजरात सरकार द्वारा महिलाओं को नाइट शिफ्ट में काम करने की अनुमति देना और फैक्ट्रियों में काम के घंटे 9 से बढ़ाकर 12 करना पहली नज़र में लैंगिक समानता की ओर उठाया गया कदम लग सकता है। सरकार का कहना है कि इससे महिलाओं को भी पुरुषों की तरह काम करने का अवसर मिलेगा और वे आर्थिक रूप से अधिक सशक्त बनेंगी। कानून कहता है कि महिलाओं को रात की शिफ्ट में काम करने के लिए लिखित सहमति देनी होगी। लेकिन इसे नारीवादी तरिके से देखना बहुत ज़रूरी है क्योंकि फैक्ट्रियों में काम करने वाली ज़्यादातर महिलाएं गरीब और निम्न वर्ग से आती हैं जो अक्सर परिवार के आर्थिक दबाव या नौकरी न खोने के डर से सहमति देती हैं जो असल में सहमति नहीं होती। ऐसे में यह सवाल खड़ा होता है कि क्या वह सहमति मजबूरी में दी गई है या सोच समझकर चुनी गई है? भारत में बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं पहले से ही दोहरी ज़िम्मेदारी का बोझ उठा रही हैं।

 वे घर के सारे काम करती हैं खाना बनाना, बच्चों की देखभाल, सफाई, बुजुर्गों की सेवा और साथ ही आर्थिक ज़रूरतों के लिए नौकरी भी करती हैं। 2024 टाइम यूज़ सर्वे बताता है कि महिलाएं हर दिन 289 मिनट घरेलू कामों और 137 मिनट देखभाल में बिताती हैं, जबकि पुरुष 88 और 75 मिनट ही देते हैं। अक्सर कहा जाता है कि जो महिलाएं नौकरी करती हैं, वे अब सशक्त हो गई हैं और समाज में बराबरी पा चुकी हैं। लेकिन असली तस्वीर इससे बहुत अलग है। काम से लौटने के बाद भी ज्यादातर महिलाओं को घर के सारे काम करने पड़ते हैं। ऐसे में काम के घंटे बढ़ना महिलाओं के लिए और ज़्यादा तनावपूर्ण हो सकता है। उनके मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल सकता है। यह महिलाओं को सशक्त करने के बजाय उन्हें पूंजीवादी उत्पादकता का औजार बना देगा। समानता का मतलब सिर्फ़ बराबरी से काम करना नहीं होता, बल्कि बराबरी के मौके देना होता है। काम के घंटे बढ़ने से मजदूरों के लिए यह काफी चुनौतीपूर्ण फैसला सावित हो सकता है क्योंकि इससे उन्हें आराम करने का भी समय नहीं मिल पायेगा।

इसी के तहत अब अधिकतम काम करने की समय सीमा को 9 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि मजदूरों को हफ्ते में 48 घंटे ही काम करना होगा। ओवरटाइम की लिमिट को बढ़ाकर 75 घंटों से 125 घंटे किया गया है।

पहले रोक, अब इजाज़त क्या इससे सच में बदलाव आएगा ?

तस्वीर साभार : The Print

भारत एक पितृसत्तात्मक देश है जहां अक्सर महिलाओं को पुरुषों की तुलना में किसी अबसर तक पहुंचने के लिए कई कठिनाईओं से होकर गुजरना पड़ता है।  बहन बॉक्स में छपे एक लेख के मुताबिक कारखाना अधिनियम, 1948 में महिलाओं के काम करने पर कई प्रतिबंध लगाए गए हैं, जैसे रात में काम करने की मनाही, खतरनाक प्रक्रियाओं से दूर रहना और शारीरिक रूप से कठिन माने जाने वाले कामों से बचना है । उदाहरण के लिए, बिहार में मिट्टी के बर्तन बनाने वाली इकाइयों में महिलाओं को काम पर रखने पर रोक है, जबकि पश्चिम बंगाल में वे जूट और रेशे को मुलायम बनाने वाली मशीनों पर काम नहीं कर सकतीं। मध्य प्रदेश में महिलाओं को पत्थर काटने और स्लेट पेंसिल बनाने वाली मशीनों से दूर रखा जाता है। चौंकाने वाली बात यह है कि महिला-प्रधान क्षेत्रों जैसे बागानों में भी ये प्रतिबंध मौजूद हैं। शोध बताता है कि बागानों में 50 फीसद  से ज़्यादा महिलाएं कार्यबल का हिस्सा हैं, फिर भी तमिलनाडु और त्रिपुरा जैसे राज्यों में कानून उन्हें खतरनाक मानकर इन क्षेत्रों से बाहर कर देते हैं। ऐसे प्रतिबंध महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर बनाए गए हैं। 

लेकिन अब महिलाओं को रात की शिफ्ट में काम करने की अनुमति मिल गयी है। पहले जिन क्षेत्रों में महिलाओं को प्रवेश नहीं मिल रहा था, अब वहां भी वे शामिल हो सकेंगी जैसे फैक्ट्रियों में रात को मशीन-आधारित काम करना आदि । इससे महिलाओं के पास आर्थिक आत्मनिर्भरता का एक नया रास्ता खुलेगा। अगर ये फैसले सिर्फ़ उत्पादन बढ़ाने के लिए लिए गए हैं और महिलाओं पर अतिरिक्त काम का दबाव डाला जाता है तो इससे उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है। भारत में पहले ही कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए पॉश अधिनियम (यौन उत्पीड़न की रोकथाम) जैसे कानूनों का सही ढंग से पालन नहीं होता। ऐसे में, क्या इन नए सुरक्षा प्रावधानों पर भरोसा किया जा सकता है? अब अगर नाइट शिफ्ट और जोखिम वाले कामों में उन्हें लगाया जाता है, तो यौन हिंसा, मानसिक हिंसा और असमान व्यवहार का खतरा भी बढ़ सकता है। अगर महिलाओं को केवल इसीलिए चुनिंदा कामों की अनुमति दी जा रही है ताकि उत्पादन और लाभ बढ़े, तो यह बदलाव समानता नहीं बल्कि पूंजीवाद को बढ़ावा देने वाला एक कारण बन सकता है।  

कारखाना अधिनियम, 1948 में महिलाओं के काम करने पर कई प्रतिबंध लगाए गए हैं, जैसे रात में काम करने की मनाही, खतरनाक प्रक्रियाओं से दूर रहना और शारीरिक रूप से कठिन माने जाने वाले कामों से बचना है ।

क्या हो सकता है समाधान

तस्वीर साभार : Swarajya

समानता और सशक्तिकरण के नाम पर किए गए नीतिगत बदलावों को ज़मीनी सच्चाई से जोड़ा जाए। सरकार को चाहिए कि वह सिर्फ कानून बनाने तक सीमित न रहे, बल्कि सुरक्षा, स्वास्थ्य, पारदर्शी सहमति और काम के संतुलन जैसे बुनियादी ज़रूरतों पर ठोस ढांचा तैयार करे। फैक्ट्रियों में पॉश कानून का सख्ती से पालन, महिला कर्मचारियों के लिए सुरक्षित परिवहन, स्वास्थ्य सुविधाएं, क्रेच, और मानसिक स्वास्थ्य सहायता जैसे उपाय अनिवार्य बनाए जाएं। साथ ही, यह सुनिश्चित किया जाए कि कोई भी महिला दबाव या डर के कारण नाइट शिफ्ट का विकल्प न चुने। क्योंकि जब तक महिलाओं को समान अवसरों के साथ समान सुरक्षा और समर्थन नहीं मिलेगा, तब तक यह बदलाव अधूरा और असंतुलित रहेगा।

गुजरात सरकार की  महिलाओं को नाइट शिफ्ट में काम करने की अनुमति और फैक्ट्रियों में काम के घंटे बढ़ाने का फैसला दिखने में तो लैंगिक समानता और आर्थिक सशक्तिकरण की ओर एक प्रगतिशील कदम लगता है, लेकिन इसकी ज़मीनी हकीकत कहीं ज़्यादा कठिन और चिंताजनक है। भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाज में, जहां महिलाओं को पहले से ही दोहरी जिम्मेदारियों और असुरक्षित कार्यस्थलों से जूझना पड़ता है, वहां इस तरह के फैसले उनकी स्थिति को बेहतर बनाने के बजाय और अधिक खराब  बना सकते हैं। अगर इन नीतियों के पीछे असली कारण महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना है, तो केवल काम के घंटे बढ़ाना या शिफ्ट बदलना काफी नहीं है सुरक्षा, स्वास्थ्य, सम्मानजनक माहौल और सहमति जैसे पहलुओं पर गंभीरता से काम करना जरूरी है। वरना यह सुधार नहीं, बल्कि महिलाओं के श्रम का शोषण और पूंजीवादी लाभ का एक माध्यम बन जाएगा।

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