भारतीय सिनेमा का इतिहास सिर्फ़ फिल्मों का इतिहास नहीं है, बल्कि यह उन साहसी महिलाओं की कहानी भी है जिन्होंने समाज की परंपराओं, सीमाओं और बंदिशों को तोड़कर नए रास्ते बनाए, ज़ुबैदा बेग़म धनराजगीर उन्हीं महिलाओं में से एक थीं। महिलाओं के लिए सिनेमा तक पहुंचने की राह कठिन थी जहां पर्दे के बाहर उनका जीवन बंधनों से घिरा हुआ था, वहीं पर्दे पर सबके सामने आना रूढ़िवादी समाज के विरोध का सामना करने जैसा था। ऐसे दौर में जब मुस्लिम समुदाय की महिलाओं का फिल्मी दुनिया में आना लगभग नामुमकिन माना जाता था, ज़ुबैदा बेगम ने न सिर्फ इस परंपरा को तोड़ा, बल्कि भारत की साल 1931 की पहली बोलती फिल्म आलम आरा की नायिका बनकर इतिहास रच दिया। उस समय न तो महिलाओं का फिल्मों में काम करना आम बात थी, और न ही समाज इसे स्वीकार करता था।
ज़ुबैदा सिर्फ एक अभिनेत्री ही नहीं थीं, बल्कि वह एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने अपने फैसले खुद लिए, अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जिया। उन्होंने न केवल सिनेमा जैसे नए और चुनौतीपूर्ण क्षेत्र में कदम रखा, बल्कि दूसरे धर्म में शादी करके सामाजिक सीमाओं को भी पार किया । यह शादी उस दौर के धार्मिक और सामाजिक मतभेदों को चुनौती देने वाली थी। उन्होंने यह दिखाया कि एक महिला अपने नाम, अपने प्यार और अपने काम के फैसले खुद ले सकती है। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि बदलाव हमेशा आसान नहीं होता, लेकिन जब कोई महिला कदम बढ़ाती है, तो वह सिर्फ अपनी जिंदगी नहीं बदलती, बल्कि समाज की सोच पर भी असर डालती है।
ज़ुबैदा सिर्फ एक अभिनेत्री नहीं थीं, बल्कि वह एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने अपने फैसले खुद लिए, अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जिया। उन्होंने न केवल सिनेमा जैसे नए और चुनौतीपूर्ण क्षेत्र में कदम रखा, बल्कि दूसरे धर्म में शादी करके सामाजिक सीमाओं को भी पार किया ।
शुरूआती जीवन और सिनेमा तक पहुंचने का संघर्ष

ज़ुबैदा बेग़म धनराजगीर का जन्म 1911 में गुजरात के सूरत में नवाब सिदी इब्राहिम मुहम्मद याकूत खान और फातिमा बेगम के घर हुआ था। ज़ुबैदा की परवरिश एक ऐसे माहौल में हुई जहां शाही शान-ओ-शौकत, पर्दा प्रथा, और पारंपरिक जीवनशैली का पालन सख्ती से होता था। उस समय महिलाओं का बाहर निकलना तक बहुत मुश्किल था, और उन्हें ज़्यादातर घर की चारदीवारी में ही सीमित रखा जाता था। ज़ुबैदा की यह राह आसान नहीं थी। शाही खानदान से होने के कारण उन पर परिवार और समाज दोनों का दबाव था। लेकिन उन्होंने अपने सपनों और फैसलों को प्राथमिकता दी। उनकी दो बहनें सुल्ताना और शहज़ादी भी अभिनेत्री थीं। एक मुस्लिम महिला होने के नाते उन्होंने उस दौर में अभिनय के क्षेत्र का चुनाव किया, जब महिलाओं को प्रतिभा के हर मंच से कोसों दूर रखा जाता था। लेकिन जुबैदा ने इस चलन की दीवार को तोड़ते हुए, समाज में महिलाओं के लिए इस खास अवसर के दरवाजे खोले।
वह सिर्फ 12 साल की थीं जब उन्होंने कोहिनूर फ़िल्म से अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की। साल 1920 के दशक में ज़ुबैदा ने कभी-कभी अपनी बहन सुल्ताना के साथ फिल्मों में काम किया। उस समय सुल्ताना भारतीय सिनेमा की सबसे पसंद की जाने वाली और मशहूर अभिनेत्रियों में से एक थीं। ज़ुबैदा और सुल्ताना दोनों ने कई फिल्मों में साथ काम किया। दोनों बहनें साल 1922 की ‘वीर अभिमन्यु’ नाम की फिल्म में भी साथ दिखी थीं। यह ज़ुबैदा की पहली बड़ी हिट फिल्म थी। इस फिल्म में उनकी मां फातमा बेगम ने भी एक अहम रोल निभाया था। साल 1924 की फिल्म कल्याण खजीना भी इन्हीं फिल्मों में से एक थी। ज़ुबैदा ने भारतीय सिनेमा के उस दौर में कदम रखा जब फिल्में बिना संवाद या बातचीत के होती थीं, और अभिनय सिर्फ़ भावों और हाव भावों से दिखाया जाता था। लेकिन ज़ुबैदा ने अपनी प्रतिभा और आत्मविश्वास से इस चुनौती को भी एक मौके में बदल दिया।
ज़ुबैदा बेग़म धनराजगीर का जन्म 1911 में गुजरात के सूरत में नवाब सिदी इब्राहिम मुहम्मद याकूत खान और फातिमा बेगम के घर हुआ था। ज़ुबैदा की परवरिश एक ऐसे माहौल में हुई जहां शाही शान-ओ-शौकत, पर्दा प्रथा, और पारंपरिक जीवनशैली का पालन सख्ती से होता था।
मूक फिल्मों से लेकर, बोलती फिल्मों तक का सफर

साल 1925 में ज़ुबैदा की नौ फिल्में रिलीज़ हुईं, जिनमें फिल्म काला चोर, देवदासी और देश का दुश्मन शामिल थीं। ये फिल्में उस दौर में काफी चर्चित रहीं। साल 1926 में, ज़ुबैदा ने अपनी मां फातिमा बेगम की फिल्म बुलबुल-ए-परिस्तान में भी अभिनय किया। साल 1927 में उन्होंने लैला मजनू, ननंद भोजाई और नवल गांधी की फिल्म बलिदान में काम किया। ये तीनों फिल्में उस समय की बड़ी सफल फिल्मों में गिनी जाती हैं। बलिदान फिल्म, रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे नाटक पर आधारित थी। इस फिल्म में ज़ुबैदा के साथ सुलोचना देवी, मास्टर विट्ठल और जल खंबाटा जैसे कलाकार भी थे। फिल्म की कहानी बंगाल के कुछ काली मंदिरों में पशु बलि की पुरानी परंपरा की आलोचना करती है। यह फिल्म भारतीय सिनेमा के लिए एक साहसिक कदम मानी गई और इसे भारतीय सिनेमैटोग्राफ समिति ने “उत्कृष्ट और वास्तव में भारतीय फिल्म” कहा। यहां तक कि इसके कुछ यूरोपीय सदस्यों ने भी सुझाव दिया कि इसे विदेशों में भी दिखाया जाना चाहिए।
हालांकि, ज़ुबैदा के करियर में सबसे बड़ा मोड़, साल 1931 में आया, जब उन्होंने भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा में काम किया। यह फिल्म बहुत हिट साबित हुई और ज़ुबैदा को पूरे देश में पहचान दिलाई। इसी फिल्म ने उनके करियर को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। फिल्म आलम आरा उनकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि उन्हें उस दौर की अन्य अभिनेत्रियों से कहीं अधिक मेहनताना मिलने लगा, जो उस दौर में एक महिला के लिए बहुत बड़ी बात थी। ज़ुबैदा की अदाकारी में एक खास तरह की मासूमियत और गहराई थी, जो दर्शकों को बहुत पसंद आती थी। आलम आरा की कामयाबी के बाद उन्हें लगातार बड़ी फिल्मों में काम मिलने लगा।
फिल्म आलम आरा उनकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि उन्हें उस दौर की अन्य अभिनेत्रियों से कहीं अधिक मेहनताना मिलने लगा, जो उस दौर में एक महिला के लिए बहुत बड़ी बात थी।
ज़ुबैदा और उनके ऐतिहासिक किरदार
कई मूक फिल्मों में काम करने के बाद, ज़ुबैदा ने जब आलम आरा जैसी पहली बोलती फिल्म में काम किया, तो यह उनके करियर के लिए एक बड़ी कामयाबी साबित हुई। उनके किरदार सिर्फ उन्हें कमाई का जरिया नहीं बने, बल्कि उन्होंने कई लड़कियों और महिलाओं को यह भरोसा भी दिया कि वे भी अपने सपनों को पूरा कर सकती हैं। ज़ुबैदा न केवल 1900 के दशक के भारतीय सिनेमा में एक महत्वपूर्ण नाम बनीं, बल्कि उन्होंने अपने अभिनय से कई ऐसे किरदारों को भी जीवंत कर दिया जो आज भी लोगों को याद हैं। उनके निभाए गए कई रोल महिला सशक्तिकरण, सामाजिक सवालों और सांस्कृतिक बदलावों की झलक देते हैं, जिनकी छाप भारतीय सिनेमा पर हमेशा के लिए रह गई है।

ज़ुबैदा ने अपने फिल्मी करियर में कई सफल ऐतिहासिक महाकाव्य फ़िल्मों में अभिनय किया, जिसमें उन्होंने सुभद्रा, उत्तरा और द्रौपदी जैसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली किरदार निभाए। इन भूमिकाओं के ज़रिए उन्होंने ना सिर्फ़ पौराणिक कहानियों को जीवंत किया, बल्कि दर्शकों के बीच गहरी छाप भी छोड़ी। साल 1932 की एक फिल्म ‘एज्रा मीर की ज़रीना’ में एक ऐसा दृश्य था जिसने इतना विवाद खड़ा कर दिया कि फिल्म को लगभग सेंसर कर दिया गया। इस फिल्म में उन्होंने एक सर्कस गर्ल की भूमिका निभाई थी। ज़ुबैदा उन चंद अभिनेत्रियों में से एक थीं जिन्होंने मूक युग से बोलती और नाटक फिल्मों में सफलतापूर्वक बदलाव किया। ज़ुबैदा कई और सफल फिल्मों में नज़र आईं, जैसे गुल-ए-सनोबर और साल 1949 की फिल्म निर्दोष अबला यह उनकी आखिरी फिल्म थी। साल 1988 में उनकी मृत्यु हो गयी लेकिन अपने अभिनय के माध्यम से वह हमेशा हमारे बीच रहेंगी।
ज़ुबैदा बेग़म धनराजगीर सिर्फ भारतीय सिनेमा की पहली बोलती फिल्म की नायिका नहीं थीं, बल्कि वे एक युग परिवर्तन की प्रतीक थीं। उन्होंने न केवल मूक सिनेमा से लेकर बोलती फिल्मों तक के सफर में अपनी जगह बनाई, बल्कि एक मुस्लिम महिला होने के नाते रूढ़ियों को तोड़ते हुए अपने अस्तित्व को समाज के सामने मजबूती से रखा। चाहे पर्दे पर सुभद्रा और द्रौपदी जैसे पौराणिक किरदारों को निभाना हो या निजी जीवन में अंतरधार्मिक विवाह कर सामाजिक सीमाओं को पार करना हो। ज़ुबैदा हर मोर्चे पर साहस और आत्मनिर्णय की मिसाल बनीं। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि जब कोई महिला अपनी राह खुद तय करती है, तो वह सिर्फ खुद को नहीं, बल्कि पूरे समाज की सोच को बदलने का माध्यम बनती है। ज़ुबैदा की विरासत भारतीय सिनेमा के इतिहास में हमेशा चमकती रहेगी एक ऐसी महिला के रूप में, जिसने पर्दे के दोनों ओर आज़ादी, संघर्ष और आत्मसम्मान की आवाज़ को जिया।

