भारत में जब भी जेल, अपराध या सुधार गृह की बात होती है, तो अक्सर उनके अंदर के अमानवीय हालात, हिंसा और सत्ता के दुरुपयोग की कहानियां सामने आती हैं। लेकिन बहुत कम फिल्में हैं, जो जेलों को केवल अपराध की जगह नहीं, बल्कि सामाजिक संरचनाओं का आईना बनाकर पेश करती हैं। अंडमान ऐसी ही एक फिल्म है जो शिक्षा, जातिवाद और प्रशासनिक भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को एक संवेदनशील तरीके से सामने लाती है। साल 2021 में हिंदी फ़िल्म अंडमान ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ हुई। यह फिल्म साल 2020 में फैले कोरोना महामारी पर आधारित है। महामारी के अलावा भी फिल्म की कहानी समाज के कई परतों को बारीकी से खोलती है। इस फ़िल्म में मेकर्स ने उत्तर प्रदेश के एक ऐसे गांव की कहानी दिखाई है जो शहर से मात्र 5 किलोमीटर दूर है फिर भी गांव को शहर से जोड़ने के लिए पुल न होने पर ये कुछ कोस का फासला गांव को 50 साल पीछे धकेलता है।
फिल्म में जातिवाद, भ्रष्टाचार और सिविल परीक्षा की तैयारी कर रहे युवाओं के टूटते सपने और हताशा को मार्मिक ढंग से दिखाने का प्रयास किया गया है। फिल्म कोविड महामारी को आधार बनाकर समाज के कई समस्याओं को भी बेनक़ाब करती है। इस फ़िल्म के साथ स्मिता सिंह ने अपना डेब्यू निर्देशन किया। इसके बावजूद वह फिल्म को नए और अलग नज़रिए से दिखाने में कामयाब रही हैं। अंडमान के मुख्य किरदार अभिमन्यु की भूमिका में आनंद राज नज़र आए हैं। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने न सिर्फ़ अभिनय किया, बल्कि इसकी पटकथा और संवाद भी लिखे हैं। उनकी लेखनी कितनी शानदार है इसका अंदाजा फिल्म की कहानी और संवादों से लगाया जा सकता है। बतौर नायक भले ही आप उन्हें कम अंक दें, लेकिन फिर भी पूरी फिल्म आपको आखिरी पड़ाव तक कहानी से जोड़े रखेगी।
साल 2021 में हिंदी फ़िल्म अंडमान ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ हुई। यह फिल्म 2020 में फैले करोना महामारी पर आधारित है महामारी के अलावा भी फिल्म की कहानी समाज के कई परतों को बारीकी से खोलती है।
विकास की राजनीति में फंसा गांव

फ़िल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के एक गांव की है, जो शहर से कुछ कोस दूर नदी के किनारे बसा है। लेकिन सुविधाओं की कमी के कारण गांव शहर से कई साल पीछे है। गांव और शहर के बीच एक नदी बहती है। लेकिन उस नदी पर पुल नहीं है। यह पुल सिर्फ़ ईंट-पत्थरों का नहीं, बल्कि गांव को आधुनिकता से जोड़ने का रास्ता बन सकता था, जो भ्रष्टाचार और राजनीतिक साज़िशों की वजह से अब तक अधूरा पड़ा है। असल में आज भी भारत के कई गांव बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
फ़िल्म के नायक अभिमन्यु यूपीएससी परीक्षा की तैयारी कर रहे होते हैं। कई बार असफल होने के बाद, हताश होकर वह आत्महत्या से मौत की कोशिश भी करते हैं। मगर क़िस्मत उन्हें एक और मौक़ा देती है और वह बच जाता है। इसके बाद,अभिमन्यु की नियुक्ति अंडमान गांव में पंचायत सचिव के पद पर होती है। वह एक जागरूक और पढ़े-लिखे नागरिक हैं जो नियम कायदों का पालन करते हैं। वह कॉलेज में हमेशा अव्वल रहे हैं पर आईएस परीक्षा में सफल नहीं हो पाते। लेकिन वह अपनी जीत और सिस्टम को बदलने की कोशिश करते रहे।
फ़िल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के एक गांव की है, जो शहर से कुछ कोस दूर नदी के किनारे बसा है। लेकिन सुविधाओं की कमी के कारण गांव शहर से कई साल पीछे है।
जातिवाद की समस्या और समाज
जब अभिमन्यु गांव में पंचायत सचिव के रूप में पद संभालते हैं, तो देखते हैं कि गांव की हालत बहुत खराब है। गांव में एक भी अस्पताल नहीं है। इसके अलावा जातिवाद, भ्रष्टाचार की जड़ें गहराई तक फैली हुई हैं। गांव के प्रधान का नाम झल्लू है, लेकिन पूरे गांव में यह किसी को पता ही नहीं है। दरअसल, पंचायत चुनाव में सीट दलित समुदाय के लिए आरक्षित थी। इसलिए, गांव के कथित ऊंची जाति के प्रभावशाली लोगों ने अपने नौकर झल्लू को नामांकित करवा दिया। वह बस काग़ज़ों में प्रधान है, असल में सारे फैसले पहले वाला विधायक लेता था। यहां तक कि गांववालों की नजर में प्रधान उसका छोटा भाई था। यह कहानी आज भी गांव में हो रहे बेईमानी और धांधली को दिखाती है।

इस फ़िल्म के ज़रिए यह भी देखने को मिलता है कि कानून की किताबों में भले ही सभी जातियों को बराबर अधिकार दिए गए हैं लेकिन वास्तव में वो महज कागजी हैं। अभिमन्यु पुल के निर्माण के लिए सीएम को चिट्ठी लिखते हैं लेकिन साल 2020 आते-आते कोविड महामारी आ जाती है और अभिमन्यु की ड्यूटी क्वारंटीन सेंटर में लगा दी जाती है। इस कैंप में सभी जाति के लोगों को समान रूप से रखा जाता है लेकिन ऐसी स्थिति में कथित ऊंची जाति के लोगों ने आपत्ति जताई और उन लोगों के साथ रहने से इनकार कर दिया, जिन्हें वे कथित तौर पर निम्न जाति के समझते थे।
इस कैंप में सभी जाति के लोगों को समान रूप से रखा जाता है लेकिन ऐसी स्थिति में कथित ऊंची जाति के लोगों ने आपत्ति जताई और उन लोगों के साथ रहने से इनकार कर दिया, जिन्हें वे कथित तौर पर निम्न जाति के समझते थे।
सिस्टम के खिलाफ़ सच्चाई का सफर
अभिमन्यु अपने काम को ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से करते हैं। वह गांव की समस्याओं को सिर्फ़ फॉर्म पर भरने वाला अफ़सर नहीं, बल्कि गांव को समझने और बदलने की नीयत से देखने वाला व्यक्ति है। लेकिन, आज के समय में एक ईमानदार अफ़सर के लिए ईमानदारी से काम करना ही सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है क्योंकि यह जो तंत्र है यह सिर्फ़ कागज़ों में नहीं, बल्कि सामाजिक ढांचे, जाति व्यवस्था, भ्रष्टाचार और स्थानीय राजनीति में गहराई तक फैला हुआ है। यह सिस्टम हर उस इंसान को तोड़ने की कोशिश करता है जो बदलाव की बात करता है, जो नियमों को सही मायनों में लागू करना चाहता है। फिल्म अंडमान में इस बात को बड़ी बारीकी और सादगी से दिखाया गया है कि किस तरह एक नौजवान अफ़सर को अपने ही काम करने के अधिकार से वंचित किया जाता है।
अभिमन्यु जब गांव में अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से निभाने की कोशिश करता है जैसे गांव में स्वास्थ्य सेवाएं लाना, स्कूलों में सुधार करना, दलित समुदाय के लिए योजनाओं को लागू करना तब भ्रष्ट और जातिवादी ताकतें उसके खिलाफ साजिशें रचने लगती हैं। उस पर झूठे आरोप लगाकर उसे नौकरी से हटवाने की कोशिश की जाती है। यह वही दौर होता है जब आमतौर पर एक इंसान टूट जाता है, हार मान लेता है। लेकिन अभिमन्यु ने हार नहीं मानी। फिल्म का क्लाइमेक्स बेहद प्रेरणादायक है। जब यूपीएससी इंटरव्यू के दौरान उनसे पूछा जाता है कि यह आपका आखिरी इंटरव्यू है, अगर इस बार नहीं हुआ तो क्या करेंगे तब वह बिना हिचक, मुस्कराते हुए कहते हैं, अभी फेल होने से डर नहीं लगता इट्स ओके टू फेल। यह संवाद सिर्फ़ एक जवाब नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम को एक ज़ोरदार जवाब है। यह उन लाखों युवाओं के लिए उम्मीद का संदेश है जो बार-बार असफल होकर भी हार नहीं मानते।
फिल्म का क्लाइमेक्स बेहद प्रेरणादायक है। जब यूपीएससी इंटरव्यू के दौरान उनसे पूछा जाता है कि यह आपका आखिरी इंटरव्यू है, अगर इस बार नहीं हुआ तो क्या करेंगे तब वह बिना हिचक, मुस्कराते हुए कहते हैं, अभी फेल होने से डर नहीं लगता इट्स ओके टू फेल।
गांव के पूर्व विधायक, जो पहले अभिमन्यु के खिलाफ थे और जातिवादी राजनीति करते थे, उनका आखिरकार हृदय परिवर्तन होता है। वह अपनी पिछली गलतियों और दूसरों जातियों के साथ किए गए भेदभाव पर पछताते हैं। यह परिवर्तन इस बात को दिखाता है कि सच्चाई और मेहनत से केवल व्यवस्था नहीं, लोगों के दिल भी बदले जा सकते हैं। अंत में, जब अभिमन्यु यूपीएससी इंटरव्यू पास करता है और उसकी नियुक्ति एक आईएएस अधिकारी के रूप में होती है, तो वह पहले की तरह सिर ऊंचा करके गांव लौटता है। लेकिन इस बार वह सिर्फ एक अफसर नहीं, बल्कि गांव के युवाओं के लिए एक प्रेरणा बन चुका होता है।
पावर का सही उपयोग
फ़िल्म में दिखाया जाता है कि अगर सत्ता का सही इस्तेमाल किया जाए, तो बदलाव मुमकिन है। मगर फ़िल्म यह भी उजागर करती है कि यही ताक़त जब ग़लत हाथों में होती है, तो विकास सिर्फ़ काग़ज़ों तक सीमित रह जाता है। फ़िल्म का एक और पहलू कामकाजी महिलाओं के दोहरे संघर्ष को दिखाता है कि घर और दफ़्तर दोनों को एक-साथ संभालने को कैसे अनदेखा किया जाता है। फिल्म में दिखाया गया है कि कोरोना के दौरान जब पुरुष और महिलाएं दोनों वर्क फ्रॉम होम कर रहे थे, उस दौरान उनके काम को कैसे तव्वजों नहीं दी जाती है और घर की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं को सौंप दी जाती है। फ़िल्म का एक संवाद इस सच्चाई को बताता है कुछ लोगों की अपनी जिम्मेदारियों को न निभाने की वजह से, किसी और को ओवरवर्क करना पड़ता है।
फ़िल्म अंडमान न केवल एक गांव की कहानी है, बल्कि यह हमारे समाज की उन जटिल सच्चाइयों को भी उजागर करती है, जो अक्सर हमारी नजरों से छिपी रहती हैं। यह फिल्म जातिवाद, भ्रष्टाचार, और प्रशासनिक तंत्र के दुरुपयोग को बेबाकी से सामने लाती है और दिखाती है कि कैसे एक ईमानदार और जुझारू व्यक्ति अपने संघर्ष और उम्मीदों के बल पर सिस्टम की गहरी खामियों को चुनौती दे सकता है। फिल्म अंडमान हमें सिखाती है कि असफलता कोई अंत नहीं, बल्कि यह हमें सीखने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर सकती है। फिल्म बताती है कि यदि हम बदलाव चाहते हैं तो हमें सिर्फ कानूनों को नहीं, बल्कि सोच और व्यवहार को भी बदलना होगा।