शैक्षणिक संस्थान विचार-विमर्श के संगम स्थान होते हैं, जहां देश के विभिन्न राज्यों से लोग शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। यहां हम एक-दूसरे के धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाज, खान-पान और भाषा को जानने-समझने को लेकर उत्साहित होते हैं। आदर्श स्थिति में शैक्षणिक संस्थान पढ़ने, समझने और हर विषय पर चर्चा करने की एक आज़ाद जगह प्रदान करते हैं, जहां हमें भाषा, विज्ञान, कला और साहित्य की समझ बढ़ाने का अवसर और संसाधन मिलते हैं। लेकिन वर्तमान समय में देखा जा रहा है कि शैक्षिक संस्थानों से विचार-विमर्श और अकादमिक वातावरण पर एक विशेष नीति या विचारधारा हावी हो रही है। भारतीय इतिहास में जाएं तो विद्यार्थी हमेशा सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को लेकर सक्रिय रहे हैं। वे न केवल अपने विचार खुलकर रखते हैं बल्कि उनकी आलोचना करने में भी संकोच नहीं करते। पर बीते कुछ सालों में यह जगह धीरे-धीरे कम किया जा रहा है। शैक्षणिक संस्थानों में होने वाले प्रदर्शन भारतीय राजनीति में हमेशा से अहम भूमिका निभाते रहे हैं। लेकिन, अब ऐसा महसूस हो रहा है कि इन संस्थानों का मूल स्वरूप बदल रहा है, जो चिंता का विषय है।
आज देश में मौजूदा राजनीतिक माहौल का असर शिक्षण संस्थानों पर साफ़ दिख रहा है। पहले भी संस्थानों में धार्मिक गतिविधियां होती थीं, पर वह उत्सव और सांस्कृतिक गतिविधि, मेल-जोल तक सीमित रहती थी। अब छोटी-छोटी धार्मिक त्योहारों को भी ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे वे राष्ट्रीय पर्व हों। विश्वविद्यालय परिसरों में राष्ट्रवाद के नाम पर विचारों की निगरानी, भाषणों की सेंसरशिप और छात्र संगठनों पर दमन के उदाहरण लगातार सामने आ रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में साल 2016 की ‘देशद्रोह’ से जुड़ी घटनाओं से लेकर, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की आत्महत्या से हुई मौत, और हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ छात्र नाटकों और साहित्यिक आयोजनों पर प्रतिबंध— ये सभी घटनाएं बताती हैं कि राष्ट्रवाद अब शैक्षणिक विमर्श को प्रभावित करने का औजार बनता जा रहा है।
आज के समय में शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक गतिविधियों को अत्यधिक प्राथमिकता दी जा रही है। इस बदलाव के पीछे कई कारण हैं। देखा जा रहा है कि देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों — चाहे वह दिल्ली विश्वविद्यालय हो, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हो या अन्य संस्थान — सभी जगहों पर नियुक्तियां ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ से जुड़ी विचारधारा रखने वाले व्यक्तियों की हो रही हैं।
क्यों ये है प्रवृत्ति चिंताजनक
यह गंभीर विषय है कि क्यों धर्म को सार्वजनिक और राजनीतिक रूप देकर विद्यार्थियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है? क्या आज कॉलेज और विश्वविद्यालयों में शिक्षा के मूल्यों की जगह धार्मिक मूल्यों को प्राथमिकता दी जा रही है? इन सवालों के जवाब खोजना अब ज़रूरी होता हुआ मालूम हो रहा है। इस विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. अपूर्वानंद कहते हैं, “वर्तमान समय में ऐसा प्रतीत होता है कि शैक्षणिक संस्थान अब अपनी मूल पहचान खोते जा रहे हैं। वे धीरे-धीरे शैक्षणिक गतिविधियों की बजाय राजनीतिक प्रचार, विशेषकर ‘भारतीय जनता पार्टी’ के विचारों के प्रसार का माध्यम बनते जा रहे हैं। अब शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। जिस प्रकार पाठ्यक्रम में बदलाव किए जा रहे हैं और एक खास धर्म की प्राथमिकता बढ़ रही है, वह न केवल पक्षपातपूर्ण है, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है।”

डॉ. अपूर्वानंद कहते हैं, “आज के समय में शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक गतिविधियों को अत्यधिक प्राथमिकता दी जा रही है। इस बदलाव के पीछे कई कारण हैं। देखा जा रहा है कि देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों — चाहे वह दिल्ली विश्वविद्यालय हो, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हो या अन्य संस्थान — सभी जगहों पर नियुक्तियां ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ से जुड़ी विचारधारा रखने वाले व्यक्तियों की हो रही हैं। यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि लगभग 90 प्रतिशत नियुक्तियां वैचारिक रूप से एकतरफा झुकाव रखने वाले लोगों की की जा रही हैं। इससे पूरा शैक्षणिक परिसर एक विशेष हिंदुत्ववादी रंग में रंगता जा रहा है। इसका प्रभाव छात्रों, विशेषकर अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थियों पर अत्यंत गहरा पड़ रहा है। उनकी छात्रवृत्तियां रोकी जा रही हैं, जिससे आर्थिक रूप से वंचित विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा तक पहुंचना मुश्किल हो गया है। इसके कारण वे असुरक्षित, उपेक्षित और बहिष्कृत महसूस कर रहे हैं। वहीं जो शिक्षक या छात्र इस खास विचारधारा से सहमत नहीं हैं, उन्हें संस्थागत स्तर पर प्रताड़ना, नज़रअंदाज़ किए जाने या अन्य तरीकों से हाशिये पर डालने की घटनाएं भी बढ़ी हैं।”
वर्तमान समय में ऐसा प्रतीत होता है कि शैक्षणिक संस्थान अब अपनी मूल पहचान खोते जा रहे हैं। वे धीरे-धीरे शैक्षणिक गतिविधियों की बजाय राजनीतिक प्रचार, विशेषकर ‘भारतीय जनता पार्टी’ के विचारों के प्रसार का माध्यम बनते जा रहे हैं। अब शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। जिस प्रकार पाठ्यक्रम में बदलाव किए जा रहे हैं और एक खास धर्म की प्राथमिकता बढ़ रही है, वह न केवल पक्षपातपूर्ण है, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है।
हाशिये के समुदायों को दरकिनार करने की कोशिशें
किसी भी लोकतांत्रिक समाज में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मौलिक अधिकारों में सबसे अहम होती है। शैक्षणिक संस्थानों में इसका महत्व और भी अधिक होता है। जब शिक्षक और विद्यार्थी निर्भय होकर अपने विचार रख सकते हैं, बहस कर सकते हैं, तब ही असली ज्ञान, सामाजिक चेतना और रचनात्मकता का विकास संभव होता है। पहले विश्वविद्यालय संवाद, असहमति और आलोचनात्मक सोच के केंद्र माने जाते थे, जहां विद्यार्थी न केवल पढ़ते थे, बल्कि सोचते और सवाल भी करते थे। लेकिन आज यह खुलापन सिमटता जा रहा है। विचारों की विविधता को कुचलने की प्रवृत्ति और वैचारिक समरूपता थोपने का प्रयास लोकतंत्र की आत्मा के लिए एक गंभीर खतरा है। शैक्षणिक संस्थानों में जो स्थान कभी सवालों और बहसों का था, वह अब श्रद्धा और सत्ता-निष्ठा का मंच बनता जा रहा है। यह बदलाव न केवल शैक्षणिक स्वतंत्रता पर प्रहार है, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए भी एक गंभीर चुनौती है।

पिछले दो महीनों में दिल्ली सरकार के अधीन अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली (एयूडी) ने करीब 17 छात्रों को निलंबित कर दिया और एक एसोसिएट प्रोफेसर को शो कॉज़ नोटिस जारी किया है। इन कार्रवाइयों ने व्यापक चिंता पैदा की है और कई लोगों ने इसे असहमति पर व्यापक अंकुश लगाने के हिस्से के रूप में देख रहे हैं जो आज जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे अन्य संस्थानों में हुए घटनाक्रमों से मिलता-जुलता है। वहीं 2023 की मीडिया रिपोर्ट अनुसार सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) बेंगलुरु में, 2016-2020 तक पीएचडी कार्यक्रमों में भर्ती होने वाले केवल 2.1 प्रतिशत उम्मीदवार एसटी वर्ग से थे, 9 प्रतिशत एससी और 8 प्रतिशत ओबीसी श्रेणियों से थे। एकीकृत पीएचडी कार्यक्रमों के लिए भी यही स्थिति थी। कुल भर्ती उम्मीदवारों में से 9 प्रतिशत एससी श्रेणी, 1.2 प्रतिशत एसटी और 5 प्रतिशत ओबीसी श्रेणियों से थे। 17 भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIIT) में, कुल पीएचडी उम्मीदवारों में से 1.7 प्रतिशत एसटी श्रेणी, 9 प्रतिशत एससी और 27.4 प्रतिशत ओबीसी से थे। ये रुझान एनआईटी और आईआईएसईआर जैसे अन्य संस्थानों में भी समान या इससे भी बदतर हैं।
पिछले दो महीनों में दिल्ली सरकार के अधीन अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली (एयूडी) ने करीब 17 छात्रों को निलंबित कर दिया और एक एसोसिएट प्रोफेसर को शो कॉज़ नोटिस जारी किया है। इन कार्रवाइयों ने व्यापक चिंता पैदा की है और कई लोगों ने इसे असहमति पर व्यापक अंकुश लगाने के हिस्से के रूप में देख रहे हैं।
क्या होगा शैक्षिक संस्थानों का भविष्य
हाल के वर्षों में इन संस्थानों पर राष्ट्रवादी विचारधारा के वर्चस्व की कोशिशें गहराती जा रही हैं। इस संदर्भ में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर लक्ष्मण यादव कहते हैं, “शैक्षणिक संस्थान वह स्थान होते हैं जहां विभिन्न विचारधाराओं के लोग साथ आते हैं। पहले भी आरएसएस, कम्युनिस्ट, अंबेडकरवादी और कांग्रेसी विचारधारा से जुड़े विद्यार्थी एक साथ पढ़ते थे, बहस करते थे और एक-दूसरे के विचारों को समझने की कोशिश करते थे। लेकिन आज जब पूरी शिक्षा व्यवस्था को एक ही विचारधारा के अधीन लाया जा रहा है, तो संवाद, बहस और विमर्श की परंपरा लगभग समाप्त होती जा रही है। इस समय में नियुक्तियों की प्रक्रिया में भी एक खास विचारधारा से जुड़े, विशेषकर आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी से संबंधित लोगों को चुन-चुनकर लाया जा रहा है। ऐसे में वे अपने विचारों को संस्थानों पर थोप रहे हैं, जबकि जो लोग इस विचारधारा से असहमत हैं, उन्हें कोई स्थान नहीं मिल रहा है। इसके कारण शैक्षणिक संस्थानों में बहस, संवाद और वैचारिक विविधता की संस्कृति समाप्त होती दिख रही है।”
वास्तविकता यह है कि आज भारत के अनेक विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर संघर्ष गहराता जा रहा है। राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रशासनिक दबाव के चलते विद्यार्थियों और शिक्षकों, दोनों की बौद्धिक स्वतंत्रता सीमित होती जा रही है। विद्यार्थियों की आवाज़ों को ‘राष्ट्रविरोधी’ कहकर दबाया जाता है, वहीं शिक्षकों की असहमति को नौकरी और पदोन्नति से जोड़ा जा रहा है। यह न केवल शिक्षा की मूल के विरुद्ध है, बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना पर भी प्रहार करता है। इसके अतिरिक्त, शैक्षणिक संस्थानों की संस्कृति में भी एक महत्वपूर्ण बदलाव देखा जा रहा है। अब ये संस्थान सभी विद्यार्थियों के लिए समान नहीं रह गए हैं। इनमें भी धार्मिक झुकाव स्पष्ट दिखाई देता है। धार्मिक कार्यक्रमों की संख्या में वृद्धि हुई है और उनमें से अधिकांश हिंदू धर्म से संबंधित हैं। जहां पहले सेमिनारों और संगोष्ठियों में विविध सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक विषयों पर चर्चा होती थी, अब वे भी संकुचित होते हुए धार्मिक विमर्श तक सीमित हो रहे हैं। यह स्थिति न केवल भारत के शैक्षिक भविष्य के लिए चिंताजनक है, बल्कि इससे लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की प्रक्रिया भी बाधित हो रही है।
मुगल काल और दिल्ली सल्तनत जैसे ऐतिहासिक हिस्सों को हटाकर ‘प्राचीन भारतीय संस्कृति’, ‘पवित्र भूगोल’ और ‘महाकुंभ’ जैसे विषयों को शामिल किया जा रहा है। साथ ही, फुले, अंबेडकर, कबीर और रैदास जैसे सामाजिक आलोचकों के विचारों को पाठ्यक्रम से बाहर किया जा रहा है। जैसे, कबीर के जातिवाद विरोधी दोहे हटाकर ‘हठयोग साधना’ के दोहे जोड़ दिए गए हैं।
क्या नई शिक्षा नीति भगवाकरण की ओर एक प्रयास है

प्रोफेसर यादव के अनुसार, “नई शिक्षा नीति के तहत सिलेबस में बदलाव करके शिक्षा के भगवाकरण की दिशा में कदम बढ़ाए जा रहे हैं। मुगल काल और दिल्ली सल्तनत जैसे ऐतिहासिक हिस्सों को हटाकर ‘प्राचीन भारतीय संस्कृति’, ‘पवित्र भूगोल’ और ‘महाकुंभ’ जैसे विषयों को शामिल किया जा रहा है। साथ ही, फुले, अंबेडकर, कबीर और रैदास जैसे सामाजिक आलोचकों के विचारों को पाठ्यक्रम से बाहर किया जा रहा है। जैसे, कबीर के जातिवाद विरोधी दोहे हटाकर ‘हठयोग साधना’ के दोहे जोड़ दिए गए हैं। वहीं वैदिक गणित और ज्योतिष जैसे विषयों को अनिवार्य बनाया जा रहा है।”
यह सिलेबस परिवर्तन दिखाता है कि शिक्षा के माध्यम से एक खास विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है, जबकि वैकल्पिक और आलोचनात्मक दृष्टिकोणों को गैरजरूरी और बेमतलब बताकर दरकिनार किया जा रहा है। शिक्षा केवल जानकारी देने का माध्यम नहीं, बल्कि आलोचनात्मक सोच, सामाजिक चेतना और लोकतांत्रिक मूल्यों के निर्माण का उपकरण भी है। शैक्षणिक संस्थानों में विचारधारा की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, परंतु वह समावेशी, संवादपरक और विवेकशील होनी चाहिए। यदि कोई एकपक्षीय विचारधारा थोप दी जाए, तो यह बौद्धिक स्वतंत्रता और छात्रों की रचनात्मकता के लिए बाधक बन सकती है। इसलिए जरूरी है कि संस्थान वैचारिक विविधता को स्थान दें और छात्रों को तर्क, विमर्श और आत्मचिंतन का अवसर प्रदान करें।
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