समाजकार्यस्थल महिला नेतृत्व से बढ़ा मुनाफा, फिर भी भारतीय कंपनियां समावेशन में पीछे क्यों?

महिला नेतृत्व से बढ़ा मुनाफा, फिर भी भारतीय कंपनियां समावेशन में पीछे क्यों?

मार्चिंग शीप इंक्लूजन इंडेक्स 2025 की रिपोर्ट जिसमें 30 अलग-अलग सेक्टर्स की 840 कंपनियों का अध्ययन किया गया। रिपोर्ट से पता चलता है कि जिन कंपनियों के नेतृत्व पदों में अधिक महिलाएं  या अधिक लैंगिक विविधता है, वे कर के बाद 50 फीसदी अधिक लाभ कमाती हैं। जिससे यह साबित होता है कि समावेशन न केवल नैतिक है, बल्कि लाभदायक भी है।

आज के समय में, जब पूरी दुनिया बराबरी और समावेश की ओर बढ़ रही है, ऐसे में काम की जगहों पर महिलाओं की भागीदारी सिर्फ एक सामाजिक ज़रूरत नहीं रही है, बल्कि अब यह कंपनियों की सफलता का एक अहम हिस्सा बन गई है। हाल ही की कई रिपोर्टों और शोधों में यह साफ़ दिखा है कि जब महिलाओं को नेतृत्व के पद दिए जाते हैं, तो कंपनियों के मुनाफे की क्षमता काफी बढ़ जाती है। फिर भी, भारत की ज्यादातर कंपनियां अभी भी महिलाओं को बराबरी के साथ नेतृत्व के पद देने में पीछे हैं। कई जगहों पर महिलाएं काम तो कर रही हैं, लेकिन ऊंचे पदों तक पहुंचने में उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है जैसे लैंगिक भेदभाव, सुरक्षा की कमी या परिवार की जिम्मेदारियों को समझने वाली नीतियों का न होना। 

बड़ी-बड़ी कंपनियों में आज भी ज़्यादातर फैसले पुरुषों के हाथ में होते हैं। ऐसे में वहां काम करने वाली महिलाओं की बात कई बार अनसुनी कर दी जाती है या उनके विचारों को उतनी अहमियत नहीं मिलती। ऐसे माहौल में महिलाओं को बार-बार खुद को साबित करना पड़ता है, जबकि पुरुष सहकर्मियों को स्वाभाविक रूप से नेतृत्व योग्य माना जाता है। कई बार महिलाएं मीटिंग में अपने विचार रखने से डरती हैं। इससे कार्यस्थलों का वातावरण और असमान हो जाता है। समस्या सिर्फ यही नहीं है कि एक-दो महिलाओं को बड़े पद दे दिए जाएं। असली बदलाव तब आएगा जब हर स्तर पर महिलाओं को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। 

बड़ी-बड़ी कंपनियों में आज भी ज़्यादातर फैसले पुरुषों के हाथ में होते हैं। ऐसे में वहां काम करने वाली महिलाओं की बात कई बार अनसुनी कर दी जाती है या उनके विचारों को उतनी अहमियत नहीं मिलती। ऐसे माहौल में महिलाओं को बार-बार खुद को साबित करना पड़ता है।

महिलाओं के नेतृत्व से बढ़ता है मुनाफा

तस्वीर साभार: The News Minute

कॉर्पोरेट भारत में लैंगिक विविधता एक प्रचलित शब्द बन चुका है, लेकिन जब असल में समावेशी नीतियों की बात आती है, तो तस्वीर अब भी चिंताजनक है। इंडिया टुडे के मुताबिक़, मार्चिंग शीप इंक्लूजन इंडेक्स 2025 की रिपोर्ट जिसमें 30 अलग-अलग सेक्टर्स की 840 कंपनियों का अध्ययन किया गया। इस अध्ययन ने नेतृत्व में महिलाओं की भागीदारी को लेकर कई जरूरी  बातें सामने रखीं। रिपोर्ट से पता चलता है कि जिन कंपनियों के नेतृत्व पदों में अधिक महिलाएं  या अधिक लैंगिक विविधता है, वे कर के बाद 50 फीसदी अधिक लाभ कमाती हैं। जिससे यह साबित होता है कि समावेशन न केवल नैतिक है, बल्कि लाभदायक भी है। इस रिपोर्ट में स्टील, फार्मा, बीएफएसआई, एफएमसीजी और आईटी जैसे क्षेत्रों की कंपनियों को शामिल किया गया है। इसमें पाया गया है कि नेतृत्व स्तर पर उच्च लैंगिक विविधता वाले संगठन वित्तीय रूप से बेहतर प्रदर्शन करते हैं।

इस रिपोर्ट के अलावा,मैकिंज़ी एंड कंपनी की साल 2020 की एक रिपोर्ट ‘डाइवर्सिटी विन्स हाउ इन्क्लूज़न मैटर्स’ के अनुसार, जिन कंपनियों के टॉप मैनेजमेंट में महिलाओं और पुरुषों दोनों की अच्छी भागीदारी थी, उनका आर्थिक प्रदर्शन उन कंपनियों से औसतन 25 फीसद बेहतर रहा, जहां यह लैंगिक विविधता नहीं थी। इसके अलावा, यह भी पाया गया कि जैसे-जैसे महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ता है, कंपनियों के बेहतर प्रदर्शन की संभावना भी बढ़ती जाती है। जिन कंपनियों में 30 फीसद से अधिक महिला अधिकारी थीं, उनके सफल होने की संभावना उन कंपनियों से ज़्यादा थी जहां यह आंकड़ा 10 फीसदी  से 30 फीसदी  के बीच था। वहीं, ये कंपनियां उन कंपनियों से भी बेहतर रहीं, जहां महिला अधिकारी बहुत कम थीं या बिल्कुल नहीं थीं।

रिपोर्ट से पता चलता है कि जिन कंपनियों के नेतृत्व पदों में अधिक महिलाएं  या अधिक लैंगिक विविधता है, वे कर के बाद 50 फीसदी अधिक लाभ कमाती हैं। जिससे यह साबित होता है कि समावेशन न केवल नैतिक है, बल्कि लाभदायक भी है।

महिला नेतृत्व का महत्व और लैंगिक असमानता 

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

जब महिलाएं नेतृत्व में आती हैं, तो वे केवल लाभ का ही नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का भी माध्यम बनती हैं। वे हर उस सामाजिक पहलू को सामने लाती हैं जो अक्सर अनदेखे रह जाते हैं जैसे लैंगिक समानता, कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य, और समावेशी नीतियां आदि। इससे न सिर्फ कर्मचारियों की भलाई होती है, बल्कि कंपनियों में एक सकारात्मक और प्रेरणादायक माहौल बनता है। जनरेशन इंडिया के मुताबिक, महिलाएं सिर्फ नेतृत्व की कुर्सी तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि वे अपने साथ एक अलग सोच, दृष्टिकोण और बदलाव लाने की क्षमता भी लेकर आती हैं। वे न केवल बेहतर समस्या-समाधान करने में सक्षम होती हैं, बल्कि टीम के भीतर सहयोग,  बातचीत और सकारात्मक कार्य संस्कृति को भी मजबूत करती हैं।लेकिन दुख की बात यह है कि भारत की ज़्यादातर कंपनियां  महिला नेतृत्व को अब भी विकल्प की तरह देखती हैं, न कि ज़रूरत के रूप में। महिलाओं के लिए आगे बढ़ना आज भी आसान नहीं है। हमारा समाज एक पितृसत्तात्मक समाज है। इसमें आमतौर पर घर का मुखिया किसी पुरुष को माना जाता है। यही नहीं घर और गृहस्थी से जुड़े हुए महत्त्वपूर्ण निर्णयों को लेने में आमतौर पर पुरुष ही मुख्य भूमिका निभाते हैं। बहुत से घरों में तो इन निर्णयों को लेने से पहले घर की महिला सदस्यों की राय तक नहीं ली जाती है।

अक्सर घर के बाहर या जहां वो काम करती हैं वहां भी उनसे यही उम्मीद की जाती है। उन्हें प्रमोशन में भेदभाव झेलना पड़ता है, लचीले काम के घंटे नहीं मिलते, मातृत्व अवकाश के बाद वापसी मुश्किल होती है और ज़्यादातर बड़े पदों पर पुरुषों का दबदबा रहता है। ज़्यदातर कंपनियों में प्रमुख भूमिकाओं में महिलाओं की कमी है। मार्चिंग शीप रिपोर्ट के मुताबिक 63.45फीसद कंपनियों में बड़े प्रबंधकीय पदों पर एक भी महिला नहीं थी। इन कंपनियों में काम करने वाले कुल कर्मचारियों में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 22फीसद है, जो कि साल 2023-24 के आवधिक शहरी श्रम बल सर्वेक्षण में बताए गए 28 फीसद के औसत से भी कम है। हालांकि शुरुआती स्तर पर महिलाओं की भागीदारी ठीक है और कुछ महिलाएं बोर्ड तक भी पहुंच रही हैं लेकिन भविष्य के नेताओं के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण मध्य प्रबंधन स्तर अभी भी कमज़ोर है। रिपोर्ट इस पैटर्न को ऑवरग्लास प्रभाव कहती है, जो मध्य-करियर स्तरों पर प्रतिनिधित्व में भारी गिरावट दिखता है। यह फर्क दिखाता है कि भले ही कंपनियों ने भर्ती में कुछ सुधार किए हों, लेकिन अब भी उनके पास ऐसी मजबूत नीतियां नहीं हैं जो महिलाओं को लंबे समय तक काम में बनाए रखें और उनके करियर को आगे बढ़ने का पूरा मौका दें।

मार्चिंग शीप रिपोर्ट के मुताबिक 63.45फीसद कंपनियों में बड़े प्रबंधकीय पदों पर एक भी महिला नहीं थी। इन कंपनियों में काम करने वाले कुल कर्मचारियों में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 22फीसद है, जो कि साल 2023-24 के आवधिक शहरी श्रम बल सर्वेक्षण में बताए गए 28 फीसद के औसत से भी कम है। 

समावेशन संरचनात्मक होना चाहिए, प्रतीकात्मक नहीं

  तस्वीर साभार: Fortune India

महिलाओं को कार्यस्थल पर केवल प्रतिनिधित्व देने से बदलाव नहीं आएगा, अगर वह प्रतिनिधित्व केवल प्रतीकात्मक हो। कंपनियां अक्सर विविधता और समावेशन को दिखावे के स्तर पर अपनाती हैं जैसे वेबसाइट पर महिलाओं की तस्वीरें लगाना, या कुछ विशेष दिनों पर लैंगिक समानता की बातें करना। लेकिन जब बात असल निर्णय लेने की होती है, या रणनीतिक बैठकों की, तब महिलाएं न के बराबर नज़र आती हैं। यही कारण है कि महिलाओं के अनुभव, ज़रूरतें और दृष्टिकोण संगठन की मुख्य नीतियों में जगह नहीं बना पाते। मार्चिंग शीप की संस्थापक और प्रबंध साझेदार सोनिका एरन ने कहा, “हमें सिर्फ़ कमरे में ज़्यादा महिलाओं की ज़रूरत नहीं है, हमें उन्हें मेज़ पर भी चाहिए, फ़ैसलों को प्रभावित करने और रणनीति बनाने के लिए।” उन्होंने आगे कहा कि समावेशन को प्रतिनिधित्व से आगे बढ़ना होगा। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सच्चा समावेशन संख्याओं के बारे में नहीं है, बल्कि सत्ता की गतिशीलता में बदलाव के बारे में है।

एक ऐसा परिवर्तन जो अभी तक काफी हद तक गायब है। उनके अनुसार, समावेश का मतलब सतही प्रतिनिधित्व नहीं, बल्कि पहुंच, अधिकार और जवाबदेही प्रदान करना है।उन्होंने आगे कहा, “व्यावसायिक मामला अब ख़त्म हो चुका है। कार्रवाई का आह्वान तत्काल आवश्यक है, गहराई से सुनें, निर्णायक रूप से काम करें, और नेतृत्व की पुनर्कल्पना करें जो उस दुनिया को प्रतिबिंबित करे जिसमें हम वास्तव में रहते हैं।” यानि अब यह साबित करने की ज़रूरत नहीं कि समावेशन से फायदा होता है। अब वक्त है कि हम सिर्फ सुनें नहीं, बल्कि ध्यान से समझें, ठोस कदम उठाएं और ऐसा नेतृत्व तैयार करें जो हमारे समाज को असल में सही मायनों में दिखा सके। रिपोर्ट कहती है कि समावेशन एक नैतिक अनिवार्यता है, न कि केवल कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व सीएसआर के लिए एक चेकबॉक्स है । यह समावेशन सही मायनों तब सावित हो पायेगा, जब  यह सिर्फ ऊपरी वर्ग की, शहरी, उच्च-शिक्षित महिलाओं तक सीमित न रह जाए, बल्कि दलित समुदाय , आदिवासी समुदाय , ट्रांस समुदाय के व्यक्तियों  और विकलांग महिलाओं को भी बराबरी से अवसर और मंच दे।

मार्चिंग शीप की संस्थापक और प्रबंध साझेदार सोनिका एरन ने कहा, “हमें सिर्फ़ कमरे में ज़्यादा महिलाओं की ज़रूरत नहीं है, हमें उन्हें मेज़ पर भी चाहिए, फ़ैसलों को प्रभावित करने और रणनीति बनाने के लिए।”

 बदलाव के लिए क्या कदम ज़रूरी हैं?

तस्वीर साभार: The Learner

इंटू (आईएनटीओओ) जी आई ग्रुप होल्डिंग के मुताबिक, एक न्यायसंगत और समावेशी नेतृत्व परिदृश्य या माहौल  तैयार करने के लिए संगठनों और व्यक्तियों को महिलाओं के करियर में उन्नति का सक्रिय रूप से समर्थन और प्रोत्साहन करना चाहिए । कंपनियों को यह तय करना चाहिए  कि नीतियां बनाने और फैसले लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की, खासकर वंचित समुदायों से आने वाली महिलाओं की, बराबरी से भागीदारी हो। सिर्फ दिखावे के लिए उन्हें शामिल करना काफी नहीं है, बल्कि उन्हें असली फैसले लेने का अधिकार देना होगा तब ही बदलाब आ सकता है । मातृत्व अवकाश, डे-केयर सुविधाएं, और पीरियड्स लीव जैसी सुविधाओं का होना बहुत ज़रूरी है।  इससे महिलाओं को परिवार और करियर के बीच संतुलन बनाने में मदद मिलेगी। कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना बुनियादी ज़िम्मेदारी है। आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी ) का गठन हर कंपनी में होना चाहिए ताकि वह अपने ऊपर होने वाली हिंसा की बात को बिना डरे कह पाए।

महिलाओं को नेतृत्व के मौके देने से न सिर्फ कंपनियों का मुनाफा बढ़ता है, बल्कि कार्यस्थल का माहौल भी बेहतर होता है। कई रिपोर्टों ने दिखाया है कि जिन कंपनियों में महिला नेतृत्व ज़्यादा होता है, वे ज़्यादा सफल रहती हैं। इसके बावजूद, भारत की ज्यादातर कंपनियां अब भी महिलाओं को ऊंचे पदों तक पहुंचने  में पूरी मदद नहीं करतीं। अब यह साबित करने की आवश्यकता नहीं कि महिला नेतृत्व से कंपनियों को लाभ होता है। अब समय है कि कंपनियां ठोस कदम उठाएं, जैसे लचीली नीतियां बनाना, सुरक्षा और समान अवसर सुनिश्चित करना, और हाशिये पर रह रहे समुदाय की महिलाओं को नेतृत्व में सक्रिय रूप से शामिल करना। परिवर्तन तभी होगा जब नेतृत्व विविधता को केवल आंकड़ों में नहीं, बल्कि अधिकार, एजेंसी और जवाबदेही में भी शामिल करे। 

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