समाजकैंपस कैंपस में भाषागत भेदभाव: जब शिक्षा में श्रेष्ठता सिर्फ अंग्रेज़ी जानने से तय होने लगे

कैंपस में भाषागत भेदभाव: जब शिक्षा में श्रेष्ठता सिर्फ अंग्रेज़ी जानने से तय होने लगे

भाषा आधारित भेदभाव  सिर्फ शब्दों की बात नहीं है यह हर एक इंसान की पहचान, अवसर, और सम्मान से जुड़ी हुई बात है। जब किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए कमतर आंका जाए क्योंकि वह अंग्रेज़ी नहीं बोल सकता या शुद्ध हिंदी नहीं बोलता, तो यह उस व्यक्ति की पूरी क्षमता, आत्मसम्मान और सामाजिक भागीदारी पर असर डालता है।

भारत के कॉलेज और विश्वविद्यालयों को अक्सर ऐसा बताया जाता है कि वहां सबके लिए बराबरी और अच्छी शिक्षा मिलती है। लेकिन ये बात तब गलत लगने लगती है, जब इन्हीं जगहों पर भाषा को लेकर भेदभाव दिखने लगता है। खासकर उन लड़कियों के लिए जो छोटे शहरों, गांवों या हिंदी माध्यम के स्कूलों से पढ़कर आती हैं, उनके लिए कॉलेज एक नए और अनजान अनुभव की शुरुआत होता है। उनके लिए कॉलेज जाना आत्मनिर्भर बनने का रास्ता नहीं बनता, बल्कि कई बार उन्हें खुद पर शक होने लगता लगता है। 

जहां पर आत्मविश्वास को बढ़ाने और कुछ सीखने के लिए जाना चाहते हैं वहां हिंदी भाषा में बोलने का आत्मविश्वास कहीं खो सा जाता है। कॉलेज के क्लासरूम, सेमिनार, समाज, और यहां तक कि दोस्ती के दायरे भी कभी-कभी अंग्रेज़ी के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। ऐसे माहौल में हिंदी या किसी अन्य स्थानीय भाषा में बात करने पर कई छात्राओं को यह महसूस कराया जाता है कि वे कमज़ोर हैं या कम पढ़े – लिखे हैं। धीरे-धीरे यह अनुभव सिर्फ भाषा तक सीमित नहीं रहता यह उनके आत्मसम्मान और अवसरों को प्रभावित करने का एक कारण बन जाता है।  

कॉलेज के क्लासरूम, सेमिनार, समाज, और यहां तक कि दोस्ती के दायरे भी कभी-कभी अंग्रेज़ी के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। ऐसे माहौल में हिंदी या किसी अन्य स्थानीय भाषा में बात करने पर कई छात्राओं को यह महसूस कराया जाता है कि वे कमज़ोर हैं या कम पढ़े – लिखे हैं।


कॉलेज का पहला दिन और आत्मविश्वास का टूटना


भारत में अंग्रेज़ी को सफलता की भाषा के रूप में जिस तरह प्रस्तुत किया जाता है, उससे कॉलेज के परिसर भी अछूते नहीं हैं। भाषा सिर्फ बात करने  का माध्यम नहीं है, बल्कि पहचान और अभिव्यक्ति का भी ज़रिया है। मुझे आज भी याद है जब मैं स्कूल में थी, तो टीवी और फिल्मों में कॉलेज की दुनिया देखकर लगता था कि कब स्कूल खत्म होगा और मैं भी कॉलेज जाऊंगी। 12वीं की परीक्षा देते वक्त सुना था कि दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन के लिए अच्छे नंबर चाहिए, और तभी से मन में ठान लिया था कि कॉलेज जाना ही है। काफी मेहनत के बाद जब एडमिशन मिला, तो पहले दिन का जोश अलग ही था। 

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

क्लास में सभी का परिचय हो रहा था। मैं उत्साहित थी, लेकिन जैसे ही बाकी सभी ने अंग्रेज़ी में बोलना शुरू किया और मैं कुछ लाइनें अंग्रेज़ी में बोलकर हिंदी में आ गई, तो मुझे महसूस हुआ कि लोग मेरी तरफ देखकर हंस रहे हैं। उस पल मेरा आत्मविश्वास जैसे टूट-सा गया। लगा कि मैंने कुछ गलत कर दिया हो। दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं और डर था कि बोलते-बोलते कहीं रो न पड़ूं। लेकिन ये अनुभव सिर्फ मेरा नहीं है। देशभर में हजारों छात्राएं, जो अंग्रेज़ी में सहज नहीं हैं, उन्हें कॉलेजों में भाषा के कारण रोज़ असहजता, भेदभाव और आत्म-संदेह का सामना करना पड़ता है। यह भेदभाव सिर्फ पढ़ाई तक सीमित नहीं होता यह आत्म-सम्मान, अवसर और रिश्तों पर भी असर डालता है। 

क्लास में सभी का परिचय हो रहा था। मैं उत्साहित थी, लेकिन जैसे ही बाकी सभी ने अंग्रेज़ी में बोलना शुरू किया और मैं कुछ लाइनें अंग्रेज़ी में बोलकर हिंदी में आ गई, तो मुझे महसूस हुआ कि लोग मेरी तरफ देखकर हंस रहे हैं। उस पल मेरा आत्मविश्वास जैसे टूट-सा गया। लगा कि मैंने कुछ गलत कर दिया हो।

भाषा आधारित भेदभाव सिर्फ शब्दों की बात नहीं है

 तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

भाषा आधारित भेदभाव  सिर्फ शब्दों की बात नहीं है यह हर एक इंसान की पहचान, अवसर, और सम्मान से जुड़ी हुई बात है। जब किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए कमतर आंका जाए क्योंकि वह अंग्रेज़ी नहीं बोल सकता या शुद्ध हिंदी नहीं बोलता, तो यह उस व्यक्ति की पूरी क्षमता, आत्मसम्मान और सामाजिक भागीदारी पर असर डालता है। “मेरी एक दोस्त, जो संगीत में बेहद प्रतिभाशाली थी सिर्फ़ इसलिए कॉलेज की सिंगिंग सोसाइटी में जगह नहीं बना पाई, क्योंकि उसका परिचय अंग्रेज़ी में सही नहीं था।” साल 2023 में  रीसर्च गेट  में छपे एक अध्ययन में दिल्ली की तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों जेएनयू, दिल्ली यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों के अनुभवों को समझा गया है। यह अध्ययन बताता है कि हिंदी माध्यम से आए छात्र–छात्राएं कॉलेज में आत्मविश्वास की कमी, सामाजिक अलगाव और भाषा आधारित भेदभाव का सामना करते हैं। कई छात्र सिर्फ़ अंग्रेज़ी में सहज न होने के कारण, महत्वपूर्ण शैक्षणिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले पाते हैं।

स्क्रॉल इन  के मुताबिक, मुंबई की एक शोध संस्था पुकार ने यह अध्ययन किया कि इंग्लिश मीडियम कॉलेजों में पढ़ने वाले हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाई पृष्ठभूमि से आए छात्रों का अनुभव कैसा होता है। इस शोध में बहुत से छत्रों  के अनुभव शामिल हैं, कई छात्रों का कहना था कि जिन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा हिंदी, मराठी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में की होती है, उन्हें कॉलेज में अंग्रेज़ी न आने के कारण शर्म और झिझक का सामना करना पड़ता है। जब अंग्रेज़ी माध्यम के छात्र बोलने में गलतियां  करते हैं, तो इसे कोई बड़ी बात नहीं माना जाता। लेकिन जब हममें से कोई कुछ गलत उच्चारण करता है, तो हमेशा कुछ लोग होते हैं जो हमारा मज़ाक उड़ाते हैं।

अध्ययन बताता है कि हिंदी माध्यम से आए छात्र–छात्राएं कॉलेज में आत्मविश्वास की कमी, सामाजिक अलगाव और भाषा आधारित भेदभाव का सामना करते हैं। कई छात्र सिर्फ़ अंग्रेज़ी में सहज न होने के कारण, महत्वपूर्ण शैक्षणिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले पाते हैं।

सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव

तस्वीर साभारः Sroll.in

भाषा व्यक्ति की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का आधार होती है। शहरी कॉलेजों में अंग्रेज़ी बोलने वालों को अधिक स्मार्ट, सक्षम और प्रगतिशील माना जाता है। जब किसी छात्र को भाषा के आधार पर नकारा जाता है तो उस पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। बहुत से छात्र तो पढ़ाई तक छोड़ देते हैं। इससे लड़कियों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है क्योंकि हमारे समाज में किसी लड़की का पढ़ाई के लिए घर से बाहर जाना  इतना आसान नहीं होता है। लड़कियों के साथ ऐसा होता है, तो वे न केवल अपनी कक्षा में बोलने से हिचकिचाती हैं, बल्कि कई बार छात्र संगठनों, सांस्कृतिक गतिविधियों या नेतृत्व के अवसरों से भी खुद को दूर रखती हैं। कई मामलों में, उनके परिवार यह मान लेते हैं कि लड़की एडजस्ट नहीं कर पा रही है और उसे वापस बुला लिया जाता है। द प्रिंट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, आईआईटी जैसे संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव सीधा नहीं, बल्कि छुपा हुआ और प्रणालीगत होता है।

आरक्षित वर्ग के ज़्यादातर छात्र गैर-अंग्रेज़ी माध्यम से आते हैं, लेकिन संस्थान उनकी भाषाई ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करते हैं। इससे उन्हें पढ़ाई और सामाजिक माहौल में मुश्किलें होती हैं।  इससे छत्रों को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। साल 2023 की मत्स्य विज्ञान सर्वेक्षण शोध-पत्रिका के मुताबिक भाषा‑आधारित चिंता न केवल छात्रों के आत्मविश्वास पर असर डालती है, बल्कि उनके शैक्षणिक प्रदर्शन, सामाजिक भागीदारी और मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डालती है। मीडियम पत्रिका के मुताबिक, साल 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 35फीसद कॉलेज के छात्र अपने बोलने के तरीके को लेकर सोच में रहते हैं । 33फीसद को डर था कि उनका यह बोलने का तरीका कॉलेज के बाद उनकी नौकरी या करियर पर असर डाल सकता है। और 30फीसदी छात्रों ने बताया कि कॉलेज के दौरान उनका मज़ाक इसलिए उड़ाया गया क्योंकि उनका उच्चारण अलग था। इन आंकड़ों से साफ़ दिखाई देता है कि किस तरह भाषा आधारित भेदभाव सांस्कृतिक रूप से किसी इंसान को कैसे प्रभावित करता है। 

35 फीसद कॉलेज के छात्र अपने बोलने के तरीके को लेकर सोच में रहते हैं । 33 फीसद को डर था कि उनका यह बोलने का तरीका कॉलेज के बाद उनकी नौकरी या करियर पर असर डाल सकता है। और 30फीसदी छात्रों ने बताया कि कॉलेज के दौरान उनका मज़ाक इसलिए उड़ाया गया क्योंकि उनका उच्चारण अलग था।

भविष्य की राह, नीतियां, सुझाव और ज़रूरी बदलाव

तस्वीर साभार: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

संसद की एक स्थायी समिति ने 2022 में यह सुझाव दिया था कि तकनीकी और गैर-तकनीकी कॉलेजों में पढ़ाई का माध्यम हिंदी और अन्य स्थानीय भाषाएं भी होनी चाहिए, ताकि छात्रों को बेहतर समझ और आत्मविश्वास मिल सके। यह प्रस्ताव इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है, जो बहुभाषी भारत के छात्रों को समान अवसर प्रदान करने की कोशिश करता है। शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों और शिक्षकों के लिए भाषाई समावेशिता पर ट्रेनिंग होनी चाहिए। जिससे सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा मिल सके और भेदभाव की संभावना कम हो।

 लड़कियों और जेंडर आधारित या हाशिये पर रहे समुदाय के समूहों के लिए विशेष वर्कशॉप्स आयोजित हों जो न सिर्फ आत्मविश्वास को बढ़ाएं, बल्कि उन्हें नेतृत्व के अवसरों के लिए तैयार करें। भाषा के कारण होने वाली चिंता, अकेलापन या आत्म-संदेह को पहचानने के लिए काउंसलिंग सिस्टम को और मज़बूत किया जाए। क्योंकि भाषाई भेदभाव मानसिक स्वास्थ्य का भी मसला है। कॉलेजों में भाषा आधारित भेदभाव की निगरानी और उसके खिलाफ सख्त नीतियां बनाई जानी चाहिए। जहां छात्र अपनी शिकायतें दर्ज करा सकें 

संसद की एक स्थायी समिति ने 2022 में यह सुझाव दिया था कि तकनीकी और गैर-तकनीकी कॉलेजों में पढ़ाई का माध्यम हिंदी और अन्य स्थानीय भाषाएं भी होनी चाहिए, ताकि छात्रों को बेहतर समझ और आत्मविश्वास मिल सके।

नारीवादी दृष्टिकोण से भाषागत न्याय 

भाषा को जाति, वर्ग, जेंडर और क्षेत्र के आधार पर देखना बेहद ज़रूरी है। भाषा सिर्फ बात करने का एक तरीका है, इसे किसी की काबिलियत को परखने का तरीका नहीं बनाना चाहिए। कॉलेज और यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों को ऐसा माहौल बनाना चाहिए जहां  हर छात्रा को उसकी भाषा नहीं, बल्कि उसकी सोच और मेहनत से पहचाना जाए। जरूरी है कि हम ये समझें कि भाषा के आधार पर जो भेदभाव होता है, वो गलत है और उसे खत्म करना होगा। हमारी शिक्षा और कॉलेज का माहौल ऐसा होना चाहिए जो हर भाषा का सम्मान करे। जो छात्र अंग्रेज़ी में सहज नहीं हैं, उनके लिए मदद और उन्हें समझने की ज़रूरत है, ना कि मजाक की। भाषा के आधार पर भेदभाव को रोकना केवल शैक्षिक न्याय नहीं, नारीवादी न्याय भी है। क्योंकि जब एक लड़की अपनी भाषा में बोलने से डरती है, तो उसकी आवाज़ ही नहीं, उसका अस्तित्व भी सीमित किया जाता है।

कॉलेज और विश्वविद्यालय सभी के लिए समान अवसरों की जगह होने चाहिए, लेकिन जब वहां अंग्रेज़ी को ही सफलता की भाषा मान लिया जाता है, तो हिंदी या अन्य स्थानीय भाषाओं से आने वाले छात्रों को भेदभाव और असुरक्षा का सामना करना पड़ता है। यह भेदभाव खासकर लड़कियों के लिए और भी मुश्किलें खड़ी करता है, क्योंकि वे पहले से ही कई सामाजिक सीमाओं का सामना कर रही होती हैं। भाषा के कारण आत्मविश्वास टूटना, अवसरों से वंचित होना और मानसिक तनाव झेलना किसी भी छात्रा के विकास में बड़ी बाधा बन सकता है। इसलिए ज़रूरी है कि कॉलेजों में सभी भाषाओं का सम्मान हो, विद्यार्थियों के आत्मसम्मान की रक्षा हो और ऐसी नीतियां  बनें जो भाषाई समावेशिता को बढ़ावा दें। भाषा के आधार पर भेदभाव को खत्म करना सिर्फ शिक्षा का नहीं, बल्कि समानता का सवाल भी है।

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