बीते कुछ हफ्तों में विकलांगता को लेकर बॉलीवुड में दो फिल्में आईं। पहली, आमिर खान अभिनीत ‘सितारे ज़मीन पर’ और दूसरी, अनुपम खेर स्टूडियो और ‘नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया’ (एनएफडीसी) के बैनर तले बनी ‘तन्वी द ग्रेट’। ‘सितारे ज़मीन पर’ की चर्चा हर किसी की जुबान पर रही, लेकिन ‘तन्वी द ग्रेट’ दर्शकों की नज़रों से लगभग ओझल रही। ‘तन्वी द ग्रेट’ एक ऐसी लड़की की कहानी है, जिसे ऑटिज़्म है। इसके चलते उसे सामान्य दिखने वाले दैनिक कामों को करने में भी कठिनाई होती है। वह ठीक से लोगों से बातचीत भी नहीं कर पाती। बता दें कि ऑटिज़्म एक न्यूरोडेवलपमेंटल स्थिति (neurodevelopmental condition) है, जिसमें मस्तिष्क के विकास पर असर पड़ता है। इस स्थिति से ग्रस्त व्यक्ति को सामाजिक संवाद, संप्रेषण और व्यवहार में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। फिल्म की शुरुआत तन्वी (शुभांगी दत्ता) के सुबह उठने से होती है, जो अपनी मम्मी, विद्या रैना (पल्लवी जोशी), के साथ दिल्ली में रहती है। लेकिन उसकी मम्मी को काम के सिलसिले में नौ महीने के लिए अमेरिका जाना पड़ता है।

इसलिए वह तन्वी को उसके दादा, कर्नल प्रताप रैना (अनुपम खेर), के पास उत्तराखंड के लैंसडाउन छोड़ देती हैं। वहां तन्वी को पता चलता है कि उसके शहीद पिता, कैप्टन समर रैना (करण ठक्कर), का सपना था कि वह भारत के सबसे ऊंचे कैम्प बाना पोस्ट जाकर तिरंगे को सलामी दें। तन्वी अपने पापा का सपना पूरा करने के लिए सेना में भर्ती होकर बाना पोस्ट पर तिरंगे को सलामी देना चाहती है। हालांकि, तन्वी का सेना में भर्ती होना संभव नहीं है, क्योंकि ऑटिज़्म का सामना कर रहे व्यक्ति को आर्मी में नहीं लिया जाता। इन बातों से अनजान तन्वी आर्मी में भर्ती होने की तैयारी करने लगती है। तन्वी न सिर्फ़ चीज़ों को जल्दी याद कर लेती है, बल्कि एक बेहतरीन म्यूजिशियन भी है। वह राजा साहब (बोमन ईरानी) से संगीत सीख रही है। उसे पेड़-पौधों से गहरा लगाव है। दिलचस्प बात यह है कि इस फ़िल्म की प्रेरणा अनुपम खेर को अपनी ऑटिस्टिक भतीजी से मिली। वह खुद मानते हैं कि उनकी भतीजी की ज़िंदगी और उसके अनुभवों ने इस कहानी की नींव रखी।
फिल्म में तन्वी कई बार स्क्रीन पर कहती हैं कि आई एम डिफरेंट, बट नो लेस। यह लाइन दर्शकों को यही बताने का प्रयास करती है कि ऑटिज़्म का सामना कर रहे लोग भले दूसरों से अलग हों, लेकिन उनमें किसी भी तरह की कमी नहीं है।
‘नॉर्मल’ और ‘अबनॉर्मल’ के पारंपरिक सोच को चुनौती
फिल्म में तन्वी कई बार स्क्रीन पर कहती हैं कि आई एम डिफरेंट, बट नो लेस। यह लाइन दर्शकों को यही बताने का प्रयास करती है कि ऑटिज़्म का सामना कर रहे लोग भले दूसरों से अलग हों, लेकिन उनमें किसी भी तरह की कमी नहीं है। तन्वी की मां की भूमिका में नजर आईं पल्लवी जोशी एक ऑटिज़्म विशेषज्ञ का किरदार निभा रही हैं। फ़िल्म में अमेरिका में एक मीटिंग के दौरान वह कहती हैं कि यह कोई अक्षमता नहीं है। अलग तरह से सोचने की क्षमता को हम ऑटिज़्म कहते हैं। असल में, यह एक सुपरपावर है।

फ़िल्म में दिखाया गया है कि तन्वी को घर की चौखट पार करने जैसे छोटे-छोटे कामों में भी परेशानी होती है। लेकिन जब वह आर्मी ट्रेनिंग से गुजरती है, तो उसमें एक स्पष्ट मानसिक और भावनात्मक बदलाव आता है। फ़िल्म का एक अहम संदेश है है कि “नॉर्मल का अपोज़िट अबनॉर्मल नहीं होता।” आम तौर पर समाज जो ‘अलग’ है, उसे ‘अबनॉर्मल’ या ‘असामान्य’ मान लेता है। लेकिन फ़िल्म यह सोच बदलने की कोशिश करती है। वह कहती है कि जो व्यक्ति अलग तरह से सोचता या व्यवहार करता है, वह असामान्य नहीं, बस अलग है। अलग होना कोई दोष नहीं, बल्कि विशेषता हो सकती है।
बेहतरीन म्यूज़िक और अभिनय का उम्दा प्रदर्शन
अगर फिल्म के गानों की बात करें, तो ‘तन्वी द ग्रेट’ की एल्बम इस साल की सबसे प्रभावशाली एल्बमों में से एक है। इससे पहले ‘मेट्रो इन दिनों…’ को जो सराहना मिली थी, उसी स्तर की गहराई और संवेदनशीलता इस फिल्म के संगीत में देखने को मिलती है। फिल्म के गाने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हैं, जो न केवल ऑटिज़्म का सामना कर रहे व्यक्ति की भावना को दिखाते हैं बल्कि उसके इर्द-गिर्द के लोगों की जद्दोजहद और भावनाओं को भी खूबसूरती से परिभाषित करते हैं। संगीत इमोशनल कनेक्शन बनाने में पूरी तरह सफल होता है। फिल्म के इमोशनल और ऊर्जावान सीन को गहराई देने के लिए बैकग्राउंड म्यूज़िक अहम भूमिका निभाता है। हर दृश्य में दिखाए गए भाव पर्दे पर ईमानदारी से उतरते हैं और दर्शकों के दिल को छू जाते हैं। फिल्म का संगीत कहानी को संजीदगी और संवेदना देता है। फिल्म में सभी कलाकारों ने सराहनीय अभिनय किया है। मुख्य रूप से आप अनुपम खेर और शुभांगी दत्ता को ज़्यादा समय पर्दे पर देखेंगे।
फिल्म के गाने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हैं, जो न केवल ऑटिज़्म का सामना कर रहे व्यक्ति की भावना को दिखाते हैं बल्कि उसके इर्द-गिर्द के लोगों की जद्दोजहद और भावनाओं को भी खूबसूरती से परिभाषित करते हैं। संगीत इमोशनल कनेक्शन बनाने में पूरी तरह सफल होता है।
ख़ास बात यह है कि यह शुभांगी दत्ता की डेब्यू फिल्म है, लेकिन उन्होंने एक अनुभवी कलाकार की तरह अभिनय किया है। उनकी परफॉर्मेंस इतनी सशक्त है कि सिर्फ पाँच मिनट में दर्शकों को यह विश्वास हो जाता है कि वे वाकई ऑटिस्टिक हैं। दूसरी ओर अनुपम खेर ने भी अपने किरदार प्रताप रैना में गहराई और परिपक्वता दिखाई है। अनुपम खेर और शुभांगी दत्ता के अलावा फ़िल्म में पल्लवी जोशी, बोमन ईरानी, जैकी श्रॉफ, अरविंद समय और करन ठक्कर हैं, जिन्होंने अपने अपने क़िरदार को बख़ूबी से निभाया है। बोमन ईरानी का राजा साहब का छोटा पर असरदार क़िरदार था। जैकी श्रॉफ सख़्त पर अंदर से नरम आर्मी ऑफ़िसर के क़िरदार में तो अरविंद समय अपनी अनजानी गलती के चलते प्रश्चाताप करते दिखे हैं।
करन ठक्कर, तन्वी के पिता और एक बहादुर शहीद सैनिक की भूमिका में हैं। भले ही उनका रोल छोटा है, लेकिन जब भी वो स्क्रीन पर नज़र आते हैं, उन्होंने एक ज़िम्मेदार पिता और अनुशासित सैनिक की भूमिका को बख़ूबी निभाया है। उनकी मौजूदगी कहानी को भावनात्मक गहराई देती है। पल्लवी जोशी ने तन्वी की माँ और एक संवेदनशील मनोवैज्ञानिक के किरदार को ईमानदारी से निभाया है। वह न सिर्फ एक अच्छी माँ हैं, बल्कि अपने प्रोफेशन में भी पूरी तरह समर्पित हैं। वह तन्वी की देखभाल और अपने काम के बीच बेहतरीन संतुलन बनाए रखती हैं। फिल्म में अनुपम खेर और शुभांगी दत्ता की जुगलबंदी देखने लायक है। उनकी शुरुआत हल्की-फुल्की नोंकझोंक से होती है, जो धीरे-धीरे दादा–पोती के रिश्ते में बदल जाती है। जहां तन्वी एक जिद्दी बच्ची है, वहीं प्रताप रैना एक सख़्त और अनुशासनप्रिय दादा हैं। दोनों की टकराहट से रिश्ते में गहराई और समझ का जन्म होता है।
ख़ास बात यह है कि यह शुभांगी दत्ता की डेब्यू फिल्म है, लेकिन उन्होंने एक अनुभवी कलाकार की तरह अभिनय किया है। उनकी परफॉर्मेंस इतनी सशक्त है कि सिर्फ पाँच मिनट में दर्शकों को यह विश्वास हो जाता है कि वे वाकई ऑटिस्टिक हैं।
फिल्म की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें हर छोटी-बड़ी बात का सधे हुए ढंग से समापन किया गया है। शुरुआत में पल्लवी जोशी का डायलॉग—”कुछ रिश्ते मुलाक़ात के मोहताज नहीं होते”—पूरी फिल्म की थीम को सेट करता है। पूरी फिल्म में तन्वी अपने दादा को उनके नाम ‘प्रताप रैना’ से पुकारती है, लेकिन अंत में वह उन्हें प्यार से कहती है—”ईस्ट या वेस्ट, दादू इज़ द बेस्ट”। यह संवाद रिश्तों में आए बदलाव को खूबसूरती से दिखाता है। ‘तन्वी द ग्रेट’ को भारत में रिलीज़ से पहले कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में प्रदर्शित किया गया। इसका प्रीमियर कान्स फिल्म फेस्टिवल, लंदन फिल्म फेस्टिवल, और न्यूयॉर्क फिल्म फेस्टिवल में हुआ। इन आयोजनों में फ़िल्म को काफी सराहना मिली। भारत में इस फ़िल्म की पहली स्क्रीनिंग नेशनल डिफेंस एकेडमी (NDA) में हुई। अनुपम खेर ने बताया कि यह फ़िल्म उनके दिल के बेहद करीब है। यह उनकी भतीजी के जीवन और संघर्ष से प्रेरित है, जो ऑटिस्टिक हैं।
उन्होंने इससे पहले 2002 में ‘ओम जय जगदीश’ का निर्देशन किया था। 23 साल बाद ‘तन्वी द ग्रेट’ के साथ उन्होंने एक बार फिर निर्देशन में वापसी की है। ‘तन्वी द ग्रेट’ सिर्फ़ एक कहानी नहीं, बल्कि एक अनुभव है। यह फ़िल्म हमें बताती है कि अलग होना कोई कमी नहीं होती। यह फ़िल्म उन आवाज़ों को मंच देती है, जिन्हें अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। तन्वी का किरदार हमें यह सिखाता है कि साहस का मतलब डर का ना होना नहीं, बल्कि डर से लड़ना होता है। यह फ़िल्म न सिर्फ़ ऑटिज़्म के प्रति हमें जागरूक करती है, बल्कि समाज में समावेश की ज़रूरत को भी मजबूती से सामने लाती है। ‘तन्वी द ग्रेट’ भले ही बॉक्स ऑफिस पर ज़्यादा सफल न रही हो, लेकिन इसने दर्शकों के दिलों में अपनी एक खास जगह बनाई है। यह फिल्म रिश्तों, संवेदनाओं और आपसी समझ को एक संवेदनशील और सरल अंदाज़ में प्रस्तुत करती है।

